Jul 2, 2015

भारतीय चित्रकार मन

भारतीय मन के अन्दर एक चित्रकार है और इनकी कला, क्या कहने.. भारतीय चित्रकार मन की तारीफ़ करने बैठूं तो एक बाबरनामे से बड़ी किताब लिख जाये। ऐसे ही थोड़े न हर कोई इसका दीवाना है. और आप देश की क्या बात करते हैं.. विदेशों में चर्चे हैं जनाब.. विदेशी इनकी कला की फ़ोटो खींचे बिना रह ही नहीं पाते तो बरबस ही उनका कैमरा बस इनकी कला को कैद कर लेता है। 



आप जानते हैं इन कलाकारों को किसी कैनवास या कागज़ की ज़रुरत नहीं है। इनका कैनवास हर वो जगह है जो ख़ाली है, मुफ्त है और जिसको साफ़ ये नहीं करने वाले हैं. समझे कुछ.. अरे सड़क, सरकारी दीवारों के कोने, टाइल्स, सीढियां, लोहे के पाइप, सड़क के किनारे लगी रेलिंग और सरकारी कूड़ेदान का बाहरी भाग सब कुछ इनका कैनवास ही तो है, इनका प्रिय रंग आप समझ ही गए होंगे.. जी हां..कत्थई रंग, इस रंग में अपनी कला के नमूनों को डुबोकर चित्रकार इस कैनवास को कभी खाली नहीं रहने देता। 

बिना ब्रश बना देते हैं आर्ट 


जनाब इनके हुनर के क्या कहने, मजाल है कि ये कूंची और ब्रश हाथ में भी पकड़ें, ये केवल अपने मुंह को ही इस कार्य के लिए प्रयोग कर सकते हैं. मुंह में रंग लिए ये सड़कों को कत्थई रंग से रंगते हैं, यदि मेरी बात पर यकीन न हो तो राह चलते किसी भारतीय चित्रकार को गाड़ी को धीमा करके और दायीं या बायीं किसी भी तरफ चित्रकारी करते देख सकते हैं। इससे कोई फरक नहीं पड़ता कि ग़लती से ये रंग किसी और के कपड़ों, मुंह और गाड़ी पर लग सकता है क्यूंकि ग़लती इन कलाकारों की नहीं होती.. हवा की होती है, मुई उसी तरफ़ बह रही होती है। 


इंसान भी रंग जाता है इस कला में 

कभी-कभी चित्रकार केवल ज़मीन की तरफ देखते हुए मुंह में भरे रंग को बस उलट भर देता है। इस कला में समय की बचत होती है। अगली कला के नमूने में चित्रकार राह में चलते बिना किसी तरफ देखे मुंह में भरा रंग एक लम्बी धार जैसे छोड़ता है, फ़ायदा देखिएगा कि सड़क के साथ-साथ कोई और दीवार या इंसान भी इस कला में रंग जाता है। ये सब पढ़कर आप सब गर्व और ख़ुशी से भर गए होंगे। हाँ इस कला को न समझ पाने वाले नासमझ लोगों को ग़ुस्सा ज़रूर आ रहा होगा पर जनाब आपने कर क्या लिया। अगर इतना ही बुरा लगता था तो किसी चित्रकार को रोका होता। 

लेखक का मन हुआ पुलकित 

मुझ लेखक को ही ले लीजिये, ये लिखते हुए इतना अधिक हर्ष हो रहा है कि मन का हर कोना उस कला और कलाकार के दांतों के सफ़ेद से कत्थई हो चुके रंग और उसके ऊपर लिजलिज़ी परत के स्मरण मात्र से पुलकित हो उठा है और भोजन करने की भी इच्छा नहीं हो रही। अरे हाँ .. मैंने अभी तक आपको ये नहीं बताया ये कला सुन्दर होने के साथ साथ सुगन्धित भी है। इसकी सुगंध के क्या कहने, बस यूँ समझिये कि इससे प्यार न हो जाये इसलिए लोगों को कभी कभार नाक भी बंद करनी पड़ जाती है। अब तक चित्रकारी करने के लिए उतावले हो चुके इस मन को रोकिये मत, बस अपने घर के पास के किसी खोखे पर चले जाइये, गोल्ड्मोहर, तुलसी, तम्बाकू आदि रंग ले आइये, थोड़े महँगे रंगों से चित्रकारी करना चाहें तो रजनीगंधा, पान विलास, कमला पसंद जैसे विकल्प भी उपलब्ध हैं। इन रंगों को अपने मुंह में रखिये और लार के साथ मिश्रित कीजिये, घर से बाहर निकलिये और सबसे पहले अपने घर की बाहरी दीवार से शुरुआत कीजिये। यकीन जानिये बेहद ख़ूबसूरत लगेगी। और नासमझ लोगों से मेरी अपील है कि चित्रकारों को अपना काम करने दें क्यूंकि इन्हें रोकने में आप अपना समय गंवाएंगे नहीं और खून जलाने से कुछ होगा नहीं। जैसे आप आज तक चुप रहे हैं.. कृपया अभी भी रहें।

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Jun 28, 2015

जोर नंबरों पर नहीं बल्कि कौशल के विकास पर हो

भारत देश में एक अजब दौड़ चल रही है, नम्बरों की दौड़, शिक्षक, छात्र, यूनिवर्सिटीज सब इस दौड़ में आँख बंद करके दौड़े चले जा रहे हैं||लेकिन पहुंचना कहाँ है किसी को नहीं पता|आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं|हाल ही में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने कंप्यूटर साइंस की कट ऑफ लिस्ट जारी की है जिसमे मेरिट 100 प्रतिशत रखी गयी है| बाकी विषयों की मेरिट भी 95 प्रतिशत से 100 प्रतिशत के बीच है| लगभग 3 लाख से अधिक एप्लीकेशन भी आ चुके हैं| लगभग हर विश्वविद्यालय में यही हाल है| लखनऊ विश्वविद्यालय में भी बीकॉम जैसे विषयों की मेरिट 90 प्रतिशत से ऊपर रखी है| एक नज़र में देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि भारत के छात्रों की पढाई का स्तर उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है लेकिन विश्व  पर उच्च शिक्षा में भारत के संस्थान और भारत के छात्र अदृश्य हैं| हम आज भी अच्छी शिक्षण सामग्री के लिए विदेशों में पर ही निर्भर हैं| दूसरा पहलू अधिक संवेदनशील है कि क्या छात्रों के ज्ञान का स्तर भी उनके नम्बरों जितना ही है?
सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को संतोषजनक गुणवत्ता की मुफ्त शिक्षा दिए जाने के उद्देश्य से की गयी थी| उपस्थिति कम होने के चलते मध्यान्ह भोजन योजना (मिड डे मील) की शुरुआत हुई| इन दोनों योजनाओं की प्रतिबद्धता शिक्षा की बेहतरी के लिए थी लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ| मीडिया ने सैकड़ों बार इन योजनाओं और ऐसे स्कूलों की कलई उजागर की है| गुणवत्तापरक शिक्षा के न होने पर मध्यम वर्ग निजी स्कूलों की तरफ रुख करने को मजबूर है जहाँ एडमिशन के लिए उन्हें जेब ढीली करनी होती है| इसके बाद आठवीं तक बच्चों को फेल करने पर मनाही है| इससे फायदे कम और नुकसान अधिक हुए हैं| फेल होने का डर न होने की वजह से बच्चा और अभिभावक दोनों ही शिक्षा को महत्व नहीं देते और दसवीं में छात्रों को फेल किये जाने पर परोक्ष रूप से रोक भी है| बोर्ड में कॉपी चेक करने वाले टीचर नम्बर देने में उदारता दिखने लगे हैं क्यूंकि ऐसा न करने पर उनके खिलाफ कारवाई हो सकती है| शिक्षा का नया सत्र आरम्भ होने को है| कॉलेजों में दाखिले की प्रक्रिया शुरू हो गयी है लेकिन सवाल जस का तस है कि क्या इतनी अधिक मेरिट इस बात का प्रमाण है कि भारत देश में दूसरे देशों के मुकाबले शिक्षा बेहतर है? आंकड़े इस सवाल का जवाब बेहतर देते हैं| उत्तर प्रदेश के ही आंकड़ों की सुनें तो 2008 के बोर्ड एग्जाम में उत्तर प्रदेश में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे फेल हुए| उसके बाद एकदम से पास होने वाले प्रतिशत में इजाफा हुआ और 2013 में ये आंकड़ा घटकर 15 प्रतिशत के आसपास रह गया| प्रतिशत तो कम हुआ लेकिन पढाई का स्तर ऊँचा नहीं हुआ| और आजकल के परीक्षा परिणामों पर गौर करें तो अब पास और फेल की बात नहीं रह गयी है अब 95 से 100 प्रतिशत की अंधी दौड़ है| 95 प्रतिशत से कम अंक पाने वाले छात्र औसत कहलाने लगे हैं| लेकिन कडवी सच्चाई यही है कि अभी तक विषय की समझ रखने वालों का प्रतिशत न्यूनतम से भी न्यूनतम स्तर पर है और बिहार में हुई नक़ल की तस्वीर तो देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी चर्चा का विषय बनी| ये तस्वीर साफ़ साफ़ हमे आइना दिखाती है कि हमारे देश में जोर केवल मार्कशीट में छपे नम्बरों पर है न कि ज्ञान अर्जित करने पर|

उच्च शिक्षा का हाल तो इससे भी अधिक बुरा है| यूएसए और चीन दोनों देशों को मिलाकर पास होने वाले इंजीनियर ग्रेजुएट से अधिक भारत में हर साल पास होते हैं| हर साल एक लाख एमबीए भारत के प्रबंधन संस्थानों से निकलते हैं| एक हज़ार के आसपास पीएचडी की डिग्री प्रदान की जाती है लेकिन फिर भी बेरोजगारी कायम है| इसका एक कारण यह हो सकता है देश में नौकरियों की कमी हो लेकिन इस का बड़ा कारण यही दिखता है कि गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है| सिलेबस समय से पूरा कराने और ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने पर ही कॉलेजों का सारा जोर रहता है| मानसिकता ये है कि केवल अच्छे नंबर लाने वाले ही सफल है जबकि वास्तविकता में ज्ञान का नंबरों से कोई लेना देना नहीं है| यदि हमें विश्व में अपनी पहचान बनानी है तो समय आ गया है इस देश की शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव किये जाएँ और ये बदलाव प्राथमिक स्तर से ही शुरू हों| जोर नंबरों पर नहीं बल्कि कौशल के विकास पर हो जिससे हर बच्चा अपने हुनर को पहचान कर उसी क्षेत्र में आगे बढे| 

Jun 5, 2015

गुज़री हुई बहार की एक यादगार हूँ

काँटा समझ के मुझसे न दामन बचाइए.. गुज़री हुई बहार की एक यादगार हूँ. 


मुशीर झंझानवी का यह शेर अक्सर मैं गुनगुनाया करती हूँ. मैं अब कौन हूँ, सोचती हूँ तो छाती चीख़ उठती है मेरी, लेकिन मेरे पिछले वक़्त की यादें अक्सर मुझे एक भीनी फुहार के साथ माटी की सुगंध का एहसास करा जाती हैं। मैं गोमती हूं. आज अपनी हालत देखती हूँ तो बस दिल भर आता है। सोचा आज अपनी कहानी कहकर दिल का गुबार निकल लूँ.. मेरी आत्मा की मौत पहले ही हो चुकी है बस अब इस शरीर का जाना बाकी है.. 
एक वक़्त वो भी था जब मैं अपने रंग रूप पर इठलाया करती थी.. गोमत ताल से चलते हुए मैं बस छलछलाती, चहकती, कल-कल करती उमंगों से भरी बस बहती जाती थी.. गुरूर था कि लखनऊ, जौनपुर जैसे कई शहरों को बसने का आसरा मैंने दिया है और सुकून था मेरा भविष्य इन्हीं सुरक्षित हाथों में है। अब भी मुझे वो शामें याद आती हैं जब छतरमंजिल से नवाबों की बेग़म मेरी और ताकती थीं और अपने दिल के ख्यालों को हूबहू वे मेरे स्वच्छ, निर्मल जल में देख पातीं थीं। संगीतकारों की धुनों से मेरी लहरें आबाद रहती थीं। लखनऊ की गोमती ..कभी नदी थी अब नाला बन गयी है कई शायरों की शायरी का उद्गम मैं ही हूं. शामें शायराना और दिन बेपनाह खूबसूरत हुआ करते थे.. ऐसी कई तारीखों की दौलत से दौलतमंद थी मैं. नाज़ था मुझे कि मैं नवाबों के शहर मैं हूँ और इनकी नवाबियत पर. कि हमेशा यह अपनी माँ जैसे मेरा ख्याल रखेंगे. मुझे जिंदा रखेंगे.. कहने को हाँ जिंदा तो रखा मुझे लेकिन मेरे रंग रूप को उजाड़ दिया.. कभी नदी थी अब नाला बन गयी है, कभी जीवनदायिनी थी अब प्राण हरने वाली बन गयी है। 


 जो मछलियां, जीव जंतु कभी मेरे पानी में अपने जीवन को संवारते थे, आज एक किनारे पर मरे मिलते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि मेरे अन्दर घुली हुई ऑक्सीजन की कमी हो गयी है जिससे मेरे अन्दर रहने वाले जीव जंतु मर रहे हैं। मैं चाह कर भी इन्हें नहीं बचा पाई क्यूंकि अब मेरी शक्ति भी क्षीण हो चुकी है। मैं खुद इस घुटन में साँसे नहीं ले पाती, मेरा नीला बहता नीर आज रुका हुआ काला बदबूदार पानी बन गया है..सोचा नहीं था कि अपनी इन्हीं आँखों से अपना ये हश्र देखूंगी। लखनऊ के बीच से निकलती हुई मैं सोचती थी कितना भव्य होगा मेरा इस दुनियां से जाना लेकिन नए लखनऊ और पुराने लखनऊ के बंटवारे ने मेरे बारे में सोचने का किसी को वक़्त ही नहीं मिला।  हुक्मरानों ने नए लखनऊ को सँवारने में ही समय लगा दिया, पुराना लखनऊ मसरूफ हो गया। मुझे याद करने के दो पल भी नहीं मिले किसी को। मैंने लखनऊ के लोगों के साथ यहाँ की आबोहवा को भी बदलते देखा है.. कभी-कभी अंगड़ाई लेते हुए जब में एक लम्बी सांस भरती थी तो एक ताज़ी, सुहानी हवा मुझे ताज़गी का एहसास कराती थी लेकिन अब जब मैं कभी अंगडाई लेकर साँस लेती हूँ तो एक घुटन भरी हवा मेरे ज़ख्मों को हरा करते हुए निकल जाती है अब मैं किसी की नहीं हूं. हिन्दू मान्यता को मानने वाले एकादशी के दिन मुझमे नहाया करते थे और ऐसा मानते थे कि ऐसा करने से उनके पाप धुल जायेंगे लेकिन अब लोग मुझमे पैर डालने से भी बचते हैं, पीना तो दूर की बात है और तो और पूजा सामग्रियां फेंक पर मुझे और प्रदूषित करते जा रहे हैं।. 


हाँ कभी कभार कुछ लोग मुझे साफ़ करने की पहल किया करते हैं लेकिन मैं एक नदी हूँ जो एक नाले में तब्दील हो चुकी है.. शहर भर का कचरा डाल कर, शहर भर के नालों को मुझमें मिलाकर, पूजा सामग्री और मृत अवशेष बहा कर मुझे इस हद तब प्रदूषित किया गया है कि अब इतनी आसानी से मेरा साफ़ होना मुमकिन नहीं है। मुझे साफ़ करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि सतत प्रयासों और ज़िम्मेदाराना संजीदगी की ज़रुरत है।मैं आज भी जीवनदायिनी हूँ बस मुझे यहाँ के बाशिंदों के थोड़े से सहारे की ज़रुरत है।

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May 7, 2015

हमें शिद्दत से है सिविक सेंस की दरकार


दुनियां में पैदा होने वाला हर बच्चा पांच सेंस के साथ पैदा होता है. धीरे धीरे बड़े होने पर एक सेंस उसे खुद से सीखना होता है. इस सेंस को हम सिविक सेंस कहते है. सिविक सेंस का अर्थ उन अलिखित नियमों से है जो हमारे और दूसरे की सहूलियत के लिए बनाये जाते हैं. कुछ बातें हमने चलते फिरते पढ़ी होंगी जैसे कृपया यहाँ गन्दा न करें, यहाँ गाडी खड़ी करना मना है, कृपया प्याऊ से पानी बर्बाद न करें, इस दीवार पर पेशाब न करें, यहाँ थूकना मना है, कृपया बाएं हाथ पर चलें, रेड लाइट पर रुकें, कृपया बायीं ओर चलें, चलती सड़क पर न थूकें, यहाँ विज्ञापन लगाना मना है, ज़ेब्रा क्रासिंग पर रुकें, फूल तोडना मना है, नो पार्किंग, सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान न करें, कृपया पेट्रोल पंप पर मोबाइल बंद कर लें... जिन्हें हम गाहे-बगाहे यहाँ वहां पढ़ते रहते हैं. ये सारी सिविक सेंस के अंतर्गत आती हैं. इनमे हमे ज़्यादातर चीज़ों के लिए हमें मना किया जाता है कि ऐसा न करें पर क्यूँ? हमारे ख़ुद को जवाब कुछ इस तरह होते हैं कि अगर हम ऐसा करेंगे भी तो कौन हमें रोकेगा और फिर हम इतनी सारी बातें क्यूँ माने, ये सब तो लोग लिखते ही हैं, अरे ठीक है जो मन आये करो, इतना कौन सोचे, ठीक है हो गया हो गया देखेंगे आगे. ऐसा ही कुछ, है न. या तो हम लोग इन नियमों की अनदेखी कर देते हैं या हम लोगों को इन्हें जानबूझकर तोड़ने में बड़ा मज़ा आता है. इसके पीछे की वजह क्या हो सकती है? आपने कभी सोचा है कि हम लोगों के लिए इतने निर्देश क्यूँ लिखे रहते हैं और क्यों सिविक सेंस जैसी आम चीज़ के लिए भी हम लोगों को बताना पड़ता है.
कभी आपने सोचा की आखिर हमारे देश में सिविक सेन्स लोगों की प्राथमिकता में क्यों नहीं है.बढ़ती जनसँख्या शहरों पर बोझ डाल रही है. इस वक़्त भारत रूरल-अर्बन डिवाइड की समस्या से जूझ रहा है. जो ग्रामीण हैं वो इन सब चीज़ों से अनजान हैं और शहर में रहने वाले लोग इन निर्देशों को अनदेखा करते हुए निकल जाते हैं क्यूंकि उन्हें यहाँ रहते समय हो गया और समय के साथ चीज़ों की अहमियत कम हो जाती है. जो कस्बाई लोग हैं वो जानते हैं कि उन्हें शहर एक या दो दिन के लिए आना है तो वो इन निर्देशों की गंभीरता को नहीं समझते. अपनी सहूलियत का अधिक ख्याल करते हुए लोग कार में से सड़क पर पानी की बोतल, चिप्स के खाली पैकेट और गाड़ी चलाते वक़्त अचानक से गाड़ी का दायाँ दरवाज़ा खोलकर पान की लम्बी पीक बाहर निकालते हैं और सड़क को गन्दा करते हैं या ज़्यादातर लोग ख़ासकर औरतें चलती बस में से बाहर उल्टी कर देते हैं. क़ायदे से वो एक पोलिथीन अपने साथ रख सकते हैं कि अगर उन्हें उल्टी आये तो वो उसका इस्तेमाल करें और बाहर निकल कर उसे कूड़ेदान में फ़ेंक दें लेकिन ऐसा होता नहीं है. रेलवे स्टेशन पर साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा रहता है कि यहाँ गंदगी न करें लेकिन लोग चाय के कप, बोतल लोग यूँ ही पटरी पर फेंक देते हैं. हद तब हो जाती है जब छोटे छोटे बच्चों की माएँ अपने बच्चों को वहीँ शौच करवाती हैं या उनके नैपकिन्स वहीँ डाल देती हैं. लोग इस बात से अनभिज्ञ बने रहते हैं कि इस तरह खुले में गंदगी करने से उनके स्वास्थ्य पर ही उल्टा असर पड़ेगा. मन का करना हमेशा अच्छा होता है लेकिन नियमों का पालन भी ज़रूरी होता है खासकर तब जब बात सिविक सेंस की हो. आप किसी गंदगी करेंगे या ग़लत जगह गाड़ी खड़ी करेंगे तो हो सकता है उस दिन आपको सहूलियत हो जाये लेकिन उसके बाद आप उम्मीद नहीं कर सकते कि आपको साफ़ जगह मिलेगी या फिर आप किसी और की ग़लती की वजह से जाम में नहीं फसेंगे. जाम से ख्याल आया शहरों में जाम लगने का सबसे बड़ा कारण गाडी पार्किंग में न खड़ा कर के रोड पर ही आड़ा तिरछा खड़ा कर देना या फिर दूसरे से आगे निकलने की जल्दी में आते हुए ट्रैफिक  की दिशा में गाडी घुसा देना जिससे ट्रैफिक की जिस दिशा में जाम नहीं लगा वहां भी जाम लग जाता है .जरा सोचिये अगर हम थोडा देर इन्तजार कर लेते तो शायद जाम उतना लम्बा नहीं होता जितना किसी एक की गलती से हो गया.
सिविक सेन्स एक ऐसी चीज है जिसे कानून बना कर हमारी आदत में शामिल नहीं किया जा सकता वह भी ऐसे देश में तो बिलकुल भी नहीं जहाँ आधी से ज्यादा जनसँख्या निरक्षर हो वहां हर काम सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता .सिविक सेन्स तो लोगों को जागरूक बना कर ही किया जा सकता है.अगर हमें इस बात का एहसास हो जाए कि इसमें ही हम सबका भला है तो लोग खुद बा खुद वो नियम मानने लग जायेंगे जिसमें सबका भला है.आप भी सोच रहे होंगे कि ये होगा कैसे.गुड क्वेशन अरे भाई जो भी गलती करे उसे प्यार से समझाओ कि ये शहर ये दुनिया आपकी ही है अगर आप अपने आस पास के परिवेश को साफ़ सुथरा नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा.हाँ इस काम में मेहनत भी लगेगी और समय भी फिर आदतें बदलते ,बदलते ही बदलती हैं.सोशल मीडिया का सहारा लीजिये अपने आस पास अगर कोई ऐसा कर रहा है उसकी तस्वीर खींच कर सोशल मीडिया पर अपलोड कर दीजिये. फिर ,फिर क्या सोच क्या रहे हैं लग जाइए काम पर अगर एक दिन में कोई एक आदमी आपके कारण सिविक सेन्स की यूटीलटी समझ रहा है तो मान लीजिये कि इस देश को बदलने में कुछ हिस्सा आपका भी है .



May 2, 2015

शोध के लिए तय करनी होगी लम्बी दूरी


ज्ञान की इस दुनिया में अपनी बात को पुष्टता से कहने के लिए आंकड़ों की जरुरत होती है|आंकड़े जहाँ तथ्य की पुष्टि करते हैं वहीं भविष्य के विमर्श के लिए रास्ता भी खोलते हैं | सभी  आंकड़े एक निश्चित  शोध प्रक्रिया से हासिल होते हैं. आंकड़े वे आधार है जिनसे कथ्य में प्रमाणिकता आती है |सोशल मीडिया में हम उन्हीं बातों पर ज्यादा महत्त्व देते हैं जो आंकड़ों द्वारा पुष्ट किये गए हों चाहे वह किसी खास विषय जैसे विज्ञान या साहित्य से जुडी हो या फिर जीवन या हमारी आदतों के बारे में. लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि इनमे से कितने शोध भारत के होते हैं? आंकड़ों पर नज़र डालेंगे तो अमेरिका ने वर्ष 2008 में 48,802 पीएचडी की डिग्री प्रदान की. चीन के शिक्षा मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित सूचना के अनुसार चीन ने वर्ष 2010 में 48,069 पीएचडी की डिग्री प्रदान की. यानि की अमेरिका साल में सबसे ज्यादा डॉक्टरेट या पीएचडी की उपाधि प्रदान करने वाला देश है. उसके बाद चीन और जर्मनी का स्थान आता है. इस संदर्भ में  भारत को अपनी जगह बनाने के लिए अभी  लम्बी दूरी तय करनी है फिर भी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज के अनुसार पिछले दस वर्षों में भारत ने 45,561 पीएचडी की डिग्रियां प्रदान की. संख्या बहुत अधिक कम है. 2010 में प्रकाशित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज, इनफार्मेशन एंड लाइब्रेरी नेटवर्क सेंटर (इनफ्लिबनेट) और टाटा कंसल्टेंसी सर्विस की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में रिसर्च एंड डेवलपमेंट विभाग,अकादमिक रिसर्च में केवल तीन से चार प्रतिशत का निवेश करता है. इसी रिपोर्ट के अनुसार ही भारत में उच्च शिक्षा के सभी छात्रों में से केवल 0.65 प्रतिशत ही पीएचडी के लिए नामांकन करते हैं. शोध में छात्रों का घनत्व हमारे यहाँ केवल 1.49 है जबकि अमेरिका  में यह 139.5 ,122.4 चीन में, 71.0 जापान में, 28 जर्मनी में और 20.4 फ्रांस में है. आंकड़े अपनी बात स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमारे यहाँ शोध को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती .
उच्च शिक्षा में शोध के रूप में होने वाला निवेशन रोजगारपरक नहीं है और इसलिए शोध महज शोध करने के लिए हो रहे हैं समाज या विषय को समझने के लिए नहीं |महत्वपूर्ण है कि भले ही हमारे विश्वविद्यालय आंकड़ों में पी एच डी की खानापूरी तो कर रहे हैं पर जब बात वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता की आती है तो वहां हम काफी नीचे रह जाते हैं |यानि शोध में गुणात्मक तौर पर भारत का कोई ख़ास योगदान नहीं है पर संख्यात्मक द्रष्टि से भले ही आंकड़े एक बेहतर तस्वीर देते हों |
सांस्कृतिक रूप से भारतीय समाज श्रोत परम्परा आधारित समाज रहा है जहाँ सवाल उठाने या पूछने की कोई जगह नहीं रही है और यह एक बड़ा कारण है कि एक सामान्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा के बाद एक अदद नौकरी करना चाहता है न कि वह एक पूर्णकालिक शोध कर्ता के रूप में विषय या समाज को समर्ध करना चाहता है |इस मानसिकता को बदलने की जिम्मेदारी युवाओं पर है और सरकार को शोधकर्ताओं को लगातार प्रेरित करना होगा |

सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र चिकित्सा विज्ञान  में हालात कोई ख़ास उम्मीद नहीं जगाते | ज़्यादातर दवाइयां का पेटेंट विदेशी शोधकर्ताओं के पास हैं समस्या के समाधान के लिए सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है सरकार हर साल पीएचडी करने वालों को और इसके करने के बाद आगे शोध के लिए छात्रवृति और फ़ेलोशिप के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करती है. यूजीसी हर साल जूनियर रिसर्च फेलोशिप के नाम पर हजारों रुपये हर महीने एक शोध छात्र को देती है. यह सब इसलिए है जिससे बिना किसी आर्थिक संकट के शोध छात्र आराम से अपने शोधकार्य को पूर्ण कर सकें लेकिन जमीनी स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है.चूँकि भारत में शोध कार्य नौकरी की गारंटी नहीं देते इसलिए शोधार्थी अपने शोध को खासकर मानविकी जैसे विषयों में उतनी गंभीरता और प्रतिबधता से नहीं करते जितनी किसी शोध कार्य में उम्मीद की जाती है |
यू जी सी के पहल शोध गंगा भारत के विश्विद्यालयों में हो रहे समस्त शोध कार्यों को एक साथ  ऑनलाइन लाने की अच्छी पहल है पर इस परियोजना को पर्याप्त रूप से समस्त विश्विद्यालयों का समर्थन नहीं हासिल हो पा रहा है |
सोशल नेटवर्किंग साईट्स के प्रसार और युवाओं की विशाल संख्या आज देश के सामने शोध के क्षेत्र में उभरने का एक मौका दे रही है अब देखना है युवा इस अवसर का इस्तेमाल कैसे करेंगे |



Apr 15, 2015

मौसमी मिजाज ने छीनी अन्नदाता से रोटी और हम कहते हैं वाह क्या मौसम है...

मौसमी मिजाज ने छीनी अन्नदाता से रोटी और हम कहते हैं वाह क्या मौसम है...

सर पर साफ़ा, सूती कुरता, घिसा हुआ पजामा, जगह-जगह से फटी मोजरी, झुलसी हुई त्वचा, शरीर छूने पर चुभती हड्डियाँ, माथे पर चिंता की चिर लकीरें और आँखों में बुझती सी उम्मीद...
एक कृषि प्रधान देश के किसान की यही पहचान है| पिछले कुछ दिनों में किसानो के साथ जो भी हुआ उसकी कल्पना करना भी दुखद है. इस साल के शुरुआत से अब तक करीब 250 किसानों ने आत्महत्या कर ली और पिछले साल करीब 1109 किसानों ने| अजीब लगता है न कि जो किसान देश भर के लोगों का पेट भरता है वो किसान खुद के घर का पेट नहीं भर पाया|
बादलों का इंतज़ार प्रेमियों के अलावा किसान भी करता है
बादलों का इंतज़ार प्रेमियों के अलावा किसान भी करता है क्योंकि उसे लगता है कि बारिश की अमृत बूंदे जब उसके खेत की मिटटी को अपने आँचल में समेत लेंगी तो जो उसकी ज़मीन सोना बरसायेगी और वो ख़ुद के घर के साथ हज़ारों घरों को रोटी दे पायेगा लेकिन जब वही अमृत बूँदें कहर ढाने पर आमादा हो जाती हैं तब केवल भगवान के आगे हाथ फ़ैलाने के अलावा उसके पास कुछ नहीं बचता, उम्मीद भी नहीं। उसकी एक मात्र पूंजी, उसकी फसल को ओलावृष्टि अपने तले रौंद देती है तब हम एहसास भी नहीं कर सकते कि अपनी पूंजी को यूँ लुटता देख उसका दिल चीत्कार कर उठा होगा. सोच कर बड़ा अजीब लगता है जब हम खुद को पतला करने की खातिर "हेल्दी फ़ूड" खा रहे होते हैं या खाना छोड़ देते हैं और जिनकी वजह से हम खा पा रहे हैं उनके बच्चे भूखे पेट सो जाते हैं।

अपने परिवार को यूँ तन्हा छोड़कर जाने की हिम्मत करना आसान नहीं होता, शायद वो समझ चुके होते हैं कि अब कम से कम वो अपने परिवार को नहीं पाल सकेंगे और इस दुःख में खुद को डुबोकर फिर से परिवार के लिए बोझ बनकर जीने से अच्छा वो मरना पसंद करते हैं, वे तो मर जाते हैं उनके परिवार पर इसके बाद क्या असर पड़ता है इसकी भी कल्पना करना हम सबकी सोच से परे है। उस किसान की अपने बच्चे को बड़ा अफ़सर बनाने की आशा के चीथड़े हाथ में आते हैं, जवानी में बूढ़ी हो गयी बीवी के आने वाले सुनहरे दिनों की उम्मीद हवा बनकर उसी के सफ़ेद-काले बालों को और बिखरा कर निकल जाती है, क़र्ज़ में डूबे परिवार को उससे निकालने की ज़द्दोजहद किसान को समय से पहले ही चिंताओं का किला बना देती है और ये चिंता धीरे धीरे उसकी चिता तैयार कर रही होती है, अब इन सबका कारण कौन? शायद कोई नहीं।
हम जैसे लोगों को सुहाने मौसम से मतलब है और राजनीतिज्ञों को इनकी मौत पर एसी कमरे में से बैठकर राजनीति करने से,कारण यही लोग खुद हैं जिन्हें उनका हक़ भी एहसान समझ कर दिया जाता है।
आम लोगों को मौसम से और नेताओं को राजनीति से मतलब है

इस देश में आय का वितरण बेहद असमान है, अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब के पास अब कुछ बचा नहीं है। एक किसान भूखे पेट अपनी जान दे देता है और एक तरफ रोटी की जगह पिज़्ज़ा, बर्गर सरीखे विकल्प मौजूद हैं


जिस असमय मौसम में हम बारिश में चाय पकौड़ों का लुत्फ़ ले रहे होते हैं ठीक उसी वक़्त उन बेवक्त आंधी, ओले और बारिश की बूंदों से आहत सैकड़ों जानें रस्सी का एक सिरा गले में बांधकर खुद को इन सब परेशानियों से आज़ाद कर लेती हैं और उनके परिवार के लिए अब जब-जब बारिश होगी, उनके जख्मों पर नमक की बूंदे डाल कर उन्हें को हरा कर देगी और हम कह रहे होंगे कि आहा कितना सुहाना मौसम है।

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http://hindi.oneindia.com/news/features/rains-destroy-50-000-hectares-of-crops-farmer-suicides-continue-350975.html

Apr 5, 2015

नया हो अब जहाँ हमारा ..

बीबीसी पर औरतों से जुड़े कानूनों के बारे में एक खबर पढ़ी. आप भी एक नज़र डालिए.

दिल्ली में 2012 के निर्भया कांड के बाद दुनिया भर में भारत की थूथू हुई. लेकिन एक साल बाद ही कानून में एक नई धारा जोड़ी गई जिसके मुताबिक अगर पत्नी 15 साल से ज्यादा उम्र की है तो महिला के साथ उसके पति द्वारा यौनकर्म को बलात्कार नहीं माना जाएगा. सिंगापुर में यदि लड़की की उम्र 13 साल से ज्यादा है तो उसके साथ शादीशुदा संबंध में हुआ यौनकर्म बलात्कार नहीं माना जाता.

माल्टा और लेबनान में अगर लड़की को अगवा करने वाला उससे शादी कर लेता है तो उसका अपराध खारिज हो जाता है, यानि उस पर मुकदमा नहीं चलाया जाएगा. अगर शादी फैसला आने के बाद होती है तो तुरंत सजा माफ हो जाएगी. शर्त है कि तलाक पांच साल से पहले ना हो वरना सजा फिर से लागू हो सकती है. ऐसे कानून पहले कोस्टा रीका, इथियोपिया और पेरू जैसे देशों में भी होते थे जिन्हें पिछले दशकों में बदल दिया गया.

नाइजीरिया में अगर कोई पति अपनी पत्नी को उसकी 'गलती सुधारने' के लिए पीटता है तो इसमें कोई गैरकानूनी बात नहीं मानी जाती. पति की घरेलू हिंसा को वैसे ही माफ कर देते हैं जैसे माता पिता या स्कूल मास्टर बच्चों को सुधारने के लिए मारते पीटते हैं.

सऊदी अरब में महिलाओं का गाड़ी चलाना गैरकानूनी है. महिलाओं को सऊदी में ड्राइविंग लाइसेंस ही नहीं दिया जाता. दिसंबर में दो महिलाओं को गाड़ी चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. इस घटना के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संस्थानों ने आवाज भी उठाई. मिस्र के कानून के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को किसी और मर्द के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखता है और गुस्से में उसका कत्ल कर देता है, तो इस हत्या को उतना बड़ा अपराध नहीं माना जाएगा. ऐसे पुरुष को हिरासत में लिया जा सकता है लेकिन हत्या के अपराध के लिए आमतौर पर होने वाली 20 साल तक के सश्रम कारावास की सजा नहीं दी जाती.

ये दुनियां कितनी भी बदल जाये लेकिन औरतों को लेकर सोच शायद ही कभी बदले. बलात्कार शब्द कह देना जितना आसान होता है उतना ही मुश्किल है उसे समझना. ज़्यादातर लोग बलात्कार को केवल शारीरिक संबध के तौर पर देखते हैं. यह केवल महिलाओं की वर्जिनिटी का हनन है. दुनिया के ऐसे सभी महाशयों से में सिर्फ इतना कहना चाहूंगी के मन की पीड़ा समझना आपके बस की बात नहीं. आपसे समझने की उम्मीद करना ही बेमानी है.

पति ग़लती सुधरने के लिए पीट सकता है, लेकिन ग़लती तो पुरुष भी करते हैं तो औरत क्या करे, लोगों के हिसाब से वो चुप रहकर अपने पत्नी धर्म का पालन करे और बात को जाने दे. न ही हम गाडी चलायें न ही अपने अपहरण करने वाले को सज़ा दें.

लोगों का तो काम ही है बातें करना लेकिन जब क़ानून इस तरह की बात करे तो इससे होने वाली व्यथा का अंदाज़ा लगाना इन कानून बनाने वालों के लिए मुश्किल है.


ये इसलिए नहीं है कि आप हम पर तरस खाएं, जी नहीं, बिलकुल नहीं. सिर्फ आपको बताने के लिए कि  यदि आप हमें हमारे हक़ से दूर रखना जानते हैं तो हमने भी अपना हक छीनना सीखा है और वो हम करेंगे भी. पढेंगे, नौकरी करेंगे, आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करेंगे, स्वयं के निर्णय खुद लेंगे और अपने लिए ऐसी छत भी ज़रूर बनायेंगे जहाँ आपकी सड़ी-गली मानसिकता के कीड़े न पहुँच पायें.