Feb 21, 2015

युवाओं को समझनी होगी ज़िम्मेदारी

आज से तकरीबन दस साल पहले मोबाइल हमारी जिंदगी में चुपके से आया. तब तक किसी ने भी नहीं सोचा था कि ये हमारी जिंदगी का बेहद अहम् हिस्सा बन जायेगा. पुश बटन से शुरू हुआ सफ़र आज टच स्क्रीन तक आ पहुंचा है. मोबाइल का रूप रंग रूप भी बदला. तकनीक जब अपने साथ कुछ खूबियाँ लाती है तो चुनौतियाँ भी लाती है और तकनीक का प्रयोग में प्राथमिक उपभोक्ता युवाओं को माना जाता है. भारत युवाओं का देश है और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में ग्लोबल सिटिज़न फेस्टिवल के दौरान एक रॉक कॉन्सर्ट में भाषण के दौरान उनकी इस ताकत का ज़िक्र भी किया है, “ युवा भविष्य है. जो वह आज करेंगे वह भविष्य का निर्धारण करेगा. मुझे युवाओं में उम्मीद दिखती है.  बुद्धिमत्तासे अधिक बलवान आदर्शवाद, अविष्कार , ऊर्जा और युवाओं का “ कर सकने” वाला नजरिया है. मेरी ऐसी उम्मीद भारत के लिए है क्यूंकि आठ सौ मिलियन युवा देश को बदलने के लिए कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं.”
अब मोबाइल एप्लीकेशन विश्लेषक कंपनी फ्लरी की एक रिपोर्ट पर गौर करते हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल का एक हद से ज्यादा इस्तेमाल युवाओं को लती बना रहा है. मोबाइल में विभिन्न एप्लीकेशन को बेवजह बार बार खोलने की आदत एक प्रकार की लत को जन्म से रही है. फ्लरी द्वारा किये गए एक शोध के मुताबिक जो लोग अपने मोबाइल में किसी भी एप्लीकेशन को साठ बार से अधिक बार खोलते हैं ऐसे लोग इस लत के शिकार की श्रेणी में आते हैं. मोबाइल को हर वक़्त साथ रखना और उसके ना मिलने पर बेचैनी होना इसके लक्षण हैं.
अगर ऊपर लिखी दोनों बातों पर गौर करें तो डराने वाला सच यह निकल कर आता है कि जिन युवाओं से भारत देश का नया भविष्य रचने की उम्मीद की जा रही है वह अपना बहुमूल्य समय इन एप्लीकेशन में उलझकर गँवा रहे हैं. तथ्य बताते हैं कि इस लत से ग्रसित लोगों का जो आंकड़ा पिछले वर्ष में 7.9 करोड़ था इस वर्ष वह बढ़कर 17.6 करोड़ हो गया है. भारत के मामले में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्यूंकि भारत में युवाओं की संख्या अधिक होने के कारण यह स्मार्टफोन के लिए एक उपयुक्त और बड़ा बाज़ार है. यहाँ मोबाइल धारको की संख्या तेज़ी से सीढियां चढ़ रही है. हम पूरे विश्व में मोबाइल उपभोक्ताओं में दूसरा स्थान रखते हैं. भारत में मोबाइल एप  में प्रमुखता से फेसबुक और व्हाट्सएप आते हैं. आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर के व्हाट्सएप उपभोक्ताओं में दस प्रतिशत केवल भारतीय हैं. इसका अर्थ यह निकलता है कि भारतीय युवा इस लत के तेज़ी से शिकार हो रहे हैं. यह लत कई प्रकार की बीमारियों और शारीरिक अक्षमताओं को भी जन्म दे रही है. एकाग्रता की कमी, आँखों का धुंधलापन, इनसोम्निया आदि बीमारियों के होने का कारण भी आजकल मुख्यतया स्मार्टफ़ोन ही है. भारत को दुनिया भर में एक मुख्य बाज़ार के रूप में जाना जाता है. दुनियां भर के देशों के लिए यहाँ व्यापार करना सुलभ है क्यूंकि उपभोक्ताओं के रूप में उन्हें युवाओं की एक अच्छी जमात मिल जाती है और अपने उत्पादों के लिए लुभावने विज्ञापन देकर उपभोक्ताओं की एक अच्छी संख्या जमा कर लेते हैं. यदि स्मार्टफ़ोन की मामले में बात करें तो यह बात सिद्ध होती प्रतीत होती है क्यूंकि आजकल अधिकतर युवा एक से ज्यादा स्मार्टफ़ोन रखते हैं. मोबाइल में इन्टरनेट की सुलभता भी इस लत के जन्म के मुख्य कारणों में से एक है. मोबाइल कपनियों के भर-भर के मुफ़्त दिए जाने वाले डाटा प्लान की वजह से भी स्मार्टफोन का उपयोग बढ़ा है. तकनीक का अविष्कार कार्य की सुगमता के लिए किया गया था और इसी सोच को साथ लेकर इसका विकास हुआ लेकिन तकनीक के प्रयोग में एक संतुलन की आवश्यकता होती है जिससे कि आप बिना किसी लत का शिकार हुए तकनीक का आनंद ले पायें.

विश्व मंच पर भारत की पुनर्प्रतिष्ठा में युवाओं की बहुत बड़ी भूमिका है. इस प्रगतिशील देश कहे जाने वाले भारत को अभी दुनिया के धरातल पर सुनहरे अक्षरों में अपना नाम लिखना अभी बाकी है और इसका दारोमदार युवाओं के कंधे पर है. आज के युवा वर्ग को,  जिसमें देश का भविष्य निहित है, और जिसमें जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं, अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ लेना चाहिए. भारत के मुखिया के साथ आम लोग भी उम्मीद भरी आँखों से इस देश के सुनहरे भविष्य के सपने बुन रहे हैं. अब युवाओं को यह स्वयं ही समझना होगा कि अपने भविष्य को उन्हें किस ओर ले जाना है. 

Feb 19, 2015

हमारी पहचान सिर्फ हमसे है..

गाने सुनने का शौक तो सभी को होता है. आजकल लड़कियों को एक गाना खूब भा रहा है.. चिट्टियाँ कलाइयाँ वे ओ बेबी मेरी चिट्टियाँ कलाइयाँ वे.. रेडियो से लेकर टीवी सब जगह इस गाने को बेहद पसंद किया जा रहा है. थोड़ा फ्लेशबैक मे चलते हैं. ऐसा ही एक गाना मुझे याद आ रहा है .. गोरी हैं कलाइयाँ , तू लादे मुझे हरी हरी चूडियाँ.. अब आप सोच रहे होंगे कि इन दोनों गानों मे क्या कनेक्शन है. चलिए मैं बता देती हूं.. दोनों ही गाने अपने समय के बेहतरीन गाने हैं पर दोनों ही गानों मे एक बात सोचने वाली है कि दुनिया बदल गयीदुनिया के नियम क़ानून बदल गएलेकिन लड़कियों को लेकर गीतकारों ओर समाज की सोच जस की तस है. दोनों ही गानों मे लड़की अपनी ज़रूरत के लिए अपने साजन पर ही निर्भर है. अब यहां सवाल ये उठता है कि यदि आज की नारी इतनी सशक्त है कि अपने निर्णय खुद ले सकती हैएक वक्त में जॉब और घर दोनों सम्हाल सकती है तो फिर क्यों फिल्मों मे उन्हें कमतर आँका जाता है. एक वक़्त था जब सिनेमा में हीरोइन केवल हीरो के पीछे छिपने और गाना गाने का काम करती थीं. समय बदलता गया. हीरोइन गुंडों से लड़ने लगीलहंगे और साड़ी छोड़कर पैंट पहनने लगी लेकिन फिर भी बिना हीरो के उसकी जिंदगी अधूरी होती. उसके बाद महिलाओं को केंद्र में रखकर फिल्मे बनने लगीं. महिलाओं की समस्याओं को प्रमुखता से उठाया गया लेकिन बात आज भी वही है. खुलकर अपनी ज़रूरतों का इज़हार करने और फिल्मों में सशक्त रूप में दिखाए जाने के बावजूद अभी भी शॉपिंग और पिक्चर दिखाने की ड्यूटी केवल हीरो की ही है. कहना ग़लत न होगा कि समाज मे जनमत का निर्माण करने मे फिल्मों की एक बड़ी भूमिका है. फिल्मे बदलाव का एक रास्ता दिखाती हैं लेकिन गीतकार जब फिल्म की नायिका को सोच कर गाने लिखता है तो अभी भी वही अठारह वीं शताब्दी की नायिका की ही झलक मिलती है जहां वे अपने होने वाले पति या अपने साजन से खुद की इच्छाओं की पूर्ति करने की अपेक्षा करती हुई दिखाई जाती हैं.
ज़मीनी हकीकत इससे कहीं अलग है. हमारे देश मे इन्द्रा नूईसानिया मिर्ज़ा,साहना नेहवालचंदा कोचरअरुंधती भट्टाचार्य जैसी महिलाएं हैं जो सशक्त महिलाओं का नेतृत्व करती हैं. ये महिलाएं देश की प्रगति मे अनवरत अपना योगदान दे रही हैं. ओईसीडी इकनोमिक सर्वे ऑफ़ इंडिया के मुताबिक भारत में महिला उद्यमियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. विशेषकर उत्पादन के क्षेत्र में जहाँ यह हिस्सेदारी चालीस प्रतिशत के आसपास है. एक समान समाज के लिए इसे एक अच्छी शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है. एक वक़्त था जब आधी आबादी देश की जीडीपी में बहुत अधिक हिस्सेदारी नहीं रखती थी. लेकिन अब महिलायें भी टैक्स अदा करने वालों की लिस्ट में बढ़ती जा रही है. जब समाज में इतना बदलाव आ गया तो सिनेमा के गाने वहीँ क्यों हैं. शायद यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है लेकिन बड़ा मुद्दा ये है कि अगर महिला सशक्त हो तो पूरी तरह से हो. समाज में भी और फिल्मों में भी. आधी चीज़ों में वह सशक्त कहलाये और बाकी आधी में निर्भरयह तो ग़लत होगा न. अगर समाज बदल रहा है तो महिलाओं का अपनी जिंदगी को देखने का यह दृष्टिकोण भी बदलना चाहिए. लड़कियां खुद को नए नज़रिए से देखना शुरू करें जहाँ वे किसी की प्रेमिका और पत्नी होने के अलावा भी अपनी पहचान रखती हैं. वे भी टैक्स अदा करती हैंदेश के आर्थिक विकास में अपना योगदान देती हैं और सिर्फ़ होममेकर ही नहीं एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का भी फ़र्ज़ अदा करती हैं. आप बदलेंगे तो समाज बदलेगा और धीरे धीरे फिल्मों  के गाने के अंदाजे बयां भी बदलेंगें  और फिर ऐसे गाने सुनते वक्त मेरी जैसी किसी लडकी के मन में ये सवाल नहीं उभरेगा कि लड़कियां किसी लड़के को खुद क्यूँ कुछ नहीं दे सकती वे हमेशा मांगती क्यों रहती हैं तो मेरी जैसी आज की भारत की लड़कियां अपना हक़ मांग कर नहीं छीन कर लेंगीं |क्यों आपको क्या लगता है ?


Feb 17, 2015

अधिकारों पर बुद्धजीवियों की अलग अलग राय

पेरिस में हुए एक मैगज़ीन पर हमले के बाद फिर से पुरानी बहस छिड़ गयी है कि बोलने के अधिकार की आज़ादी का कितना उपयोग होना चाहिए और उसकी क्या सीमायें होनी चाहिए. ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यह कहकर विवाद को और बढ़ा दिया है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत किसी भी धर्म की भावनाओं को आहत किया जा सकता है जबकि पोप फ्रांसिस का कहना है कि किसी भी कारण से किसी धर्म का अपमान ग़लत है. दुनिया भर के बुद्धिजीवियों की इस मुद्दे पर अलग अलग राय बन रही है. ऐसा नहीं है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल पहली बार खड़े हुए हैं.  लेखिका तसलीमा नसरीन अपनी अभिव्यक्ति के रूप में किताब लिखने के बाद से देश निकाला झेल रही हैं. यदि भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो चित्रकार एम एफ हुसैन भारत में पदम् श्री, पदम् भूषण और पदम् विभूषण से सम्मानित हुए और राज्य सभा के लिए भी नामित किये गए. हिन्दू देवियों के आपत्तिजनक चित्र बनाने पर उन्हें जान बचाने के लिए भारत छोड़ कर क़तर की शरण लेनी पड़ी. भारत में ही दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू को अपनी बेबाक  बयानबाज़ी के लिए लोगों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ा. सोशल मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा है. बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार पर मुंबई की रहने वाली 2 लड़कियों को शिव सेना के एक बड़े अधिकारी के कहने पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने बाल ठाकरे की मृत्यु पर मुंबई बंद का विरोध किया था.  सवाल वही है कि हम कितना बोलें और कितना न बोलें . क्या सरकार इस बात का निर्णय लेगी या फिर सीमायें हम खुद चुनेंगे. भारतीय संविधान में हमे छः मूल अधिकार दिए गए हैं जिनमे वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी है और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी. धर्म निरपेक्ष देश होने के नाते यहाँ सभी धर्मो का सम्मान करना अनिवार्य है. भारत में भी गाहे बगाहे धार्मिक अपमान के मुद्दे उठते रहते हैं. हाल ही में आयी फिल्म पीके पर भी विवादों का साया रहा. आमिर खान के मुसलमान होने के कारण उन पर सिर्फ हिन्दू धर्म में आडंबर दिखाए जाने व बाकी धर्मो पर बात न करने के आरोप लगे. यह फ़िल्म राजकुमार हिरानी की थी और फ़िल्मकार व्यावसायिक फ़ायदे को ध्यान में रखते हुए समाज को सन्देश देता है और कहना ग़लत न होगा कि भारत में हाल ही में कई पाखंडी बाबाओं के मामले देखने को मिले हैं. हालांकि कोई भी धर्म ऐसे पाखंडियों से अछूता नहीं है.  खैर मुद्दा यह फ़िल्म नहीं है, मुद्दा ये है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन केवल धार्मिक मामलों में ही लागू होता है? क्या धार्मिक मामलों पर इसलिए नहीं बोला जाना चाहिए क्यूंकि उससे किसी समुदाय विशेष की भावनाएं आहत होती है या फिर धार्मिक भावनाओं के अलावा भी इस अधिकार के उल्लंघन को देखा जाना चाहिए और इसकी सीमाओं का निर्धारण होना चाहिए? यदि निर्धारण होगा तो कौन इसकी सीमायें निर्धारित करेगा?

सवाल कई हैं और इन सवालों का हल भी संविधान के पास ही है. संविधान में मूल अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों की भी बात की गयी है. मौलिक कर्तव्यों में से एक कर्तव्य ये भी है कि नागरिक देश में सभी धर्मों के सम्मान करते हुए भाईचारा बना कर रखेंगे और एक कर्तव्य ये भी है हिंसा का त्याग करते हुए जान माल को हानि नहीं पहुंचाएंगे. ऊपर लिखी बातों को कहने का तात्पर्य  बिलकुल स्पष्ट है कि कोई भी अधिकार अपने साथ कुछ कर्तव्यों को लेकर आता है. यदि हमे अधिकार मिले हैं तो साथ ही कर्तव्यों का पालन करना भी अनिवार्य है. यदि हम अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी तरफ हमारा कर्तव्य भी है कि हम सभी धर्मों का भी सम्मान करें. देश की अखंडता को बनाये रखें. बोलने की आज़ादी पर रोक लगाना सांस लेने पर रोक लगाने जैसा होगा लेकिन यदि स्वयं ही खुद के लिए बोलने की सीमायें निर्धारित कर ली जाएँ तो शायद यह इतना मुश्किल भी नहीं होगा. स्वयं के बुद्धि-विवेक का प्रयोग करते हुए यदि हम उतना ही बोलें जितना ज़रूरी है तो शायद मुश्किलें कुछ हद तक कम हो सकती हैं. हमारे पास बोलने की आज़ादी हो, लिखने की आज़ादी हो लेकिन जो देश की अखंडता को प्रभावित करते हुए देश को छोटे-छोटे धार्मिक या सामाजिक खंडों में हमेशा के लिए विभाजित कर दे, ऐसे शब्द लिखने और बोलने की आज़ादी नहीं होना ही अच्छा है.