Oct 1, 2013

जीना इसी का नाम है


एक एक्सपीरियंस शेयर करती हूँ आपसे  मेरे सामने के घर की एक महिला ने साइकिल पर अपने लगभग दो साल के बच्चे के साथ जाते हुए एक आदमी को रोका और उसे एक जूते का सेट लाकर दिया। आदमी ने तुरन्त ही उस जूते को अपने बेटे को पहनाने की कोशिश की। जूते बड़े थेबच्चे का पैर छोटा, पर फिर भी उसने बहुत जतन से वो जूते अपने बच्चे को पहनाये। बच्चे को नई चीज पहनने की जल्दी थी तो थोड़ी  कोशिश वो खुद से भी करने लगा। इस पूरे वाकये को मैं देख रही थी पिता के चेहरे पर बच्चे की खुशी का रिफ्लेक्शन साफ देखा जा सकता था और बच्चा नये जूते पाकर भले बड़े ही सही इतना खुश था कि क्या कहने । अब आप कहेंगे कि भई ये तो आम बात है इसमें नया क्या है। नया ये था की मुझे जिन्दगी को देखने का एक अनोखा नजरिया मिला  हम समाज के किसी भी तबके से आयें पर हम अपने आत्मसम्मान को जरूर महत्व देते हैं पर यहाँ यह सोचना तो बनता है कि क्या गरीब लोगों का कोई आत्मसम्मान नहीं है आत्मसम्मान। सुनने में काफी भारी भरकम शब्द है, नहीं . आत्मसम्ममान का अर्थ होता है स्वयं का सम्मान करना। हर व्यक्ति अपना सम्मान सुरक्षित रखने की कोशिश करता है पर गरीबों को इसकी बलि देना पड़ जाती है। अब सवाल ये है कि गरीब लोग कौन होते हैंसरकार के मुताबिक गाँवों में 816 रूपये हर महीने से कम कमाने वाले लोग और शहर में 1000 रूपये से कम कमाने वाले लोग गरीबों की श्रेणी में आते हैं। भारत में प्लानिंग कमीशन के मुताबिक करीब बाईस  प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करती है और सबसे ज्यादा गरीब उत्तरप्रदेश में ही हैं। पूरी जनसंख्या का लगभग तीस प्रतिशत। गरीबी को हटाने के लिए सरकार हर साल बजट में करोड़ों रूपये गरीबों के लिए निकालती है,पर क्या कोई ऐसी योजना है जिनसे वो अपने सम्मान के साथ जीवन बिता सकें ,देखा न सवाल ने थोडा तो परेशान किया आपको अब हर बात के लिए सरकार की ओर क्या ताकना ये तो हम सबकी भी जिम्मेदारी भी बनती है .हमारे घरों में रोजमर्रा के काम करने लोगों को  हम तनख्वाह के साथ साथ कभी कभार उतरन भी दे दिया करते हैं और खुश होते हैं कि आज हमने एक नेक काम किया  पर क्या ये वाकई एक दान थाजनाब थोड़ा सोचिएयदि आपने उन्हें उस पुराने कपड़े की बजाय एक नया कपड़ा भले ही सस्ता खरीद कर दे दिया होता तो कितना अच्छा होता। वे अपने आपको कितना सम्मानित महसूस करते आखिर ये वो ही लोग हैं जो हमारे जीवन को आसान बनाते हैं चाहे वो आपका रिक्शावाला हो या बर्तन मांजने वाली बाई । जब आप ब्रांडेड जूतोंकपड़ोंपरफ्यूम और अपने प्रिय जनों के जन्मदिन पर हजारों रूपये यूँ ही उड़ा सकते हैं तो घर में काम करने वालों को उतरन ही क्यूँ। किसी गरीब को जाते हुए रोककर बस पुरानी चीजें ही क्यों देंउन्हें प्यार से बुलाकर अपने साथ एक वक्त का खाना भी खिलाया जा सकता है। आपने अक्सर देखा होगा कि अगर कोई गार्ड या पार्किंग वाला आपको आप ही की गलती पर कुछ कह दे तो आपके आत्मसम्मान को तुरंत ठेस पहुँच जाती है और आप ये बताने से नहीं चूकते कि आप क्या चीज हैं .याद आया न अभी आपने जल्दी ही ऐसी हरकत की थी जबकि वह बेचारा सिर्फ अपना काम ठीक से कर रहा होता है वहीं आप पुराना और आपके लिए बेकार वस्तु को किसी गरीब को देकर उसके आत्मसम्मान को और छोटा कर रहे होते हैं.नहीं भई नहींमैं आपको ज्ञान देने की कोशिश नहीं कर रही हँू मैं तो बस ये बता रही हूँ कि इंसान को सम्मान उसके इंसान होने के कारण मिलना चाहिए न की उसके अमीर या गरीब होने से.तो आज से एक कोशिश करते हैंकिसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार ,किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार क्यूंकि जीना इसी का नाम है

Jun 9, 2013

पनाह देने वाले गाँव बन गए अब "पर्यटन स्थल".

गाँव आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण अधिकतर जनसंख्या महानगर केन्द्रित हो गई है इसके साथ लगातार बढ़ते तनाव ने शहरों में एक तरह का ‘‘काउंटरअर्बनाइजेशन सिंड्रोम’’ यानि की शहरों से दूर जाने की एक मानसिकता भी विकसित की है। जिसका परिणाम शहर के लोगों में छुट्टियों में गाँव घूमने की एक ललक के रूप में सामने आ रहा है । गाँवों में रहनावहाँ के लोगों का रहन-सहनकृषि विधियों से अवगत होनाविविध संस्कृतियों का साक्षी बननाइन सबने मिलकर ग्रामीण पर्यटन का आकार ले लिया।भारत में कई ऐसे  पर्यटन स्थल हैं जो अनछुए हैं  जिनमें कुछ ऐसे गाँव हैं  जहाँ आप ग्रामीण परिवेश के सानिध्य में कला और प्राकृतिक सौन्दर्य का लुत्फ भी उठा सकते है। पर्यटन की द्रष्टि से इस क्षेत्र में अभी बहुत संभवानाएं हैं|कोई भी बदलाव अवसर चुनौतियों के साथ अवसर भी लाता है अगर शहरी करण बढ़ रहा है तो तस्वीर का दूसरा रुख ये भी है कि लोग अब छुटियाँ मनाने गाँव की ओर लौटना चाह रहे हैं पर क्या हमारे गाँव इस अवसर का लाभ उठाने के लिए तैयार हैं|आइये हम आपको बताते हैं कि इस गर्मी की छुट्टियों में कहाँ जाकर असली भारत को देख और समझ सकते हैं
भारत को हमेशा से ही गाँवों का देश कहा जाता रहा है। आज भारत की लगभग 74 प्रतिशत जनसंख्या देश के सात मिलियन गाँवों में रहती है। आजादी के बाद से धीमे धीमे इन गाँवों का स्वरूप भी बदलने लगा। शहरीकरण की छाप गाँवों पर भी पड़ी। गाँवों का रूप-स्वरूप बदलने लगा पर फिर भी नहीं बदला तो गाँव की वो सौंधी खुशबू जिसके तराने आज भी हमारा दिल गाया करता है
कलकत्ता में शान्तिनिकेतन गाँव के पास एक और गाँव है बल्लवपुर दांगा। शान्तिनिकेतन गाँव और इसी नाम से वहीं स्कूल रविन्द्र नाथ टैगोर ने स्थापित किया था। बल्लवपुर दांगा संथाल आदिवासी गाँव है जहाँ बंगाल की जड़ें हैं। यहाँ एक छोटी सा पक्षी विहार भी है। कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ ज़िले में कदम्बों की राजधानी हुआ करती थी जिसे आज बनवासी गाँव के नाम से जाना जाता है। इस गाँव में करीब 1500 शिल्पकार रहते हैं। लकड़ीचंदनजूतेरंगोली,कढ़ाई इनके जीवन यापन का ज़रिया है। गाँव की खूबसूरती में चार चाँद लगाती गुधापुरा नामक एक झील भी है। कला का उत्कृष्ट नमूना इस गाँव में देखने को मिलता है। अगर आप महल और उनकी कारीगरी देखने के शौकीन हैं तो चले जाइये जयपुर से बस 42 किलोमीटर की दूरी पर स्थित समोदे गाँव। शीशमहल की सुन्दरता बरबस ही मन मोह लेती है। मंदिरबागबावड़ीकार्पेट और ऊँट यहाँ के अभिन्न अंग तो हैं ही और अगर आप हिमालय की वादियों के किसी गाँव में छुट्टियों का लुत्फ लेना चाहते हैं तो नग्गर गाँव से बेहतर जगह नहीं हो सकती। यहाँ की खास बात यह भी है कि आप एक हिल स्टेशन अर्थात पहाड़ पर घूमने के साथ साथ गाँव की शान्ति का भी अनुभव कर पायेंगे। गुजरात के होडका गाँव की खास बात ये है कि यह गाँव 300 साल पहले हेलाऑपट्रा क्लॉन ने बसाया था। यहाँ की खास बात इसकी माटी में है। मिट्टी की छोटी छोटी झोंपडियाँ अनायास ही आकर्षित कर लेती हैं। मोटी मिट्टी की दीवारें गर्मी में ठंडक देती हैं और जाड़ों में गर्माहट। कुरूक्षेत्र में अर्जुन को उपदेशित गीता के सार को पूरी दुनियाँ में पूजा जाता है और यह अति पावन भूमि ज्योतिसर गाँव में है। यहाँ लगभग 5000 साल पुराना बरगद का वृक्ष है जो आज तक बिना झुके खड़ा है। दक्षिण भारत के केरल में एक गाँव है अरनमूला। खास बात यह है कि शीशे के बजाय यहाँ धातु के आईने बनते हैं और कहीं से भी वह शीशे के मुकाबले कम नहीं हैं। 100 फीट लम्बी साँप के आकार की नाव प्रतियोगिता का रोमांच शरीर के हर रोंये में सिरहन भर देता है। मध्यप्रदेश के दिल में एक ऐसा गाँव है जिसने रूडयार्ड किपलिंग को जंगलबुक लिखने के लिए प्रेरित कर दिया। चौगान। इस गाँव में लकड़ी से बने साजो सामान की सुन्दरता बस देखते ही बनती है। नेपुरालाचेन आदि और भी ऐसे ग्रामीण पर्यटन स्थल हैं जहाँ कलाप्राकृतिक सौन्दर्यविविध लोक कलाऐंसंस्कृतियों का बेमिसाल संगम है। इन गाँवों में लगने वाले मेलेबाजार इनकी लोकप्रियता में और इजा़फा कर देते हैं। अच्छी बात यह है कि पर्यटकों के  अलावा गाँव के लोग भी अपनी ग्रामीण विरासत को लोगों के  साथ बांटना चाह रहे हैं और  हर चीज के लिए सरकार की ओर नहीं देख रहे हैं तरह के प्रयोग से गाँव और वहाँ के निवासियों को पहचान के साथ  रोज़ी-रोटी का नया ज़रिया मिला है और गाँव को महसूस करने की चाह में आने वाले पर्यटकों से सरकार को राजस्व की प्राप्ति भी हो रही है। देसी ही नहींविदेशी पर्यटक भी अब इन गाँवों की तरफ रूख़ कर रहे हैं। ‘‘विलेज सफारी’’ इसका बेहतरीन उदाहरण है। विलेज सफारी आपको न केवल भारत के बेहतरीन गाँवों में ले जाता है बल्कि आपके रहने की व्यवस्था भी उसी परिवेश में करता है जिससे आप खुद को उसी गाँव का एक हिस्सा महसूस करें। इसके साथ साथ यह वहाँ के रहने वालों के जीवन में सामातिक और आर्थिक रूप से भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गाँवों में रोजगाार के नये रास्ते खुल रहे  हैं।  हर गाँव की अपनी एक कहानी। हर कहानी में कुछ नया। कुछ अद्भुत। तो फिर चलिए इस बार छुट्टियों में अपने देश के उस हिस्से को महसूस कर लिया जाय जो सबसे खास है। आखिर गाँवों में ही भारत का दिल बसता है।

Jun 3, 2013

वक़्त है खुद को पहचानने का

लाईफ कितनी हैपनिंग हो गयी है. हर आदमी बिजी  है .दिन में घंटे तो चौबीस ही होते हैं और उसी में टी टाइमब्रेक टाइमलंच टाइमडिनर टाइम इसके अलावा पार्टी टाइमरोमांस टाइमआफिस टाइम जैसी चीजें तो हैं ही । लाईफ की इतनी सारी चीजें टाईम से जुडी हुई हैं  और टाइम मैनेज करने के चक्कर में हम कितने घनचक्कर बन जाते हैं इसका पता हमें नहीं पड़ता,पर समय की इस कहानी का एक और मजेदार हिस्सा है हमारी प्रायोरिटी यानि  हम जो चीज करना चाहते हैं उसके लिए टाईम निकाल ही लेते हैं हम कितने भी व्यस्त क्यूँ न हों एफ बी पर स्टेट्स देते रहते हैं उन दोस्तों के साथ मेसेंजर पर भी जुड़े रहे हैं जिनसे हम बात करना चाहते हैं पर जिनसे बात नहीं करनी ,जिनसे मिलने का मन नहीं उनके लिए रेडीमेड रेमेडी टाईम नहीं है यार.इस टाईम मेनेजमेंट के खेल में कोई एक ऐसा भी होता है जो हमारे लिए सबसे इम्पोर्टेन्ट होता है लेकिन हम उसे  लगातार इग्नोर कर रहे होते हैं और वो कोई और नहीं बल्कि हम खुद होते हैं कभी आपने गौर किया कि हम  अपने आप को कितना टाईम दे रहे हैं. खुद से अकेले में कुछ देर बात करने के लिए. कुछ देर केवल अपने आप को समझने के लिए। टाईम की कहानी में यहीं से ट्विस्ट शुरू होता है. पढ़ाई हो या फिर नौकरीहर किसी को जल्दी है. पढ़ने वालों को जल्दी से पैसे कमाने की और नौकरी वालों को एक सुरक्षित और ऊँची पोस्ट पर पहुँचने की और जब ऐसा नहीं होता तो हम स्ट्रेस्ड हो जाते हैं.अपने आप से भागने लगते हैं ऐसी चीजों में समय ज्यादा देने लगते हैं जो वक्ती तौर पर सुकून तो देती हैं पर आपको धीरे धीरे खत्म कर रही होती हैं.मेरी एक मित्र काफी महत्वाकांक्षी किस्म की हैं। पढ़ाई में भी अच्छी थीं पर उन्होंने बिना अपनी क्षमताऐं जाने जल्दी से प्रसिद्धि पाने की चाह में एक टीवी चैनल  में नौकरी कर ली. कुछ दिन तो केवल जोश में ही निकल गये लेकिन कुछ दिन बाद उन्हें वहाँ ऊबन होने लगी। धीरे-धीरे काम प्रभावित होने लगा और खुद को प्रूव न कर पाने की सोच ने उनके दिमाग में गहरी जड़ें जमा लीं कि उन्होंने  अपना आत्मविश्वास खो दिया जिससे उनका करियर प्रभावित हुआ और वो डिप्रेशन का शिकार हो गयीं.असल में आपको आपके सिवा कोई और नहीं समझ सकता,पर अपने आप को समझने के लिए हमें अपने आप से बात करनी होगी. असल में हर इंसान अपनी क्षमताऐंखूबियाँकमियाँ अच्छे से समझता है .हमें पहले यह पता होना चाहिए कि हम जिंदगी से चाहते क्या हैं बगैर तैरना जाने आप तालाब में इस लिए कूद जायेंगे कि बाकी भी ऐसा ही कर रहे हैं तो आप निश्चित डूबेंगे ही हर इंसान अपने आप में यूनीक होता है तो दूसरों को की कॉपी क्या करना अपनी स्टाईल खुद बनाने का कोई पढ़ाई में अच्छा होता हैकोई खेल में तो कोई गीत संगीत मेंलेकिन ये पता कैसे पड़ेगा कि आप क्या कर सकते हैं इसके लिए किसी काउंसलर की जरुरत नहीं है बस थोडा समय अपने आप के लिए निकालिए अच्छा संगीत सुनिए अपनी हौबी को फिर से जिन्दा कीजिये जिसे आप कब का पीछे छोड़ आये हैं फिर देखिये आप अपने आप से कैसे बात कर पायेंगे तो जिन्दगी जीने के फलसफे थोड़ा चेंज कर लेते है. अब अपनी जिन्दगी को किस तरफ ले जाना हैकौन सा विषय पढ़ना हैक्या करियर चुनना हैजॉब में क्या बदलाव लाना हैखुद को दस साल बाद कहाँ देखना है,ये अब किसी से नहीं पूछना है बस टाईम की प्रायरिटी में अपने आपको भी जगह देनी है. यही वक्त है और वक्त सही भी है. इस लेख को पढ़ने  के लिए भी आपने टाईम  तो निकाल ही लिया न
 04.06.13 को आई नेक्स्ट के सम्पादकीय पृष्ठ पर  प्रकाशित. 

May 30, 2013

रिश्ते बांस नहीं होते





बांस के पेड़ को देखा को कुछ विचार अनायास ही आ गये. आपके साथ शेयर कर रही हूँ .

बांस का पेड 
बढ़ जाता है 
उसे ना मिट्टी चाहिए 
ना खाद 
उसे तो बस चाहिए 
पानी  की नमी  
उसी में जी लेता है 
वो और पेडों
की तरह  नहीं चाहता 
मिट्टी की जकडन 
जमीन का सहारा
पर रिश्ते बांस नहीं होते 
उन्हें चाहिए अपने पन की जकड़न
और किसी  का साथ  
वो भी  बगैर किसी शर्त और बंधन के 
रिश्ते बांस नहीं होते  




May 18, 2013

लखनऊ विश्वविद्यालय 2012 दीक्षांत समारोह पर बना वृतचित्र

लखनऊ विश्वविद्यालय के 2012 दीक्षांत समारोह पर बने वृत्तचित्र  का आनंद उठाइये |



पटकथा :रेखा पचौरी 

May 16, 2013

परी की कहानी




















बचपने में सुनी थी एक कहानी
एक परी की कहानी
वक्त के साथ कहानी भी बदली
और जिंदगानी भी
बचपना ना जाने कहाँ चला गया
पर दिल का कोई हिस्सा
उस परी के साथ ही रह गया
किरदार बदले आशियाने बदले
लेकिन उस परी को चाहने के बहाने नहीं बदले
ये जानती हूँ मैं कि परियों का कोई परिवार नहीं होता
घर बार नहीं होता
फिर उनमे इतना प्यार क्यूँ होता
बगैर शर्त और स्वार्थ का
उस परी की तलाश में हूँ

दिन बीत गया, रात आ चली

कभी सोचा नहीं था कि कविता भी लिखूंगी . आज लिखी है . पढ़िए और अपने विचार ज़रूर बताइयेगा . 
















दिन बीत गया 

रात आ चली 
तुम और मैं भी तो कभी 
ऐसी ही थे 
तुम दिन के जितनी उजली 
और मैं स्याह 
रात और दिन 
कभी नहीं मिलेंगे 

जानती थी  मैं

कभी तुमसे कहा था तो

तुम हंसी पडी
पागल हो तुम
यही कहा  था तुमने
ये पगली  आज भी दिन के उस उजले हिस्से के इंतज़ार में है
लेकिन
रात की रेखा दिन से कभी मिली है क्या
देर में समझ पायी थी 
पर दिन तो ढलेगा
इस चाह में
कि रात उसकी अपनी होगी
पर
रात और दिन
कभी नहीं मिलेंगे
जानती हूँ मैं .................................

आख़िरकार हमारी मेहनत रंग लायी।। मुकुल सर आपको बहुत बड़ा शुक्रिया। आज सिर्फ आपकी वजह से हम लोग अपनी मेहनत को रंग दे पाए .. और रवि सर और विनय सर के बिना तो हम इस काम को कभी बेहतर रूप न दे पाते .. मेरे सभी साथी छात्रों को बहुत बहुत धन्यवाद .. मुझे सहयोग करने के लिए .. और मेरी इस ख़ुशी में साथ देने के लिए .. 





ये सिर्फ कागज़ नहीं




कागज़ को सिर्फ कागज़ समझकर हम यूँ ही छोड़ दिया करते हैं पर कागज़ से जिन्दगी का रिश्ता होता कुछ ऐसा है। 




A short film By
Rekha pachauri and Team.

Under supervision of
Dr. Mukul srivastava

VIBGYOR-2012
Departmrnt of Mass communication and Journalism
Lucknow University





गाँव की लड़कियाँ अभी भी बदलाव के इन्तज़ार में



भारत में बालिकाओं की शिक्षा के प्रयास कुछ वर्षों से तेज़ी पर हैं। बालिकाओं के लिए किये जा रहे शिक्षा के प्रयासों में गति आयी है और इन प्रयासों का फायदा भी हुआ है। एनुअल स्टेट्स एजूकेशन रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2006 से 2011 तक 11 से 14 वर्ष की बालिकाओं के स्कूल छोड़ने की दर 20 प्रतिशत से 9.5 प्रतिशत तक हो गयी है। आंकड़े वाकई हर्षित कर देने वाले हैं। पर ये आंकड़े हमें दूसरा पहलू ये भी दिखाते हैं कि भारत में खासकर गाँवों में  बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा पाने के लिए भी कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। किसी न किसी योजना के क्रियान्वन का इन्तज़ार करना होता है जिससे वे शिक्षा जैसी मूलभूत व आवश्यक सुविधा से लाभान्वित हो सकें और भारत के गाँव की लड़कियां अभी भी इस बदलाव के इंतज़ार में हैं |
भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर बढ़ी है। आजादी के बाद यह दर 12 प्रतिशत से बढ़कर  2011 में 74.04प्रतिशत तक पहुँच गयी है लेकिन इसी जनगणना में हमें यह भी पता चलता है कि भारत में पुरूषों के मुकाबले स्त्रियों की साक्षरता दर में कितना अन्तर है। पुरूष साक्षरता 80 प्रतिशत है वहीं स्त्री साक्षरता 65.46 प्रतिशत। ये आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं स्त्रियों की शिक्षा को पुरूषों के मुकाबले कहीं कम तरज़ीह मिलती है। गाँवों की बात करें तो आंकड़े और भी चौंकाते हैं। केवल जागरूकता व गरीबी ही नहीं वरन् सुविधाओं का न होना भी बालिकाओं की शिक्षा में बाधा बनता है। एक न्यूज चैनल की रिपोर्ट के अनुसार स्कूलों में शौचालय की अनुकूल व्यवस्था न होने के कारण कई बालिकाओं ने स्कूल छोड़ दिया। सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत सरकार यह सुनिश्चित करती है कि गाँवों के हर एक स्कूल में लड़के व लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों के व्यवस्था हो। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजूकेशन 2006-2007 की रिपोर्ट कहती है कि अभी केवल 42.58 प्रतिशत स्कूलों में ही अलग अलग शौचालयों की व्यवस्था हो पायी है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी बालिकाओं के शिक्षा स्तर को बेहतर बनाने के लिए और वक्त लगेगा।
गाँवों में एक और खास बात देखी गई है कि स्कूल छोड़ने वाली बालिकाओं में अधिकतर बालिकाऐं आठवीं या उसके बाद की कक्षा की होती हैं यानि कि किशोरावस्था में कदम रख रहीं बालिकाऐं। कारण साफ है, सुरक्षा। भारत के अधिकतर गाँवों में बालिकाओं की शादियाँ जल्दी कर दी जाती हैं। इसके पीछे का एक कारण उनकी सुरक्षा भी रहता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि 2001 से 2011 तक बाल यौन शोषण या बलात्कार के 48,338 मामले दर्ज किये गये हैं। वर्ष 2001 में 2,113 मामले व वर्ष 2011 में 7,112 मामले दर्ज केये गये। लगभग 336प्रतिशत की बढ़ोतरी। अब ऐसे में स्वयं ही माता-पिता भय ग्रसित होकर या तो बालिकाओं की शादी कर देते हैं या उन्हें स्कूल की पढ़ाई से वंचित कर घर में ही महफूज़ मानते हैं। े
कुल मिलाकर तीन मुख्य बिन्दु समझ में आते हैं, शिक्षा, सुविधा और सुरक्षा।
एक अच्छी शिक्षा बालिकाओं को बेहतर भविष्य दे सकती है। सुविधाऐं उस शिक्षा की प्राप्ति में सहायक हो सकती हैं और सुरक्षा उन्हें निर्भय बनाकर पढ़ने की पूरी आजा़दी दे सकती है। 27 अप्रैल को पंचायत दिवस पर पंचायती राज को 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है। गाँवों की पंचायतें निर्णय लेने में खुद की सक्षम होंगी। अगर इन्हीं पंचायतों को ही गाँवों में लड़कियों की शिक्षा, सुरक्षा व सुविधा मुहैया कराने के आदेश या अधिकार प्रदान कर दिये जायंे अथवा पंचायतें स्वयं ही बालिकाओं की पढ़ाई की बेहतरी के लिए कार्य करे तो किसी हद तक इस समस्या का समाधान हो सकता है।
बलिकाओं की बेहतर शिक्षा के लिए अभी उठाये जा रहे कदमों में अभी गुंजाइश है क्योंकि भारत गाँवों में बसता है और गाँवों में अभी स्त्री शिक्षा में समानता के स्तर मानसिकता में बदलाव आने में समय लगेगा। इस समस्या को भी केवल शिक्षा के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। पुरानी कहावत है, एक शिक्षित स्त्री घर के सभी सदस्यों को शिक्षित कर देती है। सही भी है। जरूरत है तो केवल उनका हौसले को पर देने की,अपना आसमान तो वे स्वयं बना ही लेती हैं। क्या पता, अगली कल्पना चावला या इंदिरा नूयी भारत के इन्हीं गाँवों से ही निकले।
गाँव कनेक्शन के 12/05/13 अंक में प्रकाशित 

Apr 29, 2013

साहूकारो के जाल से कैसे निकलेंगे?



काफी दिनों से शान्ति दीदी ने अपनी छोटी सी दुकान नहीं खोली थी। कारण जानने की इच्छी हुई। एक दिन जब उनकी दुकान खुली देखी तो मुझसे रहा नहीं गया और पूछ बैठी कि दूकान क्या क्यों बंद थी जवाब हिला देने वाला था  उन्होंने बताया कि उनकी दीदी के इलाज के लिए उनके पिता नेे अपनी जमीन को गिरवी रखकर दस हजार  रूपये का कर्ज लिया था। वो 22 हज़ार रूपये दे चुके हैं लेकिन अभी भी मूलधन बाकी है। साहूकार उन्हे कर्ज  चुकाने के लिए मानसिक प्रताड़ना भी देता है। पुलिस में शिकायत करने की बाबत पूछने पर उन्होंने कहा कि हम  गरीब लोग हैं पुलिस में शिकायत करेंगे तो भी क्या होगा? ये कहानी अकेली शान्ति के पिता की नहीं है, गाँवों में रहने वाले उन तमाम लोगों की है जो इन अवैध साहूकारों से कर्ज लेते हैं और चुकाते चुकाते उनकी उम्र बीत जाती है तब भी वह कर्जे़ के बोझ से मुक्त नहीं हो पाते। भारत में लगभग 83 क्षेत्रीय बैंके हैं और करीब 19 सरकारी बैंके हैं जिनकी कई हज़ार शाखाऐं हैं पर क्या कारण है कि किसान इन बैंकों से ऋण नहीं लेते? छोटे  काम करने वालों, श्रमिकों तथा छोटे किसानों को बैंकों से आसानी से ऋण नहीं मिल पाता जिस वजह से किसान इन अवैध सूदखोरों के चक्कर में फंस जाते हैं। कई बार तो कर्ज़ा लेने वाले को यह नहीं पता होता कि उसने कितनी बड़ी ब्याज पर यह कर्ज़ा लिया है। समय-समय पर इन कर्जों के न चुका पाने के कारण किसानों के आत्महत्या करने की खबरें आती रहती हैं।गाँवों के लोग कम शिक्षित होने के कारण तथा कागज़ी काम होने की वजह से सरकारी बैंकों से ऋण लेने में हिचकिचाते हैं। गाँवों के साहूकारों  से वही उधार बहुत जल्दी और आसान तरीके से मिल जाता है लेकिन इसके पीछे का खेल वो नहीं समझ पाते। अधिकतर साहूकार दिये हुए कर्ज़ पर चक्रवृद्धि ब्याज लगाते है। चक्रवृद्धि ब्याज वह ब्याज होता है जिसमें मूलधन में ब्याज को गुणाकर जो धन आता है उस पर ब्याज लगाया जाता है। किसान सालों  तक लिए हुए ऋण से कई गुना ज्यादा पैसा  चुकाते हैं लेकिन वे  केवल ब्याज ही अदा कर पाते है और उनका मूलधन  वापस नहीं हो पाता। पैसे न चुकाने की असमर्थता का फायदा उठाकर साहूकार या तो आये दिन उसका सामाजिक व मानसिक उत्पीड़न करते हैं या उसकी जमीन ले लेते हैं। मजबूरन उसे स्वयं की भूमि पर ही मजदूरी करनी पड़ती है और किसी भी किसान का खुद की जमीन पर मजदूरी करना लगभग वैसा ही है जैसे खुद के खड़े किये गये कारोबार में विवशता वश नौकरी करना| बात, फिर वहीं आ जाती है कि जानकारी का अभाव।भारत में साहूकारी अधिनियम के तहत व्यवस्था है कि साहूकार को अपना पंजीकरण कराना आवश्यक है और वह निर्धारित दर से अधिक ब्याज नहीं वसूल सकता। यदि कोई मजबूरीवश कर्ज़ न भी अदा कर पाये तो बिना प्रशासन की सहायता के उसकी वसूली भी नहीं की जा सकती लेकिन साहूकारों के दबंग और पुलिस के ढुलमुल रवैये के कारण ये अवैध रूप से कर वसूलने में सफल हो जाते हैं।दूसरी समस्या सरकारी बैंकों के  ऋण  वसूली तंत्र का  महाजनी व्यवस्था की तरह कार्य करना भी है।ऐसे में किसानों का  व्यवस्था पर से भरोसा उठ जाता है और वह साहूकारों के चंगुल में फँस जाता है। माइक्रोफाइनेंस कंपनियाँ एक विकल्प के रूप में उभरी जरूर लेकिन पनप पहीं पायीं। भारत सरकार ने सिडबी तथा लघु उद्योग विकास बैंक के माध्यम से छोटे-छोटे कर्ज़ देने के लिए माइक्रोफाइनेंस को प्रोत्साहित लेकिन व्वास्थागत खामियों और किसानों का भरोसा ना जीत पाने के कारण उत्तर भारत में ये प्रयोग सफल नहीं  हो पाया|सहकारी आंदोलन की उपज सहकारी बैंक अपनी अंतिम साँसें गिन रहे हैं जिनमें से अधिकतर या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने की कगार पर हैं ऋण के लिए धन की कमी का सामना कर रहे हैं|देश के किसान अभी भी इंतज़ार में है कि जिस तरह कार और टीवी फ्रिज का आसानी से उपलब्ध है उन्हें अपनी खेती के लिए ऋण भी उतनी आसानी से मिल पाए|कोई सुन रहा है क्या
 गाँव कनेक्शन के 28 अप्रैल 2013 के अंक में प्रकाशित 

बदलता इंडिया



गाँवों में आजकल एक नजा़रा आम है। युवाओं के ग्रुप को फोन पर इंटरनेट पर नये नये एप्स डाउनलोड करते भी देखा जा सकता है और टांकिंग टॉम एप पर ठहाका लगाते भी देखा जा सकता है। 
समय बदला, देश बदला और विकास के मायने भी बदल गये। भारत गाँवों का देश है। देश में होने वाले किसी भी विकास की लहर गाँवों में भी पहुँचती है। अब स्मार्टफोन को ही ले लीजिए। आज गाँव का नज़ारा बदला हुआ है। हर हाथ में अब फोन के बजाय स्मार्टफोन हैं। चाहे वो गाने डाउनलोड करना हो या फेसबुक पर गाँव के बैकग्राउण्ड में खिचीं फोटो का अपडेट, आज के ग्रामीण युवा इस मामले में किसी से भी पीछे नहीं रहना चाहते। फेसबुक पर उनकी सक्रियता एक अच्छे बदलाव का संकेत देती है। स्मार्टफोन वे मोबाइल फोन होने हैं जिन पर बिना किसी सैटिंग को मंगाये इंटरनेट चल सकता है।
मैककिन्सी ऐंड कंपनी द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार 2015 तक भारत में इंटरनेट को प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग 35 करोड़ से भी ज्यादा हो जायेगी। ये अमेरिका की वर्तमान जनसंख्या से भी अधिक है। इसमें सबसे बड़ा योगदान स्मार्टफोन का रहेगा। 
गूगल का एक सर्वे बताता है कि अभी भारत में स्मार्टफोन का प्रयोग करने वाली जनसंख्या अमेरिका के 24.5 करोड़ के मुकाबले आधी से भी कम है। अभी भारत के केवल आठ प्रतिशत घरों में कम्प्यूटर है। संभावना है कि 2015 तक 350 करोड़ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में अधिकतर लोग मोबाइल के जरिये ही इंटरनेट का प्रयोग करेंगे। इस रिपोर्ट में महिलाओं की फेसबुक जैसा सोशल नेटवर्किंग साइट पर भागीदारी के बारे में भी बताया गया। अभी 29 प्रतिशत महिलाऐं फेसबुक का प्रयोग कर रही हैं जो आगे जाकर 50 प्रतिशत होने की संभावना है। 
इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन के अनुसार , भारत में कुल ग्रामीण जनसंख्या का केवल 2 प्रतिशत हिस्सा ही इंटरनेट को प्रयोग कर रहा है। अब चूंकि भारत में 60 प्रतिशत आबादी अब भी शहरों से दूर है तो अभी के लिए यक आंकड़ा बेहद कम है। ग्रामीण इलाकों के युवाओं को अभी भी इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए दूर जाना पड़ता है। ग्रामीण इलाकों में ब्रॉडबैंड कनेक्शन के लिए सरकार को पैसे खर्च करने होंगे तो ऐसे में फोन पर इंटरनेट एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। 
मैकिन्सी कंपनी के एक नये अध्ययन के अनुसार वर्ष 2015 तक भारत की जीडीपी यानि कि सकल घरेलू उत्पाद में 100 बिलियन डॉलर का योगदान इंटरनेट का होगा जो कि अभी के योगदान से लगभग तिगुना है। भारत में दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले अधिक इंटरनेट उपभोगकर्ता जुडेंगे और पूरी जनसंख्या का 28 प्रतिशत इंटरनेट को इस्तेमाल करेगा। यह चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा समूह होगा। पर ग्रामीण इलाकों की बात करें तो केवल 9 प्रतिशत जनसंख्या ही इसका लाभ उठा पायेगी। इससे गाँवों में करीब 22 मिलियन के रोज़गार का जन्म होगा। अभी तो केवल 60 लाख के आसपास है।  
सिस्को के मुताबिक वर्ष 2016 में पूरे विश्व में करीब 10 अरब मोबाइल फोन होंगे।इन्टरनेट ने मानव सभ्यता के विकास को एक नया आयाम दिया है। तकनीक संक्रामक होती है। किसी संक्रमण की तरह ही फैलती है और भारत में इन्टरनेट एक क्रांति की तरह आगे बढ़ रहा है। मोबाइल का बढ़ता प्रयोग इंटरनेट यूजर्स की संख्या को बढ़ाने में अपना योगदान दे रहा है। मोबाइल में इंटरनेट इस्तेमान करने वाले लोगाों में 20 से 29 वर्ष के युवा वर्ग हैं और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इनकी सक्रियता भी लगातार बनी हुई है।  
ओवम नाम की एक संस्था ने स्मार्टफोन के द्वारा प्रयोग किये जा रहे एप्लीकेशन का अध्ययन किया। इस संस्था द्वारा दिये गये आंकड़े कहते हैं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मैसेज्रिग की वजह से मोबाइल द्वारा होने वाले एसएमएस में भी भारी कमी आई है। इस कारण मोबाइल कंपनियों को 13.9 अरब डॉलर को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा है। यह इंटरनेट कर बढ़ती शक्ति को द्योतक है। 
अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार यूनियन (आईटीयू) के आंकड़े कहते हैं कि बीते 4 वर्षों में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या 77 करोड़ बढ़ी है। ट्विटर संदेश भेजने के एक नये माध्यम के रूप में उभर रहा है और फेसबुक के सदस्यों की संख्या में इजाफा हुआ है। मोबाइल ब्रॉडबैंड कनेक्शन 7 करोड़ से बढ़कर 67 करोड़ तह पहँुच गयी है। मैंकिसे के एक नये अध्ययन के अनुसार भारत में जीडीपी में इंटरनेट का बीते पाँच वर्षों में 5 प्रतिशत को योगदान रहा है जबकि ब्राजील, चीन जैसे देशों में यह केवल 3 प्रतिशत है। 

आईटीयू के आंकड़े ये भी कहते हैं कि विकसित देशों में हर तीसरा व्यक्ति इंटरनेट का प्रयोग कर रहा है वहीं भारत जैसे विकासशील देशों में 5 में से 4 व्यक्ति अब भी इंटरनेट की इस सुविधा सं दूर है। भारत में आर्थिक, सामाजिक असमानता के कारण डिजिटल डिवाइड की समस्या बेहद गंभीर हो जाती है। अभी भी यहाँ प्राथमिकता में रोटी, कपड़ा और मकान है। गाँवों में भी जीवन यापन करने के लिए व्यक्ति को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए अभी भी उनका सोच में अच्छा खाना और आर्थिक स्तर पर बेहतरी होना है। इंटरनेट को भी प्राथमिकता में लाना सरकार का काम है क्योंकि वैश्विक स्तर पर बराबरी के लिए मूलभूत सुविधाओं में इंटरनेट का होना भी अब जरूरी हो गया है।
ये तो रही आंकड़ों की बात, गाँवों में भी अब जब स्मार्टफोन आ ही गये हैं तो उनके इस्तेमाल के तरीके को जानने की भी जरूरत होती है। कहते हैं कि अच्छी शिक्षा किसी भी कार्य को बेहतरी से करने में सहायक होती है। भारत में जहाँ केवल अंग्रजी माध्यमों में पढ़ने वालों को ही अच्छी शिक्षा का प्रतीक माना जाता है वहाँ गाँवों के सरकारी स्कूल में पढ़े बच्चों को थोड़ा सा यह जानना जरूरी हो जाता है कि किसी तकनीक को प्रयोग किस तरह किया जाना चाहिए। फेसबुक पर केवल अपनी फोटो या फिर किसी और का स्टेटस शेयर कर देने से बात नहीं बनेगी। ये साइट्स केवल दोस्तों की संख्या बढ़ाने के लिए नहीं है बल्कि पूरे विश्व भर में कहीं भी किसी से भी आपके जुड़ने के लिए है जिससे आप कुछ नया देखें, सीखें। भारत के ग्रामीण इलाकों में स्मार्टफोन आज भी गाने या फिर नये नये एप्स डाउनलोड करने के लिए हैं। गूगल पर उपलब्ध जानकारी के अथाह संसार में अभी उन्हें गोते लगाना बाकी है। चूंकि गाँवों में खेती किसानी पर अधिक बल दिया जाता है तो किसान इंटरनेट पर खेती किसानी के नये नये तरीकोें से भी वाकिफ़ हो सकते है। अपनी समस्याऐं रख सकते हैं, उनके हल जान सकते हैं। किसान कॉल सेंटर एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरा है। इसी में इंटरनेट का आ जाना उनकी जानकारियों में और वृद्धि कर सकता है और वैसे भी इंटरनेट पर भाषा कोई समस्या रही नहीं। आप हिन्दी सहित कई क्षेत्रीय भाषाओं में अपनी समस्या को समाधान पा सकते हैं।
अब युवाओं की बात, आज पूरे विश्व में अंग्रजी को बोलबाला है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की इस भाषा को सीखने समझने के लिए इंटरनेट एक बेहतर विकल्प हो सकता है। आपको गाँवों से कहीं भी दूर जाने की जरूरत नहीं है। बस चाहिए केवल एक स्मार्टफोन और देश-दुनिया की जानकारी आपके पास होगी। इंटरनेट को तरक्की का एक ज़रिया बनाया जा सकता है। रोज़गार से सम्बन्धित ढ़ेरों जानकारियाँ  आपके लिए नये आयाम उपलब्ध कराती है। 
इंटरनेट तेज़ी से अपने पैर पसार रहा है। शिक्षा, अर्थव्यवस्था, राजनीति, विदेश से सम्बन्धित सभी जानकारी केवल एक क्लिक भर दूर है और स्मार्टफोन तो आपके पास है ही। 
गाँव कनेक्शन साप्ताहिक  के 21 अप्रैल 2013 के अंक में प्रकाशित