Jun 5, 2015

गुज़री हुई बहार की एक यादगार हूँ

काँटा समझ के मुझसे न दामन बचाइए.. गुज़री हुई बहार की एक यादगार हूँ. 


मुशीर झंझानवी का यह शेर अक्सर मैं गुनगुनाया करती हूँ. मैं अब कौन हूँ, सोचती हूँ तो छाती चीख़ उठती है मेरी, लेकिन मेरे पिछले वक़्त की यादें अक्सर मुझे एक भीनी फुहार के साथ माटी की सुगंध का एहसास करा जाती हैं। मैं गोमती हूं. आज अपनी हालत देखती हूँ तो बस दिल भर आता है। सोचा आज अपनी कहानी कहकर दिल का गुबार निकल लूँ.. मेरी आत्मा की मौत पहले ही हो चुकी है बस अब इस शरीर का जाना बाकी है.. 
एक वक़्त वो भी था जब मैं अपने रंग रूप पर इठलाया करती थी.. गोमत ताल से चलते हुए मैं बस छलछलाती, चहकती, कल-कल करती उमंगों से भरी बस बहती जाती थी.. गुरूर था कि लखनऊ, जौनपुर जैसे कई शहरों को बसने का आसरा मैंने दिया है और सुकून था मेरा भविष्य इन्हीं सुरक्षित हाथों में है। अब भी मुझे वो शामें याद आती हैं जब छतरमंजिल से नवाबों की बेग़म मेरी और ताकती थीं और अपने दिल के ख्यालों को हूबहू वे मेरे स्वच्छ, निर्मल जल में देख पातीं थीं। संगीतकारों की धुनों से मेरी लहरें आबाद रहती थीं। लखनऊ की गोमती ..कभी नदी थी अब नाला बन गयी है कई शायरों की शायरी का उद्गम मैं ही हूं. शामें शायराना और दिन बेपनाह खूबसूरत हुआ करते थे.. ऐसी कई तारीखों की दौलत से दौलतमंद थी मैं. नाज़ था मुझे कि मैं नवाबों के शहर मैं हूँ और इनकी नवाबियत पर. कि हमेशा यह अपनी माँ जैसे मेरा ख्याल रखेंगे. मुझे जिंदा रखेंगे.. कहने को हाँ जिंदा तो रखा मुझे लेकिन मेरे रंग रूप को उजाड़ दिया.. कभी नदी थी अब नाला बन गयी है, कभी जीवनदायिनी थी अब प्राण हरने वाली बन गयी है। 


 जो मछलियां, जीव जंतु कभी मेरे पानी में अपने जीवन को संवारते थे, आज एक किनारे पर मरे मिलते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि मेरे अन्दर घुली हुई ऑक्सीजन की कमी हो गयी है जिससे मेरे अन्दर रहने वाले जीव जंतु मर रहे हैं। मैं चाह कर भी इन्हें नहीं बचा पाई क्यूंकि अब मेरी शक्ति भी क्षीण हो चुकी है। मैं खुद इस घुटन में साँसे नहीं ले पाती, मेरा नीला बहता नीर आज रुका हुआ काला बदबूदार पानी बन गया है..सोचा नहीं था कि अपनी इन्हीं आँखों से अपना ये हश्र देखूंगी। लखनऊ के बीच से निकलती हुई मैं सोचती थी कितना भव्य होगा मेरा इस दुनियां से जाना लेकिन नए लखनऊ और पुराने लखनऊ के बंटवारे ने मेरे बारे में सोचने का किसी को वक़्त ही नहीं मिला।  हुक्मरानों ने नए लखनऊ को सँवारने में ही समय लगा दिया, पुराना लखनऊ मसरूफ हो गया। मुझे याद करने के दो पल भी नहीं मिले किसी को। मैंने लखनऊ के लोगों के साथ यहाँ की आबोहवा को भी बदलते देखा है.. कभी-कभी अंगड़ाई लेते हुए जब में एक लम्बी सांस भरती थी तो एक ताज़ी, सुहानी हवा मुझे ताज़गी का एहसास कराती थी लेकिन अब जब मैं कभी अंगडाई लेकर साँस लेती हूँ तो एक घुटन भरी हवा मेरे ज़ख्मों को हरा करते हुए निकल जाती है अब मैं किसी की नहीं हूं. हिन्दू मान्यता को मानने वाले एकादशी के दिन मुझमे नहाया करते थे और ऐसा मानते थे कि ऐसा करने से उनके पाप धुल जायेंगे लेकिन अब लोग मुझमे पैर डालने से भी बचते हैं, पीना तो दूर की बात है और तो और पूजा सामग्रियां फेंक पर मुझे और प्रदूषित करते जा रहे हैं।. 


हाँ कभी कभार कुछ लोग मुझे साफ़ करने की पहल किया करते हैं लेकिन मैं एक नदी हूँ जो एक नाले में तब्दील हो चुकी है.. शहर भर का कचरा डाल कर, शहर भर के नालों को मुझमें मिलाकर, पूजा सामग्री और मृत अवशेष बहा कर मुझे इस हद तब प्रदूषित किया गया है कि अब इतनी आसानी से मेरा साफ़ होना मुमकिन नहीं है। मुझे साफ़ करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि सतत प्रयासों और ज़िम्मेदाराना संजीदगी की ज़रुरत है।मैं आज भी जीवनदायिनी हूँ बस मुझे यहाँ के बाशिंदों के थोड़े से सहारे की ज़रुरत है।

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