Apr 15, 2015

मौसमी मिजाज ने छीनी अन्नदाता से रोटी और हम कहते हैं वाह क्या मौसम है...

मौसमी मिजाज ने छीनी अन्नदाता से रोटी और हम कहते हैं वाह क्या मौसम है...

सर पर साफ़ा, सूती कुरता, घिसा हुआ पजामा, जगह-जगह से फटी मोजरी, झुलसी हुई त्वचा, शरीर छूने पर चुभती हड्डियाँ, माथे पर चिंता की चिर लकीरें और आँखों में बुझती सी उम्मीद...
एक कृषि प्रधान देश के किसान की यही पहचान है| पिछले कुछ दिनों में किसानो के साथ जो भी हुआ उसकी कल्पना करना भी दुखद है. इस साल के शुरुआत से अब तक करीब 250 किसानों ने आत्महत्या कर ली और पिछले साल करीब 1109 किसानों ने| अजीब लगता है न कि जो किसान देश भर के लोगों का पेट भरता है वो किसान खुद के घर का पेट नहीं भर पाया|
बादलों का इंतज़ार प्रेमियों के अलावा किसान भी करता है
बादलों का इंतज़ार प्रेमियों के अलावा किसान भी करता है क्योंकि उसे लगता है कि बारिश की अमृत बूंदे जब उसके खेत की मिटटी को अपने आँचल में समेत लेंगी तो जो उसकी ज़मीन सोना बरसायेगी और वो ख़ुद के घर के साथ हज़ारों घरों को रोटी दे पायेगा लेकिन जब वही अमृत बूँदें कहर ढाने पर आमादा हो जाती हैं तब केवल भगवान के आगे हाथ फ़ैलाने के अलावा उसके पास कुछ नहीं बचता, उम्मीद भी नहीं। उसकी एक मात्र पूंजी, उसकी फसल को ओलावृष्टि अपने तले रौंद देती है तब हम एहसास भी नहीं कर सकते कि अपनी पूंजी को यूँ लुटता देख उसका दिल चीत्कार कर उठा होगा. सोच कर बड़ा अजीब लगता है जब हम खुद को पतला करने की खातिर "हेल्दी फ़ूड" खा रहे होते हैं या खाना छोड़ देते हैं और जिनकी वजह से हम खा पा रहे हैं उनके बच्चे भूखे पेट सो जाते हैं।

अपने परिवार को यूँ तन्हा छोड़कर जाने की हिम्मत करना आसान नहीं होता, शायद वो समझ चुके होते हैं कि अब कम से कम वो अपने परिवार को नहीं पाल सकेंगे और इस दुःख में खुद को डुबोकर फिर से परिवार के लिए बोझ बनकर जीने से अच्छा वो मरना पसंद करते हैं, वे तो मर जाते हैं उनके परिवार पर इसके बाद क्या असर पड़ता है इसकी भी कल्पना करना हम सबकी सोच से परे है। उस किसान की अपने बच्चे को बड़ा अफ़सर बनाने की आशा के चीथड़े हाथ में आते हैं, जवानी में बूढ़ी हो गयी बीवी के आने वाले सुनहरे दिनों की उम्मीद हवा बनकर उसी के सफ़ेद-काले बालों को और बिखरा कर निकल जाती है, क़र्ज़ में डूबे परिवार को उससे निकालने की ज़द्दोजहद किसान को समय से पहले ही चिंताओं का किला बना देती है और ये चिंता धीरे धीरे उसकी चिता तैयार कर रही होती है, अब इन सबका कारण कौन? शायद कोई नहीं।
हम जैसे लोगों को सुहाने मौसम से मतलब है और राजनीतिज्ञों को इनकी मौत पर एसी कमरे में से बैठकर राजनीति करने से,कारण यही लोग खुद हैं जिन्हें उनका हक़ भी एहसान समझ कर दिया जाता है।
आम लोगों को मौसम से और नेताओं को राजनीति से मतलब है

इस देश में आय का वितरण बेहद असमान है, अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब के पास अब कुछ बचा नहीं है। एक किसान भूखे पेट अपनी जान दे देता है और एक तरफ रोटी की जगह पिज़्ज़ा, बर्गर सरीखे विकल्प मौजूद हैं


जिस असमय मौसम में हम बारिश में चाय पकौड़ों का लुत्फ़ ले रहे होते हैं ठीक उसी वक़्त उन बेवक्त आंधी, ओले और बारिश की बूंदों से आहत सैकड़ों जानें रस्सी का एक सिरा गले में बांधकर खुद को इन सब परेशानियों से आज़ाद कर लेती हैं और उनके परिवार के लिए अब जब-जब बारिश होगी, उनके जख्मों पर नमक की बूंदे डाल कर उन्हें को हरा कर देगी और हम कह रहे होंगे कि आहा कितना सुहाना मौसम है।

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http://hindi.oneindia.com/news/features/rains-destroy-50-000-hectares-of-crops-farmer-suicides-continue-350975.html

Apr 5, 2015

नया हो अब जहाँ हमारा ..

बीबीसी पर औरतों से जुड़े कानूनों के बारे में एक खबर पढ़ी. आप भी एक नज़र डालिए.

दिल्ली में 2012 के निर्भया कांड के बाद दुनिया भर में भारत की थूथू हुई. लेकिन एक साल बाद ही कानून में एक नई धारा जोड़ी गई जिसके मुताबिक अगर पत्नी 15 साल से ज्यादा उम्र की है तो महिला के साथ उसके पति द्वारा यौनकर्म को बलात्कार नहीं माना जाएगा. सिंगापुर में यदि लड़की की उम्र 13 साल से ज्यादा है तो उसके साथ शादीशुदा संबंध में हुआ यौनकर्म बलात्कार नहीं माना जाता.

माल्टा और लेबनान में अगर लड़की को अगवा करने वाला उससे शादी कर लेता है तो उसका अपराध खारिज हो जाता है, यानि उस पर मुकदमा नहीं चलाया जाएगा. अगर शादी फैसला आने के बाद होती है तो तुरंत सजा माफ हो जाएगी. शर्त है कि तलाक पांच साल से पहले ना हो वरना सजा फिर से लागू हो सकती है. ऐसे कानून पहले कोस्टा रीका, इथियोपिया और पेरू जैसे देशों में भी होते थे जिन्हें पिछले दशकों में बदल दिया गया.

नाइजीरिया में अगर कोई पति अपनी पत्नी को उसकी 'गलती सुधारने' के लिए पीटता है तो इसमें कोई गैरकानूनी बात नहीं मानी जाती. पति की घरेलू हिंसा को वैसे ही माफ कर देते हैं जैसे माता पिता या स्कूल मास्टर बच्चों को सुधारने के लिए मारते पीटते हैं.

सऊदी अरब में महिलाओं का गाड़ी चलाना गैरकानूनी है. महिलाओं को सऊदी में ड्राइविंग लाइसेंस ही नहीं दिया जाता. दिसंबर में दो महिलाओं को गाड़ी चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. इस घटना के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संस्थानों ने आवाज भी उठाई. मिस्र के कानून के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को किसी और मर्द के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखता है और गुस्से में उसका कत्ल कर देता है, तो इस हत्या को उतना बड़ा अपराध नहीं माना जाएगा. ऐसे पुरुष को हिरासत में लिया जा सकता है लेकिन हत्या के अपराध के लिए आमतौर पर होने वाली 20 साल तक के सश्रम कारावास की सजा नहीं दी जाती.

ये दुनियां कितनी भी बदल जाये लेकिन औरतों को लेकर सोच शायद ही कभी बदले. बलात्कार शब्द कह देना जितना आसान होता है उतना ही मुश्किल है उसे समझना. ज़्यादातर लोग बलात्कार को केवल शारीरिक संबध के तौर पर देखते हैं. यह केवल महिलाओं की वर्जिनिटी का हनन है. दुनिया के ऐसे सभी महाशयों से में सिर्फ इतना कहना चाहूंगी के मन की पीड़ा समझना आपके बस की बात नहीं. आपसे समझने की उम्मीद करना ही बेमानी है.

पति ग़लती सुधरने के लिए पीट सकता है, लेकिन ग़लती तो पुरुष भी करते हैं तो औरत क्या करे, लोगों के हिसाब से वो चुप रहकर अपने पत्नी धर्म का पालन करे और बात को जाने दे. न ही हम गाडी चलायें न ही अपने अपहरण करने वाले को सज़ा दें.

लोगों का तो काम ही है बातें करना लेकिन जब क़ानून इस तरह की बात करे तो इससे होने वाली व्यथा का अंदाज़ा लगाना इन कानून बनाने वालों के लिए मुश्किल है.


ये इसलिए नहीं है कि आप हम पर तरस खाएं, जी नहीं, बिलकुल नहीं. सिर्फ आपको बताने के लिए कि  यदि आप हमें हमारे हक़ से दूर रखना जानते हैं तो हमने भी अपना हक छीनना सीखा है और वो हम करेंगे भी. पढेंगे, नौकरी करेंगे, आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करेंगे, स्वयं के निर्णय खुद लेंगे और अपने लिए ऐसी छत भी ज़रूर बनायेंगे जहाँ आपकी सड़ी-गली मानसिकता के कीड़े न पहुँच पायें. 


Apr 1, 2015

तो काबिल होने के लिए पढ़िए..

अबे कितना पढ़ा तूने?  मुझे तो समझ ही नहीं आया कि शुरू कहाँ से करूँ. तूने तो सारा पढ़ लिया होगा न  ? नहीं यार , इतना पढ़ते होते तो यहाँ होते, हाँ पास होने की गारंटी है. बाकी और कुछ चाहिए भी नहीं. और सुन, गाय हमारी माता है.. हमको कुछ नहीं आता है.. और एक जानी पहचानी खिलखिलाहट भरी हँसी के साथ सब हँस पढ़ते है. पेपर देने से पहले ऐसे ही कुछ बातें करते हैं न हम. हाँ वैसे एग्जाम टाइम में बड़ा मज़ा आता है न ऐसे बोलने में.  लेकिन इस मज़े में क्या छुपा है आइये आपको बताते हैं. होता यूँ है कि जब हम खुद को बार बार दूसरों के सामने पढाई में कमज़ोर जताना चाहते हैं तो धीरे धीरे हम वाकई में कमज़ोर होते जाते हैं. हम हमेशा इसी बात पर जोर देते रहते हैं कि हमको कुछ नहीं आता है बजाय इस बात पर जोर देने के कि हाँ मुझे इतना आता है और इतना तो बहुत अच्छे से आता है. अगर अच्छे नंबर आ गए तो ठीक वरना हमने तो पहले ही कह दिया था कि हमे कुछ नहीं आता. इससे हम बेशक दूसरों के सामने बच जाएँ लेकिन खुद में हम आगे बढ़ना सीखना छोड़ देते हैं. अब आपको मेरी बात कुछ कुछ समझ में आने लगी होगी. किसी दोस्त के पूछने पर कि क्या ये तुमने पढ़ा है तो हम सीधे सीधे कहने के बजाय कि हाँ मैंने ये पढ़ा है, हमारा कहना होता है कि कहाँ यार.. कुछ नहीं पढ़ा. उसके बावजूद एग्जाम में अपना धर्म समझकर कॉपियों पर कॉपियां भरते चले जाते हैं और हमारा सारा जोर एग्जाम में अच्छे प्रतिशत लाने पर होता है और रिजल्ट आने के बाद हम दूसरों से ये सुनना पसंद करते हैं कि अच्छा.... तुमने तो कहा था कि तुम्हें कुछ नहीं आता लेकिन इतने अच्छे परसेंट कैसे आ गए और हम विजयी मुद्रा में बस मुस्कुरा देते हैं लेकिन हम उसके बावजूद भी ये नहीं कहना चाहते कि हाँ मुझे इस विषय में इतना आता है. समझ आया कुछ. चलिए अब थोडा और सीरियसली बात करते हैं..
आंकड़ों की मानें तो भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. ये संख्या यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. सरकार भी बच्चों की पढाई पर सरकारी बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करती है. सोचने वाली बात ये है कि हमारे पास जब इतने कॉलेज हैं, सुविधाएँ हैं, मौके हैं, डिग्रियां हैं और हर साल लाखों लोग इन डिग्रियों को हासिल भी कर रहे हैं, तो इतने पढ़े लिखे लोगों का देश होने के बावजूद दुनिया के धरातल पर हम अब भी पढ़े लिखे नहीं माने जाते हैं. भारत में डिग्री की वैल्यू कुछ यूँ है कि अगर कोई डिग्री नौकरी नहीं दिला पाती है तो वह बेकार है. इसीलिये हमारे यहाँ केवल डॉक्टर और इंजीनियर बनने को ही अच्छी पढाई माना जाता है लेकिन इकनोमिक टाइम्स के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. थोडा अजीब लगा न जानकर. एक और अजीब सी लगने वाली बात ये भी है कि हर साल पास होने वालों की संख्या इतनी ज्यादा है, इंजीनियर डॉक्टर की भरमार है फिर भी इस क्षेत्र में देश का नाम करने वालों की संख्या कम. क्यूँ? थोडा सा पीछे मुड़कर अपने पढाई करने के तरीके को देखेंगे तो आपका इसका जवाब मिल जायेगा. हम खुद को नंबर पाने की दौड़ में उलझाये रखना चाहते हैं. रटकर, नक़ल करके या कैसे भी करके बस पचहतर प्रतिशत से ज्यादा आ जाये. हमारे देश में केवल प्रतिशत की अंधी दौड़ में दौड़ने और एक अदद नौकरी पाने को ही सब कुछ माना जाता है. इसलिए नया लिखने या पढने की इच्छा या तो जन्म नहीं ले पाती या फिर हम उससे खुद ही किनारा कर लेते हैं और धीरे-धीरे ये हमारे पढ़ने और पढ़ाने का तरीका बन जाता है कि केवल नंबर ले आओ बाकी सब तो जुगाड़ करवा ही देती है और एक बार नौकरी लग जाये तो फिर पढ़ने की ज़रुरत ही क्या है और यही सोच हमे कुछ नया नहीं सीखने देती. आप खुद ही सोचिये कि जब हम किसी अच्छी किताब, मॉडल, थ्योरी या अविष्कार की बात करते हैं तो हमेशा विदेशी नामों से ही टकराते हैं. टीचर्स हों या स्टूडेंट्स, विदेशी लेखकों की किताबों को ही पढ़ते-पढ़ाते हैं. भारतीय नामों को तो ऊँगली पर गिना जा सकता है. रिसर्च के क्षेत्र में तो भारतीय नाम बहुत ढूंढने पर भी शायद नहीं मिल पाएंगे. कारण फिर वही.. पास होना और नौकरी पाना. यही हमारी जिंदगी का लक्ष्य बन जाता है और खुद को कमतर आँकने की हमारी आदत. बहुत सिंपल सी बात है हम जैसा खुद को दूसरों के सामने दिखायेंगे वैसा ही हम धीरे धीरे ख़ुद बनते भी जायेंगे और इस तरह से जो कुछ कर सकने की हम क्षमता रखते हैं वो भी नंबरों के पीछे भागने में वेस्ट हो जाएगी. इस नंबर दौड़ से तो किसी का भला होने से रहा तो जनाब बाबा रणछोड़ दास की सलाह मानिए. “नौकरी पाने के लिए नहीं बल्कि काबिल होने के लिए पढ़िए. सर्कस में तो शेर भी करतब दिखा लेता है लेकिन हम उसे वेल ट्रेन्ड कहते हैं वेल एजुकेटेड नहीं”. ज़रा सोचिये कितना अच्छा हो कि जब कोई हमसे पूछे कि तुम्हें कितना आता है और हम कहें कि गाय हमारी माता है ..इसीलिये ही हमे सब कुछ आता है.