Mar 8, 2015

गुणवत्ता को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता


आंकडें बताते  है कि भारत धीरे धीरे साक्षर हो रहा है. आंकड़े कहते हैं कि आल इंडिया स्कूल एजुकेशन सर्वे के अनुसार भारत में प्राइमरी से हायर सेकंड्री तक कुल मिलाकर 1,306,992 स्कूल हैं. यूजीसी के अनुसार कुल 693 यूनिवर्सिटीज हैं जिनमे 45 सेंट्रल, 325 राज्य, 128 डीम्ड और 195 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज हैं. भारतीय सरकार ने 2014-2015 बजट में सर्व शिक्षा अभियान के लिए लगभग 28,635 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा था. 100 करोड़ वर्चुअल कक्षाओं के लिए 500 नए आईआईएम खोलने के लिए और इस साल के बजट में भी स्कूल शिक्षा के लिए 42,219.50 करोड़ रूपए दिए हैं और उच्च शिक्षा के लिए 26855 करोड़.लेकिन गुणवत्ता को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता है |गुणवत्ता बहुआयामी होती है न की एक आयामी जैसा की भारत में शिक्षा के संदर्भ में लगता है .
ये आंकड़े शिक्षा के लिए दी जा रही सुविधाओं की एक अच्छी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं लेकिन इस तस्वीर का दूसरा रुख़ कुछ यूँ है कि टाइम्स द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कराये गए एक सर्वे में हमारे यहाँ के संस्थान विश्व के 200 शिक्षण संस्थानों में भी जगह बनाने में असफ़ल रहे. इकनोमिक टाइम्स के अनुसार भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. चौकाने वाली बात ये है कि यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ये आंकड़ा ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. इसी अख़बार के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. आंकड़े बड़ी ख़ूबसूरती से हमे आइना दिखा रहे हैं. दोनों पहलुओं का दुनियां के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने निष्कर्ष ये निकालता है कि  भारत में केवल हस्ताक्षर कर सकना साक्षर होने की निशानी है और एक नौकरी पा जाना उच्च शिक्षित होने की. उच्च शिक्षा में कहने के लिए हमारे यहाँ उच्च शिक्षा के बड़े-बड़े सरकारी संस्थान हैं जहाँ एडमिशन के लिए छात्रों के माता-पिता फीस के अलावा कोचिंग और डोनेशन मिलाकर लाखों खर्च कर देते हैं. साथ ही साथ कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे प्रबंधन संस्थान हर साल लाखों डिग्रियां बाँटते हैं यानी हर साल लाखों में एमबीए इन संस्थानों से निकलते हैं लेकिन पढाई में गुणवत्ता की डिग्री देने वाला एक भी संस्थान नहीं है. हमारे यहाँ शिक्षण संस्थानों की नीव में केवल सीमेंट बालू और ईंटें हैं, शिक्षा को बेहतर करने का सपना नहीं. यही वजह है कि संख्या में  हम आगे है चाहे वो हर साल पास होने वाले छात्र हों या फिर सरकारी मदद लेकिन शिक्षा में गुणवत्ता के स्तर में हम अभी भी कतार में पीछे हैं. ज़रा सोचिये कि हमारे देश में अध्यापक भी पढने और पढ़ाने के लिए विदेशी लेखकों की किताबों का अध्ययन करते हैं और अपने छात्रों को इन्ही पुस्तकों को पढने की सलाह देते हैं ख़ासकर कि उच्च शिक्षा में. कारण साफ़ है कि दुनिया लोहा माने ऐसी किताबें लिखने के लिए भी सीखने की ललक, जूनून और धैर्य की आवश्यकता होती है और चूँकि हमारे देश में व्यक्ति का आंकलन उसके पैकेज से किया जाता है न कि उसके ज्ञान से और इसी पैकेज को पाने के लिए नंबरों की अंधाधुंध दौड़ में बस छात्र दौड़ेते चले जाते हैं बिना ये जाने कि ये रास्ता सिर्फ उन्हें एक सामान्य व्यक्ति ही बनाने की और ही ले जा पाता है. आविष्कारों के नाम पर हम केवल “जीरो” पर अटके हैं. दुनिया में जब सफल भारतीयों की जब बात की जाती है तो हमारे पास केवल उन एनआरआई भारतीयों का हवाला देने के अलावा कुछ और नहीं होता है जिन्होंने सफलता के झंडे गाड़े. याद रहे कि इनकी केवल पैदाइश या माता या पिता भारतीय मूल के होते हैं लेकिन उनकी शिक्षा विदेशी मानकों के अनुरूप ही हुई होती है और वे दुनिया को और खुद को उसी चश्मे से देखते हैं. हमारा जोर उनका नाम इस्तेमाल करने पर तो होता है लेकिन खुद के मानकों को सुधारने पर नहीं. इसका प्रमाण ये है कि आज भी अगर यहाँ के छात्रों को मौका दिया जाये तो वे यहाँ पढने की बजाय विदेश में पढना पसंद करेंगे और फोर्ब्स के अनुसार लगभग 4.6 लाख छात्र हर साल पढने के लिए विदेश जाते हैं. अगर हमारे देश में शिक्षा का यही हाल रहा तो भविष्य में यहाँ के छात्रों की गिनती उन जमूडों में होगी जिनका दिमाग कुंद है और जो बस डंडे से हांके जा रहे हैं एक अदद नौकरी पाने के लिए. उसके बाद शायद सभ्यता और संस्कृति भी भारत की लुटती इज्ज़त न बचा पाए. 

Mar 4, 2015

प्यार तो बस प्यार ही रहता है..


जैसे जैसे फागुन की गुलाबी बयार अंगड़ाई लेने लगती है वैसे वैसे मेरा मन अपने प्यार से लिपटने को मचल उठता है. यूँ तो साल भर मैं सिर्फ सबके ज़ेहन में होती हूँ लेकिन मेरे प्रीतम के आते ही मेरा रूप रंग संवारकर मेरा नया जन्म होता है. मेरा होना सिर्फ तुमसे ही है. मुझे मेरे हमेशा हमेशा के प्यार होली से मिलने का सोच कर गुदगुदी होती है और मैं भी तड़प उठती हूँ होली से मिलने के लिए. प्रिय होली, तुम्हारे जाने के बाद जब डब्बों में टूटे टुकड़ों में रह जाती हूँ तब कितना कुछ सोचती हूँ. तुम साल में सिर्फ एक बार आते हो और किस्मत देखो मेरी याद भी लोगों को तभी आती है. अच्छा है ..वैसे भी प्रेम के इस त्यौहार में हमे अपने प्यार को महसूस करने का मौका जो मिल जाता है. आते तो तुम प्यार लेकर हो लेकिन साल भर की तन्हाई और इंतज़ार देकर चले जाते हो. लेकिन मैं तुमसे तब भी नाराज़ नहीं होती क्यूंकि जब तुम्हारे बारे में सोचती हूँ तो एक नयी ऊर्जा के अनुभव के साथ मेरा जी करता है कि हर बरस तुमसे यूँ मिलने के लिए तड़प बनी रहे. इसमें जो मज़ा है वो शायद साथ रहने में न हो. अरे हाँ सुनो.. इस बार मेरा तोहफा लाना मत भूलना. तुम्हें याद है न पिछली बार तुम भूल गए थे. तोहफ़े में जो ढेर कहानियां तुम मेरे लिए लाते हो , उन अनमोल कहानियों को समेत कर में हर रोज़ तुममे ही जीती हूँ. याद है जब हम उस सुहानी शाम को नदी के किनारे तेज़ हवाओं में हम साथ थे.. मैं तो टुकड़ों में बिखर ही जाती अगर तुमने अपने गीले रंगों से मुझे भिगोया न होता. तब एक कहानी तुमने खुद मुझे सुनाई थी.. तुमने मुझे बताया था कि तुम्हारे आने पर एक लड़ने ने राह चलते दूसरे लड़के को रंग में सराबोर किया था.. कितना खिलखिला कर हँसा था वो पर उसे क्या पता था कि उसकी वो  खिलखिलाहट उसके और उसके परिवार के लिए हमेशा का दर्द बन जाएगी. वो दूसरा लड़का सिर्फ अपना मजाक बनने की वजह से कितना आहत हुआ था काश वो पहला लड़का समझ सकता. अपने साथ लाठी लिए आये कुछ लोगों के साथ उसने अपने ऊपर रंग गिराने की सज़ा हमेशा के लिए उसका पैर तोड़कर दी. मेरे रोंयें रोंयें काँप गए थे ये सुनकर और याद है वो वाली कहानी जिसमे सिर्फ रंग डालने की वजह से पूरा शहर दंगों से कराह उठा था. मुझे तो बस इतना समझ आया था कि इंसान ने इंसान पर रंग डाला था लेकिन तुमने ही मुझे बताया था कि किसी हिन्दू ने किसी मुसलमान पर रंग डाला था. इस बात पर में तुमसे नाराज़ भी हुई थी क्यूंकि तुमने मुझे कभी नहीं बताया कि ये हिन्दू या मुसलमान क्या होता है. तुम हमेशा कहते रहे कि अपने को हिन्दू समझो पर कैसे, मैंने तो खुद को ख़ुशी ओर मिठास का प्रतीक समझा था.  मैं तो बस यही समझती हूँ कि मेरा आना लोगों को ख़ुशी देता है. पर एक बात बताओ क्या इस प्रेम के त्यौहार को भी लोग अपने ग़ुस्से से छोटा समझते हैं. क्या लोग प्रेम को भी छोटे-बड़े, मज़हबी और गैर मज़हबी, ऊँचे-नीच, अमीर-गरीब जैसे तराजुओं में तोलते हैं. तुमसे तो मुझे बस यूँ ही प्यार हो गया था न और प्यार तो किसी रूप में हो, बस प्यार ही रहता है. वहां इन सब का क्या काम. खैर छोडो मैं भी क्या लेकर बैठ गयी. सही कहते हो तुम, “जब भी तुम बोलना शुरू करती हो तुम्हारा मुंह बंद ही नहीं होता. टेपरिकॉर्डर की तरह बस बजती चली जाती हो.” पर तुम्हारे इस तरह मुझे छेड़ने में जो प्यार होता है न बस में उसी को तुम्हारे चेहरे पर देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे दुनिया भर के सारे सुख मेरी झोली में आ गिरे हों जैसे. सुनो इस बार वो वाली कहानी सुनाना न जब मेरे जैसी एक प्रेम दीवानी को उसके प्यार से मिलाया था तुमने. तुम्हारे रंगों ने न जाने क्या असर किया उस दीवानी पर , बस वो उसकी होकर रह गयी. शायद रंगों में छुपी उसके प्यार की छुअन का था वो असर. वो कैसे शरमाई होगी न. खुद से ही लजाई होगी. उसे देखकर तुम्हें मेरी याद आई होगी ना. आई ही होगी. कहो न कहो पर साल भर तुम भी मुझसे मिलने के लिए ऐसे ही मचलते हो न. अच्छा सुनो इस बार पड़ोस वाली रेहाना आंटी भी आयीं थी मुझे सँवारने के लिए. पदमा आंटी ने उनकी ऐसी आवभगत की कि पूछो मत. वो कह रहीं थीं कि अब वक़्त बदल रहा है. अब सब एक जैसा सोचने लगे हैं. कोई अब भेदभाव नहीं करता. ये तो कुछ ऊंची कुर्सी वालों की देन है. तुम्हारे आने पर जब कोई ऐसी ख़ुशियाँ मनाता है तो मेरा मन करता है उसके मुंह में घुलकर उसकी स्वादेन्द्रियों को ऐसे मीठे स्वाद का अनुभव कराऊँ कि वो मिठास साल भर के लिए बनी रहे. पता है इस बार मैंने यही सोचा है हमारे लिए. तुम प्यार की गुलाबी फुहारें बरसाना और मैं अपनी मिठास से इस प्यार को दुगना कर दूंगी. तुम्हारे आने पर सब और सिर्फ प्रेम ही प्रेम हो. न ही कोई झगडे न ही कोई बुरा माने. और ये मैं करूँ भी क्यूँ न तुमसे प्यार जो है मुझे. तुम्हें जाने देने का दिल नहीं करता लेकिन तुम जाओगे वापस आने के लिए, अपने साथ प्रेम की ढेरों कहानियां लिए और हर साल की तरह तुम्हारी गुझिया तुम्हें हर घर की रसोई में तुम्हारा इंतज़ार करते हुए ही मिलेगी.