Mar 21, 2014

Finally... तुम मिल गए



कल अचानक एक पुराने दोस्त से बात हुई. हम 8 साल बाद बात बात कर रहे थे, 3 घंटे, उफ्फ्फ... याद भी नहीं कि पिछली बार किसी से इतनी लम्बी बात कब हुई थी, वक़्त का पता ही नहीं चला. हम बातें करते गए, ऐसा लग रहा था कि बताने को कुछ रह ना जाए. 8 सालों में हम दोनों की जिंदगी में जो कुछ भी हुआ, हम एक दूसरे को सब बता देना चाहते थे, कौन नया आया, कौन गया, कितने दोस्त बने, किसे धोखा दिया, किसने तंग किया, पढाई कहाँ की, जॉब कैसी चल रही है.. फ़ोन में घुसकर उसके पास पहुँच जाने का मन कर रहा था, प्लानिंग होने लगी, कैसे मिलना है, कहाँ मिलना है, मिलेंगे तो कहाँ कहाँ घूमेंगे, कैसे वक़्त बिताएंगे.. ख़ुशी का आलम ये था कि अगर फ़ोन से जाने का कोई तरीका होता तो वो अमल में लाया जा चुका होता. उसने कहा.. वक़्त कितनी जल्दी गुज़र गया न, पता ही नहीं चला, ऐसे लग रहा है जैसे कल की ही बात हो. ये छोटी सी बात उसने यूँ ही कही, लेकिन वाकई वक़्त कितना जल्दी गुज़र जाता है, और इस वक़्त की  आपाधापी में हम भूल जाते हैं कि कुछ अपने पीछे छूट गए. वो लोग जो जिनके चेहरे की ख़ुशी की वजह आप ही हैं. बस हम समझ नहीं पाए. बड़े मुकाम हासिल करने कि चाह में उन अपनों की सुधि ही नहीं ली. आज टेक्नोलॉजी बूम के दौर में हम टच में रहने की बजाय आउट ऑफ़ टच होते जा रहे हैं. हमारे पास इतने सारे एप्प्स हैं फिर भी हम रिश्ते सम्हालने में नाकाम हो जाते हैं. आप ही सोचिये कि जब कुछ स्माइली हमारे इमोशन को बयां करती हैं, तो कैसे हम उन रिश्तों को सहेज पायेंगे. इन एप्प्स के चक्कर में हम भूल जाते हैं कि दोस्ती वर्चुअल कभी नहीं हो सकती. मुझे अच्छे से पता है कि आपको ज्ञान लेना पसंद नहीं है. तो सिर्फ एक छोटा सा काम करते हैं. 
, थोड़ी देर के लिए हम कुछ वक़्त पहले की दुनियां में चलते हैं जब हमारी जिंदगी में दोस्तों की  जगह एप्प्स ने नहीं ली थी. थोडा सा वक़्त निकलते हैं उन पुराने दोस्तों के लिए जो आपकी मुस्कराहट के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे. थोड़ी देर उन दोस्तों के साथ बचपन को जीकर देखते हैं. बिना मिलावट की हँसी हसकर देखते हैं.. अपने पुराने रिश्तों को फिर से जिंदा करने की कोशिश करते हैं, और जब आप ये कर लेंगे तो यकीन मानिए आप खुद को पहले से ज्यादा सुकून में पायेंगे. पहले से ज्यादा खुश पायेंगे, और..
ख़ुशी सिर्फ तभी मिलेगी जब आप ख़ुशी को पहचानना सीख लेंगे.    


Mar 13, 2014

बस यूँ ही

कभी कभी सोचती हूँ कि जिंदगी यूँ न होती तो कैसी होती. आप उम्मीदों के साथ आगे बढ़ते हैं, खुद के लिए एक मुकाम तय करते हैं, टूटते हैं, बिखरते हैं, फिर उठ खड़े होते हैं और फिर खुद से नयी उम्मीदें पालते हैं. कहते हैं न कि चलती का नाम जिंदगी.


Mar 9, 2014

आप सोचिये

हॉल में जाने का मौका नहीं मिला तो मैंने लैपटॉप पर कल जय हो देखी. अच्छी लगी. बहुत ख़ुशी हुई ये देखकर कि किस तरह एक आम आदमी इतने सारे बुरे लोगो पर भारी पड़ता है. बहुत अच्छा लगता है जब वो भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ लड़ता है. अपने परिवार की रक्षा करता है खासकर आपनी बहिन की जब फिल्म में एक बुरे चरित्र का व्यक्ति उसकी इज्ज़त पर हाथ डालता है. ज़ाहिर है कि किसी भी आम इंसान को ये देखकर अच्छा ही लगेगा कि कोई तो है जो अच्छा सोचता है और करता है. फिल्म में ही सही.
नहीं नहीं मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूँ. मैं बस आप सभी से अपने कुछ ओब्ज़र्वेशन शेयर करना चाहती हूँ.

एक सवाल : जो काम उस फिल्म मैं एक हीरो ने किया अगर वही काम एक लड़की करना चाहे तो. एक आम लड़की, जिसके दिल में देश के लिए बेपनाह मोहब्बत है, जो दुखी लोगो को देखकर खुद भी दुखी होती है और उनकी मदद की हरसंभव कोशिश करती है. उसे भी भ्रष्ट राजनेताओं से उतनी ही चिढ़ है, इस सिस्टम के खिलाफ वो भी लड़ना चाहती है पर वो नहीं कर सकती. क्यों ?
जवाब: वैदिक संस्कृति के इस देश में लड़कियों को देवियों का दर्ज़ा तो दे दिया गया लेकिन सिर्फ दर्ज़ा दिया गया, माना नहीं गया. अगर कोई भी लड़की समाज द्वारा बताई गयी उसकी हदों से बहार जाकर कोई काम करना चाहे या करती है तो सबसे पहला काम कि उसके चरित्र का हनन कर दिया जाए. ऐसा कुछ कहा जाए कि वो अपनी नज़रों में ही गिर जाए. इससे काम न चले तो उसके शरीर को हथियार बनाओ. भगवान् ने उसे ऐसा शरीर दिया ही इसीलिये है कि जब जैसी ज़रुरत पड़े, इस्तेमाल करो. इसके बाद भी अगर कुछ कहने की हिम्मत करे तो सामूहिक या अप्राकृतिक बलात्कार जैसे अस्त्र कब काम आयेंगे. इसके बाद उसकी जान ले लेना ही एकमात्र उपाय बचता है जो कि आजकल के दौर में आसान भी है.
थोडा हैवी हो गया ना. होने दीजिये बेहतर है. हर बार चीज़ों को ज्यादा लाइट लेते लेते हम अपनी इंसान होने की जिम्मेदारियां भी भूलते जा रहे हैं शायद. हमारा काम सिर्फ ख़बरें पढ़ लेना और उन पर अफ़सोस भर कर लेना रह गया है. ज्यादा दुःख हुआ तो एक कैंडल मार्च निकल कर तसल्ली दे ली खुद को.
अब एक और सवाल: लड़कियों के सम्मान और मर्यादा के लिए इतनी बातें लिखी जाती है, सुनाई जाती हैं, दिखाई जाती हैं, फिर भी ऐसा क्या है जो आपको रोकता है सही को सही या ग़लत को ग़लत कहने से. इसका जवाब तो अब आपके पास ही होगा.
ये सिर्फ हमारे ही देश में हो सकता है कि नवरात्रों में माता के पूर्ण आशीर्वाद के लिए हम नौ दिन कन्या खिला सकते हैं पर एक कन्या को जन्म नहीं लेने देना चाहते.
अपनी बेटी को विदा करते वक़्त अपने खाली बैंक अकाउंट के लिए ससुराल वालों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं पर वही बैंक अकाउंट भरने के लिए दहेज़ लेने और बहू को गाहे बगाहे तंग करने से नहीं चूकते.
बचपन से लड़कियों को राधा और दुर्गा के रूप में देखकर खुश होते हैं पर ना तो राधा की तरह उन्हें प्यार करने का हक़ है और ना ही दुर्गा कि तरह अपनी शक्तियों को पहचानने का.
किसी भी लड़की को जीने के लिए एक पति नाम के सहारे कि ज़रुरत होती है. हसने वाली ही बात है कि बचपन में देवी रूप में पूजी गयी कन्या को ख़ुशी भी एक सहारे से नसीब होगी और इस नियम के विरूद्ध जाने कि कोशिश कि तो वही एक हथियार.. चरित्रहनन .
लड़कियों से हर बात पर अग्नि परीक्षा की उम्मीद की जाती है. रामायण काल से चला आ रही है ये परंपरा. अकेले चलना चाहा तो अग्निपरीक्षा, लीजिये हमने एवरेस्ट फ़तेह करके दिखा दिया. पढ़ना चाहा तो अग्निपरीक्षा, लीजिये हमने हर बार बोर्ड के पेपरों में लड़कों से अव्वल आकर दिखा दिया. उड़ना चाहा तो भी अग्निपरीक्षा, तो लीजिये हमने अंतरिक्ष तक पहुँच कर दिखा दिया. आत्मनिर्भर होना चाहा तो अग्निपरीक्षा, लीजिये हमने सभी शीर्ष कंपनियों का सरताज बनकर दिखा दिया. एक छोटी सी बात समझने में इस समाज को कितने वर्ष और लगेंगे कि अब वो दौर गया जब भगवान्, समाज, परिवार, दुनियां और इज्ज़त का डर दिखाकर लड़कियों को उनकी मंजिलों तक ना पहुँचने दिया जाता था . बदलाव हो भी रहा है और आगे भी होगा. 
मैं वही एक लड़की हूँ, एक आम लड़की, जिसके दिल में देश के लिए बेपनाह मोहब्बत है, जो दुखी लोगो को देखकर खुद भी दुखी होती है और उनकी मदद की हरसंभव कोशिश करती है. उसे भी भ्रष्ट राजनेताओं से उतनी ही चिढ़ है, इस सिस्टम के खिलाफ वो भी लड़ना चाहती है पर लड़ नहीं सकती. क्यों?
आप सोचिये.