Jan 12, 2016

जद्दोजहद

नौकरी करते करते  2 साल गुज़र गए. उम्र यही कोई सिर्फ 25 साल की है. सब कुछ तो है मेरे पास.. मैं तो खुश हूँ. सच मैं हूँ?
नहीं.. बिलकुल नहीं. अक्सर जब अपने कमरे पर अकेले बैठकर अपनी जिंदगी के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि ये वो जिंदगी बिलकुल नहीं है जो मैंने खुद के लिए कभी सोची थी. सुबह खुद के लिए खाना बनाकर कॉलेज जाना, बच्चों को पढ़ाना और शाम को आकर फिर से घर के काम करने के बाद पढना और लिखना. रविवार इसी ऊहापोह में बीत जाता है कि घर के पचास काम निपटाने हैं और अगले हफ़्ते के लिए कपडे धुलकर रखने हैं. ये सब तो लड़कियों की जिंदगी में अक्सर शादी के बाद हुआ करता है. मैं तो अभी अकेली हूँ. कोई कहने सुनने वाला भी नहीं. दूर से देखने वाले लोग भी कहते हैं.. राधिका ने भी क्या जिंदगी पाई है. कॉलेज ख़तम होते ही नौकरी. पीएचडी चल ही रही है. दो साल में नाम के आगे डॉक्टर लग जायेगा, कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं. बस और क्या चाहिए. पर क्या वाकई? यही जिंदगी है? पढाई, अच्छी नौकरी, शादी के सपने.. बस? दिल कहता है सब छोड़ कर कहीं निकल जाऊं कुछ दिन लेकिन फिर दिमाग कहता है नौकरी छोड़ कर जोश में जाने से कुछ नहीं होगा. धीरे धीरे प्लान करके सोच कर आगे बढ़ते हैं. लेकिन वही ढाक के तीन पात. दिन निकलते जाते हैं और कुछ “अलग” जो करना चाहती हूँ सिर्फ ख़्वाब में करके रह जाती हूँ. दिमाग हमेशा जीत जाता है. अक्सर ऐसा उन सभी लोगों के साथ होता है जिनको जिंदगी से कुछ अलग चाहिए. 

मुझे ये सही से नहीं पता कि मुझे क्या चाहिए बस कुछ अलग चाहिए.कभी समाज सेवा, कभी माउंट एवेरेस्ट चढ़ने का ख़्वाब, उस हॉलीवुड पिक्चर वाइल्ड की हीरोइन की तरह अकेले ट्रेकिंग पर जाने का सपना, कभी छत पर कान में ईयरफोन लगा कर गाने सुनते हुए उसी गाने पर एक बड़ी सी स्टेज पर हजारों लोगों के सामने खुद को दिल खोल कर नाचते देखने की चाहत, कभी किसी फ़िल्म में एक्टिंग करने के बारे में सोचना और सबसे बेहतरीन, दुनियां देखने के लिए अकेले निकल जाना. पता नहीं कितने वक़्त के लिए. इनमे से होता कुछ भी नहीं बस होते हैं दुनियां से अलग जाने के अरमान.
न बॉयफ्रेंड, न पति , न पैसा, न रुतबा, न लोग.. कुछ नहीं चाहिए मुझे. बस खुद के अन्दर बैठे उस इन्सान को ख़ुशी से नाचते हुए देखना चाहती हूँ. पर समस्या है कहाँ? मैं कुछ भी करने से डर क्यूँ रही हूँ. पहले तो कभी नहीं डरी. समय से पहले बड़ी हो गयी हूँ शायद. जोख़िम उठाने को हर वक़्त तैयार रहने वाला हिसाब तो बच्चों जैसी बुद्धि वालों का होता है. साफ़ भाषा में उन्हें गधा या बेवकूफ़ कहते हैं. जब ऐसे लोग कभी-कभी जब रिस्क उठाकर आगे बढ़ते हैं लोग तो दो तरह की चीज़ें होती हैं या तो वो कुछ हासिल कर जाते हैं या फिर उस गुमनामी में गुम होकर वापस उसी जिंदगी में लौट आते हैं और लौटने के बाद लोग उसका जीना मुश्किल कर देते हैं. कहेंगे बेवकूफी कर दी. एक बार सलाह ले लेता.
अब मैं क्या करना पसंद करुँगी. डर लगता है जब सोचती हूँ कि इस सधी हुई जिंदगी से दूर  भागकर आखिर मैं क्या हासिल करना चाहती हूँ. कदम रुक जाते हैं. लेकिन फिर मेरे अन्दर की राधिका कहती है कि मत करो ऐसा. कम से कम तुम तो उन लोगों में शुमार नहीं हो सकतीं जो मजबूरियों में जिंदगी बिता देते हैं. तुम्हारे पास परिवार है जो हर तरह से तुम्हारे साथ है, भरोसा करता है, तुम पर भी और तुम्हारे सपनों पर भी. फिर किस बात का डर है. भिड़ जाओ इस जिंदगी से. लड़ लो अपने देखे सपनों के लिए. कदम आगे बढ़ते हैं पता नहीं क्यूँ फिर रुक जाते हैं. दुनियां की बातें सुनने से डरती हूँ शायद.
लेकिन क्यूँ राधिका, फिर मेरे अन्दर की राधिका जवाब देती है: जब आज तक दुनियां की परवाह नहीं की तो अब क्यूँ. तुम्हें याद है जब कॉलेज में तुम्हारे अफेयर के किस्से आम बात हुआ करते थे जिनके बारे में तुम्हें खुद नहीं पता था. लेकिन तब भी तुम लड़ गयीं थीं, तब तुम नहीं हारी, पढ़ती रहीं.. आगे बढती रहीं तुम ... वही लोग तुमसे मदद मागने आने लगे जो कभी हँसा करते थे तुम पर.. तो फिर दुनियां का इतना डर अब क्यूँ ? अब क्यूँ राधिका अब क्यूँ.
लोग बोलते रहेंगे बोलने दो. एक बात याद रखना तुम , तुम्हें बड़ी जिंदगी जीनी है, लम्बी नहीं. इस बार अगर तुमने अपने क़दमों को आगे नहीं बढ़ने दिया तो फिर तुम कभी नहीं कर पाओगी. राधिका कोई तुम्हें पसंद करे न करे, कोई तुम्हें चाहे न चाहे, कोई तुम्हारी जीत के लिए खुश हो न हो, ये तुम्हारे अन्दर बैठी राधिका तुमसे बेपनाह मोहब्बत करती है, तुम्हारे सपनों में जीती है, आगे बढ़ो राधिका.. इस बार रुकना नहीं.
मैं खुश हूँ अब. मैंने अपनी रूममेट से कह दिया है कि कोई और रूममेट ढूढ़ लो. मैं तो चली.. कहाँ ? जिंदगी जीने. नौकरी छोड़कर? हाँ . उसने कहा, “तुमसे न हो पाई है”.
अनसुना कर दिया मैंने.
सब सोच लिया है मैंने . कल जाकर रिज़ाइन करुँगी और फिर पैकिंग. कॉलेज में सब पूछेंगे तो कह दूंगी कि कुछ पर्सनल रीज़न है. सबको क्यूँ बताऊँ कि क्या करने जा रही हूँ. जो सोचना है सोचते रहें.  अभी सामान ज्यादा नहीं ले जाना है. अलमारी अभी दोस्त के यहाँ रख दूंगी. वाटर कूलर छोड़ दूंगी, क्या करुँगी ले ज़ाकर. कूलर यहीं किसी को बेच दूंगी. अपने कमाए पैसों से ख़रीदी टीवी को घर छोड़ दूंगी. बाकी कुछ ऐसा है नहीं. हो जायेगा सब.
मैं अब बिस्तर पर पड़ी नींद के आने के इंतज़ार में हूँ. कल्पना में डूबी हूँ. कल के बाद मेरी जिंदगी बदलने वाली है. सुबह के चार बज गए. आँखों में नींद ही नहीं है. कूलर भी इतना आवाज़ कर रहा कि नींद आएगी कैसे. चेहरे पर एक मुस्कराहट आ गयी. पागल है तू भी.
सुबह के आठ बजे नींद खुली. टिफ़िन पैक करके कॉलेज के लिए निकली. पर ये हुआ क्या है मुझे? वो रात वाली बात क्यूँ नहीं है. अपनी पापा की दी हुई स्कूटी पर भी सोचती रही.. क्या सही कर रही हूँ मैं? कुछ न कर पायी तो? क्या करूँ? करूँ या न करूँ? कॉलेज में स्कूटी स्टैंड पर लगा कर हेलमेट और ग्लव्स उतारते वक़्त दिल कुछ बोला ही नहीं. सर को सामने देखा. गुड मोंर्निंग किया और चली आई स्टाफ रूम में. सामान रखते हुए मेरी रूममेट की बात दिमाग में घूमने लगी. “तुमसे न हो पाई है”
ग्यारहवीं बार 11 बज गए. चलूँ अब.. क्लास लेनी है.


एक गूंगे ने कहा कि मुझे गूंगा रहने दो

एक गूंगे ने कहा कि मुझे गूंगा रहने दो.. अब आप कहेंगे कि गूंगे ने कैसे कह दिया तो जी बात ये है कि बोलने वाले इतना ज्यादा बोलते हैं कि गूंगे को आखिरकार कहना पड़ा कि मैं गूंगा ठीक हूँ..
हुआ कुछ यूँ एक दिन गूंगा अपनी रह चला जा रहा था, रास्ते में उसे एक नेता मिले .. वो चौंका, आप कैसे? आप तो इस दुनियां से कबके विदा हो गए? वो नेता बोले, ए गूंगे, तुम विपक्ष के नज़र आते हो तभी मुझे देखकर खुश नहीं हो. किस धर्म के हो? जाति क्या है तुम्हारी? रिजर्वेशन से पढ़े हो या फिर कोई और आरक्षण की मांग के सिलसिले में चले जा रहे हो? गूंगे का सर चकराया, बोला, मैं कहाँ कुछ करूँगा नेताजी, वो तो दो दिन हो गए रोटी खाए, पेट भरने जुगाड़ करने जा रहा हूँ. नेताजी थोडा और गुर्र्राए.. जुगाड़? अब समझ आया कि तुम जैसे लोगों ने ही इस देश का ये हाल कर रखा है. जुगाड़ से काम चलाते हो. मेहनत तो करना ही नहीं चाहते, हमें देखो, हम तुम्हारी तरह की छोटी मोटी जुगाड़ लगाते तो तुम्हारी तरह ही पानी पीकर पेट पर हाथ फेर कर सो जाते. तुम जैसे लोगों की वजह से ये देश आज तक पिछड़ा हुआ है.. इस देश का उद्धार केवल तभी होगा जब तुम हमारे साथ जुड़कर जुगाड़ लगाओगे, हम सबको हाथ में हाथ डालकर चलने की ज़रुरत है.. नेताजी बोलते ही जा रहे थे.. गूंगे को भूख लगी थी .. क्या करता, दबे पांव वहां से निकला और तेज़ी से भागने लगा.. भागते भागते उसने पीछे देखा, ठहाके के साथ वो नेता हस रहा है, पर उनका चेहरा अलग सा है. उनके पैरों के पास एक मुखौटा पड़ा है.. कुछ समझा नहीं ..सोचा शायद उसकी किस्मत पर हँस रहा होगा. थोडा आगे निकल कर उसने चैन की सांस ली.. थोडा रुका और फिर रोटी की तलाश में निकल पड़ा.. एक मोटे ताज़े, हट्टे कट्टे आदमी ने उसका रास्ता रोका.. पूछा रोटी खाओगे ? गूंगे को बस मुंह मांगी मुराद मिल गयी.. उसके कहा कहाँ है रोटी? मुझे बहुत ज़ोरों की भूख लगी है.. मुझे रोटी दे दो.. उस आदमी ने कहा ..रोटी तक का रास्ता तेरे ही पास है. बस तू पहचान नहीं पा रहा.. गूंगे ने सर खुजलाया, पूछा कहाँ है रोटी... उस आदमी ने कहा कि आँखें बंद करके अपने ईष्ट को याद कर बस. गूंगे ने किया लेकिन रोटी नहीं आई. उस आदमी ने कहा कि लगता है कि तेरा ईष्ट तुझसे नाराज़ है.. तेरे पापों की वजह से आज तू भूखा मरने पर मजबूर है. गूंगे ने पैर उस आदमी के पैर पकडे. कहा, मैं माफ़ी मांगता हूँ.. क्या करूँ अपने ईष्ट को मानने के लिए जिससे वो मुझे रोटी दे दे.. आदमी बोला, कुछ नहीं..  बस जो तेरी श्रद्धा हो उतना चढ़ावा मुझे दे दे.. मैं तेरे इष्ट को दे दूंगा और तेरी समस्याओं का हल हो जायेगा, गूंगे ने कहा मेरे पास कुछ नहीं है महाराज.. नरक की आग में जलेगा तू.. आदमी चिल्लाया, गूंगा डर के भागा.. भूखे पेट भागते नहीं बन रहा था. बेदम होकर वहीँ पड़ गया .. खुद से जूझता गूंगा उठा और जैसे तैसे घर पहुंचा.. इस उम्मीद में कि बीवी कहीं न कहीं से रोटी शायद लायी हो ..सकुचाते हुए पूछा .. रोटी मिल जाएगी क्या खाने को? बीवी पैर पटकते और दांत पीसते हुए बोली कि कौन सी रोटी खिलाऊ तुम्हें? वो जो नयी सरकार के साथ आने वाली थी अभी तक आई नहीं या वो रोटी जो पिछली सरकार सपने में मुझे पकड़ा गयी थी तुम्हें खिलाने के लिए. गूंगा शर्मिंदा हो गया. सोचा रहा था कि उसने पूछा ही क्यूँ. आखिर बीवी भी तो भूखी होगी. गूंगे को कुछ न सूझा बस वो लगा रोने. रोता रहा , सिर्फ रोता रहा , खूब रोया, बीवी को देख कर रोया, उभरी पसलियों के ढांचे हो गए अपने बच्चों को देख कर रोया. रात भर रोया.
सुबह हुई तो नाम का गूंगा अब सच में गूंगा हो गया. उसने कुछ भी कहना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए. एक जगह बैठा रहता. बीवी ने सोचा उसका ताना कहीं इसकी जान न ले ले.. माफ़ी दर माफ़ी का दौर चला पर गूंगा टस से मस न हुआ. बीवी, बच्चे जो कुछ खाने को लाते थोडा बहुत खिला देते. यही गूंगे के प्राण को रोके हुए था. धीरे धीरे ऐसे लगा जैसे कि कोई समाधिस्त बाबा बैठा हो.
संयोग से वो हट्टा कट्टा आदमी वहां से गुज़रा, उसे देख कर बस चरणों में पड़ गया.. बाबा तुम कहाँ थे, कब से ढूंढ रहा हूँ, गूंगा अब सच में गूंगा था तो न बोला. आसपास गुज़रते लोगों को समझते देर न लगी कि कोई महान बाबा यहाँ आकर बसे हैं. पाखंड ने आकार लेना शुरू कर दिया. गूंगा कुछ न बोला. अब रोटी की कोई कमी न थी. उसके आगे खाने का ढेर लगा रहता.
एक दिन गूंगे ने देखा कि राह में मिला वो आदमी और मुखौटा लगाये वो नेता पैसों और सामान का लेन देन कर रहे हैं. गूंगे ने सोचा कि बोलूं कि आखिर तमाशा क्या लगा रखा है, जमे हुए होठ की पपड़ी को गीला करके जीभ को जगाकर बोलने जा ही रहा था कि रुका, फिर सोचा कि जिस रोटी  के लिए दर दर भटका वो यहीं मेरे सामने है.. बोला तो शायद इससे हाथ धोना पड़े और गूंगा फिर से गूंगा बन गया.अपने मन में बोला .. मैं गूंगा ही ठीक हूँ.