May 16, 2013

गाँव की लड़कियाँ अभी भी बदलाव के इन्तज़ार में



भारत में बालिकाओं की शिक्षा के प्रयास कुछ वर्षों से तेज़ी पर हैं। बालिकाओं के लिए किये जा रहे शिक्षा के प्रयासों में गति आयी है और इन प्रयासों का फायदा भी हुआ है। एनुअल स्टेट्स एजूकेशन रिपोर्ट के आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2006 से 2011 तक 11 से 14 वर्ष की बालिकाओं के स्कूल छोड़ने की दर 20 प्रतिशत से 9.5 प्रतिशत तक हो गयी है। आंकड़े वाकई हर्षित कर देने वाले हैं। पर ये आंकड़े हमें दूसरा पहलू ये भी दिखाते हैं कि भारत में खासकर गाँवों में  बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा पाने के लिए भी कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। किसी न किसी योजना के क्रियान्वन का इन्तज़ार करना होता है जिससे वे शिक्षा जैसी मूलभूत व आवश्यक सुविधा से लाभान्वित हो सकें और भारत के गाँव की लड़कियां अभी भी इस बदलाव के इंतज़ार में हैं |
भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर बढ़ी है। आजादी के बाद यह दर 12 प्रतिशत से बढ़कर  2011 में 74.04प्रतिशत तक पहुँच गयी है लेकिन इसी जनगणना में हमें यह भी पता चलता है कि भारत में पुरूषों के मुकाबले स्त्रियों की साक्षरता दर में कितना अन्तर है। पुरूष साक्षरता 80 प्रतिशत है वहीं स्त्री साक्षरता 65.46 प्रतिशत। ये आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं स्त्रियों की शिक्षा को पुरूषों के मुकाबले कहीं कम तरज़ीह मिलती है। गाँवों की बात करें तो आंकड़े और भी चौंकाते हैं। केवल जागरूकता व गरीबी ही नहीं वरन् सुविधाओं का न होना भी बालिकाओं की शिक्षा में बाधा बनता है। एक न्यूज चैनल की रिपोर्ट के अनुसार स्कूलों में शौचालय की अनुकूल व्यवस्था न होने के कारण कई बालिकाओं ने स्कूल छोड़ दिया। सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत सरकार यह सुनिश्चित करती है कि गाँवों के हर एक स्कूल में लड़के व लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों के व्यवस्था हो। डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजूकेशन 2006-2007 की रिपोर्ट कहती है कि अभी केवल 42.58 प्रतिशत स्कूलों में ही अलग अलग शौचालयों की व्यवस्था हो पायी है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अभी बालिकाओं के शिक्षा स्तर को बेहतर बनाने के लिए और वक्त लगेगा।
गाँवों में एक और खास बात देखी गई है कि स्कूल छोड़ने वाली बालिकाओं में अधिकतर बालिकाऐं आठवीं या उसके बाद की कक्षा की होती हैं यानि कि किशोरावस्था में कदम रख रहीं बालिकाऐं। कारण साफ है, सुरक्षा। भारत के अधिकतर गाँवों में बालिकाओं की शादियाँ जल्दी कर दी जाती हैं। इसके पीछे का एक कारण उनकी सुरक्षा भी रहता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि 2001 से 2011 तक बाल यौन शोषण या बलात्कार के 48,338 मामले दर्ज किये गये हैं। वर्ष 2001 में 2,113 मामले व वर्ष 2011 में 7,112 मामले दर्ज केये गये। लगभग 336प्रतिशत की बढ़ोतरी। अब ऐसे में स्वयं ही माता-पिता भय ग्रसित होकर या तो बालिकाओं की शादी कर देते हैं या उन्हें स्कूल की पढ़ाई से वंचित कर घर में ही महफूज़ मानते हैं। े
कुल मिलाकर तीन मुख्य बिन्दु समझ में आते हैं, शिक्षा, सुविधा और सुरक्षा।
एक अच्छी शिक्षा बालिकाओं को बेहतर भविष्य दे सकती है। सुविधाऐं उस शिक्षा की प्राप्ति में सहायक हो सकती हैं और सुरक्षा उन्हें निर्भय बनाकर पढ़ने की पूरी आजा़दी दे सकती है। 27 अप्रैल को पंचायत दिवस पर पंचायती राज को 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया है। गाँवों की पंचायतें निर्णय लेने में खुद की सक्षम होंगी। अगर इन्हीं पंचायतों को ही गाँवों में लड़कियों की शिक्षा, सुरक्षा व सुविधा मुहैया कराने के आदेश या अधिकार प्रदान कर दिये जायंे अथवा पंचायतें स्वयं ही बालिकाओं की पढ़ाई की बेहतरी के लिए कार्य करे तो किसी हद तक इस समस्या का समाधान हो सकता है।
बलिकाओं की बेहतर शिक्षा के लिए अभी उठाये जा रहे कदमों में अभी गुंजाइश है क्योंकि भारत गाँवों में बसता है और गाँवों में अभी स्त्री शिक्षा में समानता के स्तर मानसिकता में बदलाव आने में समय लगेगा। इस समस्या को भी केवल शिक्षा के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। पुरानी कहावत है, एक शिक्षित स्त्री घर के सभी सदस्यों को शिक्षित कर देती है। सही भी है। जरूरत है तो केवल उनका हौसले को पर देने की,अपना आसमान तो वे स्वयं बना ही लेती हैं। क्या पता, अगली कल्पना चावला या इंदिरा नूयी भारत के इन्हीं गाँवों से ही निकले।
गाँव कनेक्शन के 12/05/13 अंक में प्रकाशित 

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