Apr 1, 2015

तो काबिल होने के लिए पढ़िए..

अबे कितना पढ़ा तूने?  मुझे तो समझ ही नहीं आया कि शुरू कहाँ से करूँ. तूने तो सारा पढ़ लिया होगा न  ? नहीं यार , इतना पढ़ते होते तो यहाँ होते, हाँ पास होने की गारंटी है. बाकी और कुछ चाहिए भी नहीं. और सुन, गाय हमारी माता है.. हमको कुछ नहीं आता है.. और एक जानी पहचानी खिलखिलाहट भरी हँसी के साथ सब हँस पढ़ते है. पेपर देने से पहले ऐसे ही कुछ बातें करते हैं न हम. हाँ वैसे एग्जाम टाइम में बड़ा मज़ा आता है न ऐसे बोलने में.  लेकिन इस मज़े में क्या छुपा है आइये आपको बताते हैं. होता यूँ है कि जब हम खुद को बार बार दूसरों के सामने पढाई में कमज़ोर जताना चाहते हैं तो धीरे धीरे हम वाकई में कमज़ोर होते जाते हैं. हम हमेशा इसी बात पर जोर देते रहते हैं कि हमको कुछ नहीं आता है बजाय इस बात पर जोर देने के कि हाँ मुझे इतना आता है और इतना तो बहुत अच्छे से आता है. अगर अच्छे नंबर आ गए तो ठीक वरना हमने तो पहले ही कह दिया था कि हमे कुछ नहीं आता. इससे हम बेशक दूसरों के सामने बच जाएँ लेकिन खुद में हम आगे बढ़ना सीखना छोड़ देते हैं. अब आपको मेरी बात कुछ कुछ समझ में आने लगी होगी. किसी दोस्त के पूछने पर कि क्या ये तुमने पढ़ा है तो हम सीधे सीधे कहने के बजाय कि हाँ मैंने ये पढ़ा है, हमारा कहना होता है कि कहाँ यार.. कुछ नहीं पढ़ा. उसके बावजूद एग्जाम में अपना धर्म समझकर कॉपियों पर कॉपियां भरते चले जाते हैं और हमारा सारा जोर एग्जाम में अच्छे प्रतिशत लाने पर होता है और रिजल्ट आने के बाद हम दूसरों से ये सुनना पसंद करते हैं कि अच्छा.... तुमने तो कहा था कि तुम्हें कुछ नहीं आता लेकिन इतने अच्छे परसेंट कैसे आ गए और हम विजयी मुद्रा में बस मुस्कुरा देते हैं लेकिन हम उसके बावजूद भी ये नहीं कहना चाहते कि हाँ मुझे इस विषय में इतना आता है. समझ आया कुछ. चलिए अब थोडा और सीरियसली बात करते हैं..
आंकड़ों की मानें तो भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. ये संख्या यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. सरकार भी बच्चों की पढाई पर सरकारी बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करती है. सोचने वाली बात ये है कि हमारे पास जब इतने कॉलेज हैं, सुविधाएँ हैं, मौके हैं, डिग्रियां हैं और हर साल लाखों लोग इन डिग्रियों को हासिल भी कर रहे हैं, तो इतने पढ़े लिखे लोगों का देश होने के बावजूद दुनिया के धरातल पर हम अब भी पढ़े लिखे नहीं माने जाते हैं. भारत में डिग्री की वैल्यू कुछ यूँ है कि अगर कोई डिग्री नौकरी नहीं दिला पाती है तो वह बेकार है. इसीलिये हमारे यहाँ केवल डॉक्टर और इंजीनियर बनने को ही अच्छी पढाई माना जाता है लेकिन इकनोमिक टाइम्स के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. थोडा अजीब लगा न जानकर. एक और अजीब सी लगने वाली बात ये भी है कि हर साल पास होने वालों की संख्या इतनी ज्यादा है, इंजीनियर डॉक्टर की भरमार है फिर भी इस क्षेत्र में देश का नाम करने वालों की संख्या कम. क्यूँ? थोडा सा पीछे मुड़कर अपने पढाई करने के तरीके को देखेंगे तो आपका इसका जवाब मिल जायेगा. हम खुद को नंबर पाने की दौड़ में उलझाये रखना चाहते हैं. रटकर, नक़ल करके या कैसे भी करके बस पचहतर प्रतिशत से ज्यादा आ जाये. हमारे देश में केवल प्रतिशत की अंधी दौड़ में दौड़ने और एक अदद नौकरी पाने को ही सब कुछ माना जाता है. इसलिए नया लिखने या पढने की इच्छा या तो जन्म नहीं ले पाती या फिर हम उससे खुद ही किनारा कर लेते हैं और धीरे-धीरे ये हमारे पढ़ने और पढ़ाने का तरीका बन जाता है कि केवल नंबर ले आओ बाकी सब तो जुगाड़ करवा ही देती है और एक बार नौकरी लग जाये तो फिर पढ़ने की ज़रुरत ही क्या है और यही सोच हमे कुछ नया नहीं सीखने देती. आप खुद ही सोचिये कि जब हम किसी अच्छी किताब, मॉडल, थ्योरी या अविष्कार की बात करते हैं तो हमेशा विदेशी नामों से ही टकराते हैं. टीचर्स हों या स्टूडेंट्स, विदेशी लेखकों की किताबों को ही पढ़ते-पढ़ाते हैं. भारतीय नामों को तो ऊँगली पर गिना जा सकता है. रिसर्च के क्षेत्र में तो भारतीय नाम बहुत ढूंढने पर भी शायद नहीं मिल पाएंगे. कारण फिर वही.. पास होना और नौकरी पाना. यही हमारी जिंदगी का लक्ष्य बन जाता है और खुद को कमतर आँकने की हमारी आदत. बहुत सिंपल सी बात है हम जैसा खुद को दूसरों के सामने दिखायेंगे वैसा ही हम धीरे धीरे ख़ुद बनते भी जायेंगे और इस तरह से जो कुछ कर सकने की हम क्षमता रखते हैं वो भी नंबरों के पीछे भागने में वेस्ट हो जाएगी. इस नंबर दौड़ से तो किसी का भला होने से रहा तो जनाब बाबा रणछोड़ दास की सलाह मानिए. “नौकरी पाने के लिए नहीं बल्कि काबिल होने के लिए पढ़िए. सर्कस में तो शेर भी करतब दिखा लेता है लेकिन हम उसे वेल ट्रेन्ड कहते हैं वेल एजुकेटेड नहीं”. ज़रा सोचिये कितना अच्छा हो कि जब कोई हमसे पूछे कि तुम्हें कितना आता है और हम कहें कि गाय हमारी माता है ..इसीलिये ही हमे सब कुछ आता है.

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