Apr 5, 2015

नया हो अब जहाँ हमारा ..

बीबीसी पर औरतों से जुड़े कानूनों के बारे में एक खबर पढ़ी. आप भी एक नज़र डालिए.

दिल्ली में 2012 के निर्भया कांड के बाद दुनिया भर में भारत की थूथू हुई. लेकिन एक साल बाद ही कानून में एक नई धारा जोड़ी गई जिसके मुताबिक अगर पत्नी 15 साल से ज्यादा उम्र की है तो महिला के साथ उसके पति द्वारा यौनकर्म को बलात्कार नहीं माना जाएगा. सिंगापुर में यदि लड़की की उम्र 13 साल से ज्यादा है तो उसके साथ शादीशुदा संबंध में हुआ यौनकर्म बलात्कार नहीं माना जाता.

माल्टा और लेबनान में अगर लड़की को अगवा करने वाला उससे शादी कर लेता है तो उसका अपराध खारिज हो जाता है, यानि उस पर मुकदमा नहीं चलाया जाएगा. अगर शादी फैसला आने के बाद होती है तो तुरंत सजा माफ हो जाएगी. शर्त है कि तलाक पांच साल से पहले ना हो वरना सजा फिर से लागू हो सकती है. ऐसे कानून पहले कोस्टा रीका, इथियोपिया और पेरू जैसे देशों में भी होते थे जिन्हें पिछले दशकों में बदल दिया गया.

नाइजीरिया में अगर कोई पति अपनी पत्नी को उसकी 'गलती सुधारने' के लिए पीटता है तो इसमें कोई गैरकानूनी बात नहीं मानी जाती. पति की घरेलू हिंसा को वैसे ही माफ कर देते हैं जैसे माता पिता या स्कूल मास्टर बच्चों को सुधारने के लिए मारते पीटते हैं.

सऊदी अरब में महिलाओं का गाड़ी चलाना गैरकानूनी है. महिलाओं को सऊदी में ड्राइविंग लाइसेंस ही नहीं दिया जाता. दिसंबर में दो महिलाओं को गाड़ी चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. इस घटना के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संस्थानों ने आवाज भी उठाई. मिस्र के कानून के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को किसी और मर्द के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखता है और गुस्से में उसका कत्ल कर देता है, तो इस हत्या को उतना बड़ा अपराध नहीं माना जाएगा. ऐसे पुरुष को हिरासत में लिया जा सकता है लेकिन हत्या के अपराध के लिए आमतौर पर होने वाली 20 साल तक के सश्रम कारावास की सजा नहीं दी जाती.

ये दुनियां कितनी भी बदल जाये लेकिन औरतों को लेकर सोच शायद ही कभी बदले. बलात्कार शब्द कह देना जितना आसान होता है उतना ही मुश्किल है उसे समझना. ज़्यादातर लोग बलात्कार को केवल शारीरिक संबध के तौर पर देखते हैं. यह केवल महिलाओं की वर्जिनिटी का हनन है. दुनिया के ऐसे सभी महाशयों से में सिर्फ इतना कहना चाहूंगी के मन की पीड़ा समझना आपके बस की बात नहीं. आपसे समझने की उम्मीद करना ही बेमानी है.

पति ग़लती सुधरने के लिए पीट सकता है, लेकिन ग़लती तो पुरुष भी करते हैं तो औरत क्या करे, लोगों के हिसाब से वो चुप रहकर अपने पत्नी धर्म का पालन करे और बात को जाने दे. न ही हम गाडी चलायें न ही अपने अपहरण करने वाले को सज़ा दें.

लोगों का तो काम ही है बातें करना लेकिन जब क़ानून इस तरह की बात करे तो इससे होने वाली व्यथा का अंदाज़ा लगाना इन कानून बनाने वालों के लिए मुश्किल है.


ये इसलिए नहीं है कि आप हम पर तरस खाएं, जी नहीं, बिलकुल नहीं. सिर्फ आपको बताने के लिए कि  यदि आप हमें हमारे हक़ से दूर रखना जानते हैं तो हमने भी अपना हक छीनना सीखा है और वो हम करेंगे भी. पढेंगे, नौकरी करेंगे, आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करेंगे, स्वयं के निर्णय खुद लेंगे और अपने लिए ऐसी छत भी ज़रूर बनायेंगे जहाँ आपकी सड़ी-गली मानसिकता के कीड़े न पहुँच पायें. 


Apr 1, 2015

तो काबिल होने के लिए पढ़िए..

अबे कितना पढ़ा तूने?  मुझे तो समझ ही नहीं आया कि शुरू कहाँ से करूँ. तूने तो सारा पढ़ लिया होगा न  ? नहीं यार , इतना पढ़ते होते तो यहाँ होते, हाँ पास होने की गारंटी है. बाकी और कुछ चाहिए भी नहीं. और सुन, गाय हमारी माता है.. हमको कुछ नहीं आता है.. और एक जानी पहचानी खिलखिलाहट भरी हँसी के साथ सब हँस पढ़ते है. पेपर देने से पहले ऐसे ही कुछ बातें करते हैं न हम. हाँ वैसे एग्जाम टाइम में बड़ा मज़ा आता है न ऐसे बोलने में.  लेकिन इस मज़े में क्या छुपा है आइये आपको बताते हैं. होता यूँ है कि जब हम खुद को बार बार दूसरों के सामने पढाई में कमज़ोर जताना चाहते हैं तो धीरे धीरे हम वाकई में कमज़ोर होते जाते हैं. हम हमेशा इसी बात पर जोर देते रहते हैं कि हमको कुछ नहीं आता है बजाय इस बात पर जोर देने के कि हाँ मुझे इतना आता है और इतना तो बहुत अच्छे से आता है. अगर अच्छे नंबर आ गए तो ठीक वरना हमने तो पहले ही कह दिया था कि हमे कुछ नहीं आता. इससे हम बेशक दूसरों के सामने बच जाएँ लेकिन खुद में हम आगे बढ़ना सीखना छोड़ देते हैं. अब आपको मेरी बात कुछ कुछ समझ में आने लगी होगी. किसी दोस्त के पूछने पर कि क्या ये तुमने पढ़ा है तो हम सीधे सीधे कहने के बजाय कि हाँ मैंने ये पढ़ा है, हमारा कहना होता है कि कहाँ यार.. कुछ नहीं पढ़ा. उसके बावजूद एग्जाम में अपना धर्म समझकर कॉपियों पर कॉपियां भरते चले जाते हैं और हमारा सारा जोर एग्जाम में अच्छे प्रतिशत लाने पर होता है और रिजल्ट आने के बाद हम दूसरों से ये सुनना पसंद करते हैं कि अच्छा.... तुमने तो कहा था कि तुम्हें कुछ नहीं आता लेकिन इतने अच्छे परसेंट कैसे आ गए और हम विजयी मुद्रा में बस मुस्कुरा देते हैं लेकिन हम उसके बावजूद भी ये नहीं कहना चाहते कि हाँ मुझे इस विषय में इतना आता है. समझ आया कुछ. चलिए अब थोडा और सीरियसली बात करते हैं..
आंकड़ों की मानें तो भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. ये संख्या यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. सरकार भी बच्चों की पढाई पर सरकारी बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करती है. सोचने वाली बात ये है कि हमारे पास जब इतने कॉलेज हैं, सुविधाएँ हैं, मौके हैं, डिग्रियां हैं और हर साल लाखों लोग इन डिग्रियों को हासिल भी कर रहे हैं, तो इतने पढ़े लिखे लोगों का देश होने के बावजूद दुनिया के धरातल पर हम अब भी पढ़े लिखे नहीं माने जाते हैं. भारत में डिग्री की वैल्यू कुछ यूँ है कि अगर कोई डिग्री नौकरी नहीं दिला पाती है तो वह बेकार है. इसीलिये हमारे यहाँ केवल डॉक्टर और इंजीनियर बनने को ही अच्छी पढाई माना जाता है लेकिन इकनोमिक टाइम्स के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. थोडा अजीब लगा न जानकर. एक और अजीब सी लगने वाली बात ये भी है कि हर साल पास होने वालों की संख्या इतनी ज्यादा है, इंजीनियर डॉक्टर की भरमार है फिर भी इस क्षेत्र में देश का नाम करने वालों की संख्या कम. क्यूँ? थोडा सा पीछे मुड़कर अपने पढाई करने के तरीके को देखेंगे तो आपका इसका जवाब मिल जायेगा. हम खुद को नंबर पाने की दौड़ में उलझाये रखना चाहते हैं. रटकर, नक़ल करके या कैसे भी करके बस पचहतर प्रतिशत से ज्यादा आ जाये. हमारे देश में केवल प्रतिशत की अंधी दौड़ में दौड़ने और एक अदद नौकरी पाने को ही सब कुछ माना जाता है. इसलिए नया लिखने या पढने की इच्छा या तो जन्म नहीं ले पाती या फिर हम उससे खुद ही किनारा कर लेते हैं और धीरे-धीरे ये हमारे पढ़ने और पढ़ाने का तरीका बन जाता है कि केवल नंबर ले आओ बाकी सब तो जुगाड़ करवा ही देती है और एक बार नौकरी लग जाये तो फिर पढ़ने की ज़रुरत ही क्या है और यही सोच हमे कुछ नया नहीं सीखने देती. आप खुद ही सोचिये कि जब हम किसी अच्छी किताब, मॉडल, थ्योरी या अविष्कार की बात करते हैं तो हमेशा विदेशी नामों से ही टकराते हैं. टीचर्स हों या स्टूडेंट्स, विदेशी लेखकों की किताबों को ही पढ़ते-पढ़ाते हैं. भारतीय नामों को तो ऊँगली पर गिना जा सकता है. रिसर्च के क्षेत्र में तो भारतीय नाम बहुत ढूंढने पर भी शायद नहीं मिल पाएंगे. कारण फिर वही.. पास होना और नौकरी पाना. यही हमारी जिंदगी का लक्ष्य बन जाता है और खुद को कमतर आँकने की हमारी आदत. बहुत सिंपल सी बात है हम जैसा खुद को दूसरों के सामने दिखायेंगे वैसा ही हम धीरे धीरे ख़ुद बनते भी जायेंगे और इस तरह से जो कुछ कर सकने की हम क्षमता रखते हैं वो भी नंबरों के पीछे भागने में वेस्ट हो जाएगी. इस नंबर दौड़ से तो किसी का भला होने से रहा तो जनाब बाबा रणछोड़ दास की सलाह मानिए. “नौकरी पाने के लिए नहीं बल्कि काबिल होने के लिए पढ़िए. सर्कस में तो शेर भी करतब दिखा लेता है लेकिन हम उसे वेल ट्रेन्ड कहते हैं वेल एजुकेटेड नहीं”. ज़रा सोचिये कितना अच्छा हो कि जब कोई हमसे पूछे कि तुम्हें कितना आता है और हम कहें कि गाय हमारी माता है ..इसीलिये ही हमे सब कुछ आता है.

Mar 8, 2015

गुणवत्ता को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता


आंकडें बताते  है कि भारत धीरे धीरे साक्षर हो रहा है. आंकड़े कहते हैं कि आल इंडिया स्कूल एजुकेशन सर्वे के अनुसार भारत में प्राइमरी से हायर सेकंड्री तक कुल मिलाकर 1,306,992 स्कूल हैं. यूजीसी के अनुसार कुल 693 यूनिवर्सिटीज हैं जिनमे 45 सेंट्रल, 325 राज्य, 128 डीम्ड और 195 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज हैं. भारतीय सरकार ने 2014-2015 बजट में सर्व शिक्षा अभियान के लिए लगभग 28,635 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा था. 100 करोड़ वर्चुअल कक्षाओं के लिए 500 नए आईआईएम खोलने के लिए और इस साल के बजट में भी स्कूल शिक्षा के लिए 42,219.50 करोड़ रूपए दिए हैं और उच्च शिक्षा के लिए 26855 करोड़.लेकिन गुणवत्ता को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता है |गुणवत्ता बहुआयामी होती है न की एक आयामी जैसा की भारत में शिक्षा के संदर्भ में लगता है .
ये आंकड़े शिक्षा के लिए दी जा रही सुविधाओं की एक अच्छी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं लेकिन इस तस्वीर का दूसरा रुख़ कुछ यूँ है कि टाइम्स द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कराये गए एक सर्वे में हमारे यहाँ के संस्थान विश्व के 200 शिक्षण संस्थानों में भी जगह बनाने में असफ़ल रहे. इकनोमिक टाइम्स के अनुसार भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. चौकाने वाली बात ये है कि यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ये आंकड़ा ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. इसी अख़बार के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. आंकड़े बड़ी ख़ूबसूरती से हमे आइना दिखा रहे हैं. दोनों पहलुओं का दुनियां के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने निष्कर्ष ये निकालता है कि  भारत में केवल हस्ताक्षर कर सकना साक्षर होने की निशानी है और एक नौकरी पा जाना उच्च शिक्षित होने की. उच्च शिक्षा में कहने के लिए हमारे यहाँ उच्च शिक्षा के बड़े-बड़े सरकारी संस्थान हैं जहाँ एडमिशन के लिए छात्रों के माता-पिता फीस के अलावा कोचिंग और डोनेशन मिलाकर लाखों खर्च कर देते हैं. साथ ही साथ कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे प्रबंधन संस्थान हर साल लाखों डिग्रियां बाँटते हैं यानी हर साल लाखों में एमबीए इन संस्थानों से निकलते हैं लेकिन पढाई में गुणवत्ता की डिग्री देने वाला एक भी संस्थान नहीं है. हमारे यहाँ शिक्षण संस्थानों की नीव में केवल सीमेंट बालू और ईंटें हैं, शिक्षा को बेहतर करने का सपना नहीं. यही वजह है कि संख्या में  हम आगे है चाहे वो हर साल पास होने वाले छात्र हों या फिर सरकारी मदद लेकिन शिक्षा में गुणवत्ता के स्तर में हम अभी भी कतार में पीछे हैं. ज़रा सोचिये कि हमारे देश में अध्यापक भी पढने और पढ़ाने के लिए विदेशी लेखकों की किताबों का अध्ययन करते हैं और अपने छात्रों को इन्ही पुस्तकों को पढने की सलाह देते हैं ख़ासकर कि उच्च शिक्षा में. कारण साफ़ है कि दुनिया लोहा माने ऐसी किताबें लिखने के लिए भी सीखने की ललक, जूनून और धैर्य की आवश्यकता होती है और चूँकि हमारे देश में व्यक्ति का आंकलन उसके पैकेज से किया जाता है न कि उसके ज्ञान से और इसी पैकेज को पाने के लिए नंबरों की अंधाधुंध दौड़ में बस छात्र दौड़ेते चले जाते हैं बिना ये जाने कि ये रास्ता सिर्फ उन्हें एक सामान्य व्यक्ति ही बनाने की और ही ले जा पाता है. आविष्कारों के नाम पर हम केवल “जीरो” पर अटके हैं. दुनिया में जब सफल भारतीयों की जब बात की जाती है तो हमारे पास केवल उन एनआरआई भारतीयों का हवाला देने के अलावा कुछ और नहीं होता है जिन्होंने सफलता के झंडे गाड़े. याद रहे कि इनकी केवल पैदाइश या माता या पिता भारतीय मूल के होते हैं लेकिन उनकी शिक्षा विदेशी मानकों के अनुरूप ही हुई होती है और वे दुनिया को और खुद को उसी चश्मे से देखते हैं. हमारा जोर उनका नाम इस्तेमाल करने पर तो होता है लेकिन खुद के मानकों को सुधारने पर नहीं. इसका प्रमाण ये है कि आज भी अगर यहाँ के छात्रों को मौका दिया जाये तो वे यहाँ पढने की बजाय विदेश में पढना पसंद करेंगे और फोर्ब्स के अनुसार लगभग 4.6 लाख छात्र हर साल पढने के लिए विदेश जाते हैं. अगर हमारे देश में शिक्षा का यही हाल रहा तो भविष्य में यहाँ के छात्रों की गिनती उन जमूडों में होगी जिनका दिमाग कुंद है और जो बस डंडे से हांके जा रहे हैं एक अदद नौकरी पाने के लिए. उसके बाद शायद सभ्यता और संस्कृति भी भारत की लुटती इज्ज़त न बचा पाए. 

Mar 4, 2015

प्यार तो बस प्यार ही रहता है..


जैसे जैसे फागुन की गुलाबी बयार अंगड़ाई लेने लगती है वैसे वैसे मेरा मन अपने प्यार से लिपटने को मचल उठता है. यूँ तो साल भर मैं सिर्फ सबके ज़ेहन में होती हूँ लेकिन मेरे प्रीतम के आते ही मेरा रूप रंग संवारकर मेरा नया जन्म होता है. मेरा होना सिर्फ तुमसे ही है. मुझे मेरे हमेशा हमेशा के प्यार होली से मिलने का सोच कर गुदगुदी होती है और मैं भी तड़प उठती हूँ होली से मिलने के लिए. प्रिय होली, तुम्हारे जाने के बाद जब डब्बों में टूटे टुकड़ों में रह जाती हूँ तब कितना कुछ सोचती हूँ. तुम साल में सिर्फ एक बार आते हो और किस्मत देखो मेरी याद भी लोगों को तभी आती है. अच्छा है ..वैसे भी प्रेम के इस त्यौहार में हमे अपने प्यार को महसूस करने का मौका जो मिल जाता है. आते तो तुम प्यार लेकर हो लेकिन साल भर की तन्हाई और इंतज़ार देकर चले जाते हो. लेकिन मैं तुमसे तब भी नाराज़ नहीं होती क्यूंकि जब तुम्हारे बारे में सोचती हूँ तो एक नयी ऊर्जा के अनुभव के साथ मेरा जी करता है कि हर बरस तुमसे यूँ मिलने के लिए तड़प बनी रहे. इसमें जो मज़ा है वो शायद साथ रहने में न हो. अरे हाँ सुनो.. इस बार मेरा तोहफा लाना मत भूलना. तुम्हें याद है न पिछली बार तुम भूल गए थे. तोहफ़े में जो ढेर कहानियां तुम मेरे लिए लाते हो , उन अनमोल कहानियों को समेत कर में हर रोज़ तुममे ही जीती हूँ. याद है जब हम उस सुहानी शाम को नदी के किनारे तेज़ हवाओं में हम साथ थे.. मैं तो टुकड़ों में बिखर ही जाती अगर तुमने अपने गीले रंगों से मुझे भिगोया न होता. तब एक कहानी तुमने खुद मुझे सुनाई थी.. तुमने मुझे बताया था कि तुम्हारे आने पर एक लड़ने ने राह चलते दूसरे लड़के को रंग में सराबोर किया था.. कितना खिलखिला कर हँसा था वो पर उसे क्या पता था कि उसकी वो  खिलखिलाहट उसके और उसके परिवार के लिए हमेशा का दर्द बन जाएगी. वो दूसरा लड़का सिर्फ अपना मजाक बनने की वजह से कितना आहत हुआ था काश वो पहला लड़का समझ सकता. अपने साथ लाठी लिए आये कुछ लोगों के साथ उसने अपने ऊपर रंग गिराने की सज़ा हमेशा के लिए उसका पैर तोड़कर दी. मेरे रोंयें रोंयें काँप गए थे ये सुनकर और याद है वो वाली कहानी जिसमे सिर्फ रंग डालने की वजह से पूरा शहर दंगों से कराह उठा था. मुझे तो बस इतना समझ आया था कि इंसान ने इंसान पर रंग डाला था लेकिन तुमने ही मुझे बताया था कि किसी हिन्दू ने किसी मुसलमान पर रंग डाला था. इस बात पर में तुमसे नाराज़ भी हुई थी क्यूंकि तुमने मुझे कभी नहीं बताया कि ये हिन्दू या मुसलमान क्या होता है. तुम हमेशा कहते रहे कि अपने को हिन्दू समझो पर कैसे, मैंने तो खुद को ख़ुशी ओर मिठास का प्रतीक समझा था.  मैं तो बस यही समझती हूँ कि मेरा आना लोगों को ख़ुशी देता है. पर एक बात बताओ क्या इस प्रेम के त्यौहार को भी लोग अपने ग़ुस्से से छोटा समझते हैं. क्या लोग प्रेम को भी छोटे-बड़े, मज़हबी और गैर मज़हबी, ऊँचे-नीच, अमीर-गरीब जैसे तराजुओं में तोलते हैं. तुमसे तो मुझे बस यूँ ही प्यार हो गया था न और प्यार तो किसी रूप में हो, बस प्यार ही रहता है. वहां इन सब का क्या काम. खैर छोडो मैं भी क्या लेकर बैठ गयी. सही कहते हो तुम, “जब भी तुम बोलना शुरू करती हो तुम्हारा मुंह बंद ही नहीं होता. टेपरिकॉर्डर की तरह बस बजती चली जाती हो.” पर तुम्हारे इस तरह मुझे छेड़ने में जो प्यार होता है न बस में उसी को तुम्हारे चेहरे पर देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे दुनिया भर के सारे सुख मेरी झोली में आ गिरे हों जैसे. सुनो इस बार वो वाली कहानी सुनाना न जब मेरे जैसी एक प्रेम दीवानी को उसके प्यार से मिलाया था तुमने. तुम्हारे रंगों ने न जाने क्या असर किया उस दीवानी पर , बस वो उसकी होकर रह गयी. शायद रंगों में छुपी उसके प्यार की छुअन का था वो असर. वो कैसे शरमाई होगी न. खुद से ही लजाई होगी. उसे देखकर तुम्हें मेरी याद आई होगी ना. आई ही होगी. कहो न कहो पर साल भर तुम भी मुझसे मिलने के लिए ऐसे ही मचलते हो न. अच्छा सुनो इस बार पड़ोस वाली रेहाना आंटी भी आयीं थी मुझे सँवारने के लिए. पदमा आंटी ने उनकी ऐसी आवभगत की कि पूछो मत. वो कह रहीं थीं कि अब वक़्त बदल रहा है. अब सब एक जैसा सोचने लगे हैं. कोई अब भेदभाव नहीं करता. ये तो कुछ ऊंची कुर्सी वालों की देन है. तुम्हारे आने पर जब कोई ऐसी ख़ुशियाँ मनाता है तो मेरा मन करता है उसके मुंह में घुलकर उसकी स्वादेन्द्रियों को ऐसे मीठे स्वाद का अनुभव कराऊँ कि वो मिठास साल भर के लिए बनी रहे. पता है इस बार मैंने यही सोचा है हमारे लिए. तुम प्यार की गुलाबी फुहारें बरसाना और मैं अपनी मिठास से इस प्यार को दुगना कर दूंगी. तुम्हारे आने पर सब और सिर्फ प्रेम ही प्रेम हो. न ही कोई झगडे न ही कोई बुरा माने. और ये मैं करूँ भी क्यूँ न तुमसे प्यार जो है मुझे. तुम्हें जाने देने का दिल नहीं करता लेकिन तुम जाओगे वापस आने के लिए, अपने साथ प्रेम की ढेरों कहानियां लिए और हर साल की तरह तुम्हारी गुझिया तुम्हें हर घर की रसोई में तुम्हारा इंतज़ार करते हुए ही मिलेगी.  

Feb 21, 2015

युवाओं को समझनी होगी ज़िम्मेदारी

आज से तकरीबन दस साल पहले मोबाइल हमारी जिंदगी में चुपके से आया. तब तक किसी ने भी नहीं सोचा था कि ये हमारी जिंदगी का बेहद अहम् हिस्सा बन जायेगा. पुश बटन से शुरू हुआ सफ़र आज टच स्क्रीन तक आ पहुंचा है. मोबाइल का रूप रंग रूप भी बदला. तकनीक जब अपने साथ कुछ खूबियाँ लाती है तो चुनौतियाँ भी लाती है और तकनीक का प्रयोग में प्राथमिक उपभोक्ता युवाओं को माना जाता है. भारत युवाओं का देश है और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में ग्लोबल सिटिज़न फेस्टिवल के दौरान एक रॉक कॉन्सर्ट में भाषण के दौरान उनकी इस ताकत का ज़िक्र भी किया है, “ युवा भविष्य है. जो वह आज करेंगे वह भविष्य का निर्धारण करेगा. मुझे युवाओं में उम्मीद दिखती है.  बुद्धिमत्तासे अधिक बलवान आदर्शवाद, अविष्कार , ऊर्जा और युवाओं का “ कर सकने” वाला नजरिया है. मेरी ऐसी उम्मीद भारत के लिए है क्यूंकि आठ सौ मिलियन युवा देश को बदलने के लिए कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं.”
अब मोबाइल एप्लीकेशन विश्लेषक कंपनी फ्लरी की एक रिपोर्ट पर गौर करते हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल का एक हद से ज्यादा इस्तेमाल युवाओं को लती बना रहा है. मोबाइल में विभिन्न एप्लीकेशन को बेवजह बार बार खोलने की आदत एक प्रकार की लत को जन्म से रही है. फ्लरी द्वारा किये गए एक शोध के मुताबिक जो लोग अपने मोबाइल में किसी भी एप्लीकेशन को साठ बार से अधिक बार खोलते हैं ऐसे लोग इस लत के शिकार की श्रेणी में आते हैं. मोबाइल को हर वक़्त साथ रखना और उसके ना मिलने पर बेचैनी होना इसके लक्षण हैं.
अगर ऊपर लिखी दोनों बातों पर गौर करें तो डराने वाला सच यह निकल कर आता है कि जिन युवाओं से भारत देश का नया भविष्य रचने की उम्मीद की जा रही है वह अपना बहुमूल्य समय इन एप्लीकेशन में उलझकर गँवा रहे हैं. तथ्य बताते हैं कि इस लत से ग्रसित लोगों का जो आंकड़ा पिछले वर्ष में 7.9 करोड़ था इस वर्ष वह बढ़कर 17.6 करोड़ हो गया है. भारत के मामले में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्यूंकि भारत में युवाओं की संख्या अधिक होने के कारण यह स्मार्टफोन के लिए एक उपयुक्त और बड़ा बाज़ार है. यहाँ मोबाइल धारको की संख्या तेज़ी से सीढियां चढ़ रही है. हम पूरे विश्व में मोबाइल उपभोक्ताओं में दूसरा स्थान रखते हैं. भारत में मोबाइल एप  में प्रमुखता से फेसबुक और व्हाट्सएप आते हैं. आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर के व्हाट्सएप उपभोक्ताओं में दस प्रतिशत केवल भारतीय हैं. इसका अर्थ यह निकलता है कि भारतीय युवा इस लत के तेज़ी से शिकार हो रहे हैं. यह लत कई प्रकार की बीमारियों और शारीरिक अक्षमताओं को भी जन्म दे रही है. एकाग्रता की कमी, आँखों का धुंधलापन, इनसोम्निया आदि बीमारियों के होने का कारण भी आजकल मुख्यतया स्मार्टफ़ोन ही है. भारत को दुनिया भर में एक मुख्य बाज़ार के रूप में जाना जाता है. दुनियां भर के देशों के लिए यहाँ व्यापार करना सुलभ है क्यूंकि उपभोक्ताओं के रूप में उन्हें युवाओं की एक अच्छी जमात मिल जाती है और अपने उत्पादों के लिए लुभावने विज्ञापन देकर उपभोक्ताओं की एक अच्छी संख्या जमा कर लेते हैं. यदि स्मार्टफ़ोन की मामले में बात करें तो यह बात सिद्ध होती प्रतीत होती है क्यूंकि आजकल अधिकतर युवा एक से ज्यादा स्मार्टफ़ोन रखते हैं. मोबाइल में इन्टरनेट की सुलभता भी इस लत के जन्म के मुख्य कारणों में से एक है. मोबाइल कपनियों के भर-भर के मुफ़्त दिए जाने वाले डाटा प्लान की वजह से भी स्मार्टफोन का उपयोग बढ़ा है. तकनीक का अविष्कार कार्य की सुगमता के लिए किया गया था और इसी सोच को साथ लेकर इसका विकास हुआ लेकिन तकनीक के प्रयोग में एक संतुलन की आवश्यकता होती है जिससे कि आप बिना किसी लत का शिकार हुए तकनीक का आनंद ले पायें.

विश्व मंच पर भारत की पुनर्प्रतिष्ठा में युवाओं की बहुत बड़ी भूमिका है. इस प्रगतिशील देश कहे जाने वाले भारत को अभी दुनिया के धरातल पर सुनहरे अक्षरों में अपना नाम लिखना अभी बाकी है और इसका दारोमदार युवाओं के कंधे पर है. आज के युवा वर्ग को,  जिसमें देश का भविष्य निहित है, और जिसमें जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं, अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ लेना चाहिए. भारत के मुखिया के साथ आम लोग भी उम्मीद भरी आँखों से इस देश के सुनहरे भविष्य के सपने बुन रहे हैं. अब युवाओं को यह स्वयं ही समझना होगा कि अपने भविष्य को उन्हें किस ओर ले जाना है. 

Feb 19, 2015

हमारी पहचान सिर्फ हमसे है..

गाने सुनने का शौक तो सभी को होता है. आजकल लड़कियों को एक गाना खूब भा रहा है.. चिट्टियाँ कलाइयाँ वे ओ बेबी मेरी चिट्टियाँ कलाइयाँ वे.. रेडियो से लेकर टीवी सब जगह इस गाने को बेहद पसंद किया जा रहा है. थोड़ा फ्लेशबैक मे चलते हैं. ऐसा ही एक गाना मुझे याद आ रहा है .. गोरी हैं कलाइयाँ , तू लादे मुझे हरी हरी चूडियाँ.. अब आप सोच रहे होंगे कि इन दोनों गानों मे क्या कनेक्शन है. चलिए मैं बता देती हूं.. दोनों ही गाने अपने समय के बेहतरीन गाने हैं पर दोनों ही गानों मे एक बात सोचने वाली है कि दुनिया बदल गयीदुनिया के नियम क़ानून बदल गएलेकिन लड़कियों को लेकर गीतकारों ओर समाज की सोच जस की तस है. दोनों ही गानों मे लड़की अपनी ज़रूरत के लिए अपने साजन पर ही निर्भर है. अब यहां सवाल ये उठता है कि यदि आज की नारी इतनी सशक्त है कि अपने निर्णय खुद ले सकती हैएक वक्त में जॉब और घर दोनों सम्हाल सकती है तो फिर क्यों फिल्मों मे उन्हें कमतर आँका जाता है. एक वक़्त था जब सिनेमा में हीरोइन केवल हीरो के पीछे छिपने और गाना गाने का काम करती थीं. समय बदलता गया. हीरोइन गुंडों से लड़ने लगीलहंगे और साड़ी छोड़कर पैंट पहनने लगी लेकिन फिर भी बिना हीरो के उसकी जिंदगी अधूरी होती. उसके बाद महिलाओं को केंद्र में रखकर फिल्मे बनने लगीं. महिलाओं की समस्याओं को प्रमुखता से उठाया गया लेकिन बात आज भी वही है. खुलकर अपनी ज़रूरतों का इज़हार करने और फिल्मों में सशक्त रूप में दिखाए जाने के बावजूद अभी भी शॉपिंग और पिक्चर दिखाने की ड्यूटी केवल हीरो की ही है. कहना ग़लत न होगा कि समाज मे जनमत का निर्माण करने मे फिल्मों की एक बड़ी भूमिका है. फिल्मे बदलाव का एक रास्ता दिखाती हैं लेकिन गीतकार जब फिल्म की नायिका को सोच कर गाने लिखता है तो अभी भी वही अठारह वीं शताब्दी की नायिका की ही झलक मिलती है जहां वे अपने होने वाले पति या अपने साजन से खुद की इच्छाओं की पूर्ति करने की अपेक्षा करती हुई दिखाई जाती हैं.
ज़मीनी हकीकत इससे कहीं अलग है. हमारे देश मे इन्द्रा नूईसानिया मिर्ज़ा,साहना नेहवालचंदा कोचरअरुंधती भट्टाचार्य जैसी महिलाएं हैं जो सशक्त महिलाओं का नेतृत्व करती हैं. ये महिलाएं देश की प्रगति मे अनवरत अपना योगदान दे रही हैं. ओईसीडी इकनोमिक सर्वे ऑफ़ इंडिया के मुताबिक भारत में महिला उद्यमियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. विशेषकर उत्पादन के क्षेत्र में जहाँ यह हिस्सेदारी चालीस प्रतिशत के आसपास है. एक समान समाज के लिए इसे एक अच्छी शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है. एक वक़्त था जब आधी आबादी देश की जीडीपी में बहुत अधिक हिस्सेदारी नहीं रखती थी. लेकिन अब महिलायें भी टैक्स अदा करने वालों की लिस्ट में बढ़ती जा रही है. जब समाज में इतना बदलाव आ गया तो सिनेमा के गाने वहीँ क्यों हैं. शायद यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है लेकिन बड़ा मुद्दा ये है कि अगर महिला सशक्त हो तो पूरी तरह से हो. समाज में भी और फिल्मों में भी. आधी चीज़ों में वह सशक्त कहलाये और बाकी आधी में निर्भरयह तो ग़लत होगा न. अगर समाज बदल रहा है तो महिलाओं का अपनी जिंदगी को देखने का यह दृष्टिकोण भी बदलना चाहिए. लड़कियां खुद को नए नज़रिए से देखना शुरू करें जहाँ वे किसी की प्रेमिका और पत्नी होने के अलावा भी अपनी पहचान रखती हैं. वे भी टैक्स अदा करती हैंदेश के आर्थिक विकास में अपना योगदान देती हैं और सिर्फ़ होममेकर ही नहीं एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का भी फ़र्ज़ अदा करती हैं. आप बदलेंगे तो समाज बदलेगा और धीरे धीरे फिल्मों  के गाने के अंदाजे बयां भी बदलेंगें  और फिर ऐसे गाने सुनते वक्त मेरी जैसी किसी लडकी के मन में ये सवाल नहीं उभरेगा कि लड़कियां किसी लड़के को खुद क्यूँ कुछ नहीं दे सकती वे हमेशा मांगती क्यों रहती हैं तो मेरी जैसी आज की भारत की लड़कियां अपना हक़ मांग कर नहीं छीन कर लेंगीं |क्यों आपको क्या लगता है ?


Feb 17, 2015

अधिकारों पर बुद्धजीवियों की अलग अलग राय

पेरिस में हुए एक मैगज़ीन पर हमले के बाद फिर से पुरानी बहस छिड़ गयी है कि बोलने के अधिकार की आज़ादी का कितना उपयोग होना चाहिए और उसकी क्या सीमायें होनी चाहिए. ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यह कहकर विवाद को और बढ़ा दिया है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत किसी भी धर्म की भावनाओं को आहत किया जा सकता है जबकि पोप फ्रांसिस का कहना है कि किसी भी कारण से किसी धर्म का अपमान ग़लत है. दुनिया भर के बुद्धिजीवियों की इस मुद्दे पर अलग अलग राय बन रही है. ऐसा नहीं है कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल पहली बार खड़े हुए हैं.  लेखिका तसलीमा नसरीन अपनी अभिव्यक्ति के रूप में किताब लिखने के बाद से देश निकाला झेल रही हैं. यदि भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो चित्रकार एम एफ हुसैन भारत में पदम् श्री, पदम् भूषण और पदम् विभूषण से सम्मानित हुए और राज्य सभा के लिए भी नामित किये गए. हिन्दू देवियों के आपत्तिजनक चित्र बनाने पर उन्हें जान बचाने के लिए भारत छोड़ कर क़तर की शरण लेनी पड़ी. भारत में ही दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू को अपनी बेबाक  बयानबाज़ी के लिए लोगों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ा. सोशल मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा है. बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार पर मुंबई की रहने वाली 2 लड़कियों को शिव सेना के एक बड़े अधिकारी के कहने पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने बाल ठाकरे की मृत्यु पर मुंबई बंद का विरोध किया था.  सवाल वही है कि हम कितना बोलें और कितना न बोलें . क्या सरकार इस बात का निर्णय लेगी या फिर सीमायें हम खुद चुनेंगे. भारतीय संविधान में हमे छः मूल अधिकार दिए गए हैं जिनमे वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी है और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी. धर्म निरपेक्ष देश होने के नाते यहाँ सभी धर्मो का सम्मान करना अनिवार्य है. भारत में भी गाहे बगाहे धार्मिक अपमान के मुद्दे उठते रहते हैं. हाल ही में आयी फिल्म पीके पर भी विवादों का साया रहा. आमिर खान के मुसलमान होने के कारण उन पर सिर्फ हिन्दू धर्म में आडंबर दिखाए जाने व बाकी धर्मो पर बात न करने के आरोप लगे. यह फ़िल्म राजकुमार हिरानी की थी और फ़िल्मकार व्यावसायिक फ़ायदे को ध्यान में रखते हुए समाज को सन्देश देता है और कहना ग़लत न होगा कि भारत में हाल ही में कई पाखंडी बाबाओं के मामले देखने को मिले हैं. हालांकि कोई भी धर्म ऐसे पाखंडियों से अछूता नहीं है.  खैर मुद्दा यह फ़िल्म नहीं है, मुद्दा ये है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन केवल धार्मिक मामलों में ही लागू होता है? क्या धार्मिक मामलों पर इसलिए नहीं बोला जाना चाहिए क्यूंकि उससे किसी समुदाय विशेष की भावनाएं आहत होती है या फिर धार्मिक भावनाओं के अलावा भी इस अधिकार के उल्लंघन को देखा जाना चाहिए और इसकी सीमाओं का निर्धारण होना चाहिए? यदि निर्धारण होगा तो कौन इसकी सीमायें निर्धारित करेगा?

सवाल कई हैं और इन सवालों का हल भी संविधान के पास ही है. संविधान में मूल अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों की भी बात की गयी है. मौलिक कर्तव्यों में से एक कर्तव्य ये भी है कि नागरिक देश में सभी धर्मों के सम्मान करते हुए भाईचारा बना कर रखेंगे और एक कर्तव्य ये भी है हिंसा का त्याग करते हुए जान माल को हानि नहीं पहुंचाएंगे. ऊपर लिखी बातों को कहने का तात्पर्य  बिलकुल स्पष्ट है कि कोई भी अधिकार अपने साथ कुछ कर्तव्यों को लेकर आता है. यदि हमे अधिकार मिले हैं तो साथ ही कर्तव्यों का पालन करना भी अनिवार्य है. यदि हम अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी तरफ हमारा कर्तव्य भी है कि हम सभी धर्मों का भी सम्मान करें. देश की अखंडता को बनाये रखें. बोलने की आज़ादी पर रोक लगाना सांस लेने पर रोक लगाने जैसा होगा लेकिन यदि स्वयं ही खुद के लिए बोलने की सीमायें निर्धारित कर ली जाएँ तो शायद यह इतना मुश्किल भी नहीं होगा. स्वयं के बुद्धि-विवेक का प्रयोग करते हुए यदि हम उतना ही बोलें जितना ज़रूरी है तो शायद मुश्किलें कुछ हद तक कम हो सकती हैं. हमारे पास बोलने की आज़ादी हो, लिखने की आज़ादी हो लेकिन जो देश की अखंडता को प्रभावित करते हुए देश को छोटे-छोटे धार्मिक या सामाजिक खंडों में हमेशा के लिए विभाजित कर दे, ऐसे शब्द लिखने और बोलने की आज़ादी नहीं होना ही अच्छा है.