Apr 1, 2014

बेख़बर आज़ाद जीना है मुझे...



































फिल्मों में ये देखकर कि किस तरह हीरो बना  एक आम आदमी इतने सारे बुरे लोगो पर भारी पड़ता है. बहुत अच्छा लगता है जब वो भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ लड़ता है. अपने परिवार की रक्षा करता है जाहिर है किसी भी आम आदमी को ये देखकर अच्छा ही लगेगा कि कोई तो है जो अच्छा सोचता है और करता है. फिल्म में ही सही.नहीं नहीं मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूँ. मैं बस आप सभी से अपने कुछ ओब्ज़र्वेशन शेयर करना चाहती हूँ. जो काम अक्सर  फिल्म मैं एक एक हीरो करता है  अगर वही काम एक एक आम लड़की करना चाहे, मसलन लॉन्ग ड्राइव पर जाना दोस्तों के साथ देर रात यूँ ही मटरगश्ती करना,अपने फैसले खुद लेना और जिन्दगी अपनी शर्तों पर जीना.न नहीं कर सकती.
कहा जाता है कि फिल्मे समाज का आइना होती है. बहुत याद करने पर याद आता है कि उँगलियों पर गिनी जानी वाली कुछ फ़िल्में ही ऐसी बनी हैं जिसमे किसी महिला चरित्र को पुरुषों से लड़ते दिखाया गया हो. अब बलात्कार को ही लें किस तरह फ़िल्में जेंडर स्टीरियो टाइपिंग को बढ़ावा देती हैं और हम उसे समाज का सच मान लेते हैं.किसी भी समाज में बलात्कार की जगह नहीं होनी चाहिए और दुर्भाग्य से ऐसा होता भी है तो दोषी स्त्री मानी जाती है और वास्तविक दोषी अपनी मर्दानगी का डंका पीटते हैं. महिला चरित्र खुदखुशी कर लेती है या फिर समाज के तानो का शिकार तब तक होती है जब तक कोई सहृदय पुरुष उसकी ज़िम्मेदारी नहीं उठा लेता या उससे शादी नहीं कर लेता.
अब सवाल ये है कि हम अभी भी ऐसे ही समाज का हिस्सा ही  क्यों हैंक्यों अभी भी महिलाओं के ख़ुशी से जीने के अधिकार एक पुरुष के हाथ में हैं.बात केवल इतनी सी है कि महिलाओं के लिए प्रथाओ और परम्पराओं को बनाने वाले पुरुष ही हैंमहिलाओं के लिए सभी तरह के कानून बनाने वाले पुरुष हैं. परिवार में उनकी जगह का निर्णय लेने वाले भी पुरुष हैं. महिलाओ के अधिकारों की आवाज़ सुनने वाले भी पुरुष हैं.गवर्नेंस में महिलाओं की भागीदारी समाज में महिलाओं की संख्या के मुकाबले नगण्य है जो हैं भी उनके बारे में आमतौर पर माना जाता है कि वो किसी पुरुष की कृपा पर ही राजनीति में आयी हैं . यानि एक आम महिला को अपने आप को साबित करने के लिए पुरुषों के मुकाबले बार बार अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है .संसद में महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत आरक्षण की मांग भी चौदहवीं लोकसभा में अनसुनी रह गयी  जब समाज में महिलाओं के लिए निर्णय लेने का अधिकार पुरुषों के पास होगा तो किस प्रकार के बदलाव  की उम्मीद करें.अभी महिला दिवस पर एक दिन के लिए महिलाओं को सम्मान दिया गया. पर क्या वाकई महिलाऐं केवल सिर्फ इस एक दिन के सम्मान कि हकदार हैं?हर दिन महिलाओं से हर बात पर अग्नि परीक्षा की उम्मीद की जाती है. रामायण काल से चला आ रही है ये परंपरा. अकेले चलना चाहा तो अग्निपरीक्षालीजिये हमने एवरेस्ट फ़तेह करके दिखा दिया. पढ़ना चाहा तो अग्निपरीक्षा,लीजिये हमने हर बार बोर्ड के पेपरों में लड़कों से अव्वल आकर दिखा दिया. उड़ना चाहा तो भी अग्निपरीक्षातो लीजिये हमने अंतरिक्ष तक पहुँच कर दिखा दिया. आत्मनिर्भर होना चाहा तो अग्निपरीक्षालीजिये हमने सभी शीर्ष कंपनियों का सरताज बनकर दिखा दिया. एक छोटी सी बात समझने में इस समाज को कितने वर्ष और लगेंगे कि अब वो दौर गया जब भगवान्समाजपरिवारदुनियां और इज्ज़त का डर दिखाकर लड़कियों को उनकी मंजिलों तक नहीं  पहुँचने दिया जाता था . बदलाव हो भी रहा है और आगे भी होगा.
चुनावों की गूँज अब हमारे गलियारों में दस्तक दे रही है. इस बार हम अपना सशक्तिकरण खुद करने की ठान लें. ज्यादा से ज्यादा महिलाएं वोट दें और अपने लिए बेहतर कल का चुनाव करें.
बेख़बर आज़ाद जीना है मुझे,  बेख़बर आज़ाद रहना है मुझे.

1 comment:

  1. पुरूष अकसर ये भूल जाते हैं कि उनको पैदा करने वाली भी एक महिला ही थी, उनका हाथ पकड़ कर चलना सीखने वाली, सही और ग़लत का पाठ पढ़ने वाली, ज़िंदगी की जंग में लड़ना सीखने वाली, हर मुश्किल में आगे बढ़ना सीखने वाली भी एक महिला ही थी. अग्निपरीक्षा देने का समय अब महिलाओं का नही पुरुषों का है. क्या हम अपने समाज की, अपने कुल की लक्ष्मीयों की रक्षा करने के सक्षम हैं? कोई यहाँ दुशासन है तो कोई धृतराष्ट्र. कृष्ण बन के द्रौपदी की रक्षा करने का साहस केवल फिल्मों में स्टंट बन के रह गया है.
    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
    यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥

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