भारत सरकार ने यहाँ की
आवाम को डिजिटल इंडिया का सपना दिखाया है. डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के नौ स्तम्भ
रखे गए हैं ब्रॉडबैंड हाईवे, फोन तक सबकी पहुँच, जनता के लिए इन्टरनेट प्रोग्राम,
इ-गवर्नेंस, इ-क्रांति, सभी तक सूचना का प्रसार, इलेक्ट्रॉनिक सामान का, सूचना तकनीक
के क्षेत्र में नौकरियां, आरंभिक फसल प्रोग्राम| इसके अलावा सरकारी विभागों में
सभी रिकार्ड्स के साथ साथ रिपोर्ट्स भी ऑनलाइन ही भेजी जाएँगी. इस प्रोग्राम के
तहत आप डिजी लाकर का इस्तेमाल करके अपने दस्तावेज़ सुरक्षित कर सकते हैं, मोबाइल पर
ही अधिक से अधिक सरकारी सुविधाओं का प्रयोग कर सकते हैं मसलन बैंक के कार्य, जन्म
मृत्यु प्रमाण पत्र, बिल आदि. व्यापार के क्षेत्र में इ-कॉमर्स मददगार होगी. डिजिटल
इंडिया के तहत जिस क्षेत्र के बारे में बात करना सबसे ज़रूरी है वह है शिक्षा का
क्षेत्र. इस प्रोग्राम के अंतर्गत भारत के सभी स्कूलों को ब्रॉडबैंड से जोड़ा जाना
है. हर स्कूल के अन्दर वाई-फाई, डिजिटल रूप से साक्षरता प्रोग्राम, बड़े पैमाने पर
ऑनलाइन कोर्सेज का विकास आदि स्तर पर कार्य किया जाना है. पंचायत स्तर तक इन्टरनेट
की सुविधा की उपलब्धता, ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल एजुकेशन आदि कस्बाई और
ग्रामीण छात्रों के लिए कंप्यूटर की शिक्षा को सुलभ बना देगा. इसके साथ साथ इन
इलाकों में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, योग्य शिक्षकों की समस्या से भी निबटने में इस
प्रोग्राम की मदद से सहायता प्राप्त होगी. कहना न होगा कि यदि इस तरह की शिक्षा
प्रणाली का विकास करने में भारत सफ़ल रहा तो विकसित देशों की श्रेणी में आने के लिए
हम एक बड़ी सीढ़ी चढ़ जायेंगे. ये होना इसलिए भी ज़रूरी है क्यूंकि भारत युवा देश है
और युवाओं को एक सही दिशा और देश दुनिया से जुडाव उनके लिए संभावनाओं के नए आयामों
को खोल देगा. धीरे धीरे ही सही लेकिन हम बदलावों के साक्षी बन रहे हैं. अभी तक सवा
अरब लोगों में केवल 19 प्रतिशत लोग ही इन्टरनेट का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन ये
रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही है. मोबाइल पर इन्टरनेट का प्रयोग करने वालों की संख्या में
इजाफा हुआ है. इंटरनेट एंड मोबाईल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया की नयी रिपोर्ट के मुताबिक
क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रयोगकर्ता सैंतालीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं जिनकी
संख्या संख्या साल 2015 के अंत तक 127 मिलीयन हो
जाने की उम्मीद है | स्मार्टफ़ोन
की खपत भी भारत में बढ़ी है ऐसे में डिजिटल इंडिया प्रोग्राम उम्मीद जगाता है कि
शिक्षा का पुराना स्वरुप बदलकर इन्टरनेट आधारित हो जायेगा. प्राइमरी स्तर पर
स्मार्ट क्लासेज का चलन बच्चों को केवल किताबी ही नहीं बल्कि प्रयोगात्मक शिक्षा
की और ले जायेगा, बच्चों में प्रारंभ से ही वैज्ञानिकता का विकास होगा. लेकिन इस
सपने के आगे चुनौतियों का बड़ा पहाड़ खड़ा है. आज भी दूर दराज़ के गाँव और कस्बों के
स्कूल कंप्यूटर से दूर हैं. यह हाल कमोबेश हर उस
छात्र का है जिसने गाँव या कस्बे के स्कूल से पढाई अवश्य की है लेकिन कंप्यूटर
ज्ञान नगण्य है. ज़्यादातर गाँव और कस्बों में स्कूलों में या तो कंप्यूटर नहीं
होता है उन्हें पढ़ाने वालों की कमी होती है. ऐसे में छात्र इससे वंचित रह जाते
हैं. अधिकांश युवाओं के लिए मोबाइल चला लेना भर ही डिजिटल होने की परिभाषा है. अंग्रेजी
पढ़ा लिखा समाज तो बिना किसी समस्या के इस योजना का लाभ ले लेगा, समस्या ग़रीबी रेखा
से नीचे जीवन यापन करने वाले और आदिवासी क्षेत्र के लोगों की है जिनके लिए आज भी
अच्छा रहन सहन और सामाजिक स्तर दूर की कौड़ी है. उनका ध्यान केवल परिवार के पेट
पालने पर है. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के मुताबिक भारत में दस में से सात घर
ग्रामीण हैं जो 200 रूपए रोज़ कम पर जीवन यापन कर रहे हैं. आदिवासी क्षेत्रों में
अभी भी जागरूकता की कमी के कारण गरीबी और अशिक्षा में ही लोग जीवन जी रहे हैं. ऐसे
में डिजिटल इंडिया प्रोग्राम का सभी नागरिकों को साथ लेकर चलने वाली योजना खटाई
में पड़ सकती है. देश पहले ही रूरल अर्बन डिवाइड की समस्या से जूझ रहा है ऐसे में
डिजिटल इंडिया प्रोग्राम उम्मीद ज़रूर बंधाता है लेकिन उससे पहले देश में पहले से
मौजूद समस्याओं के पहलुओं पर गौर करना ज़रूरी हो जाता है. सबसे पहले गाँवों और
आदिवासी जनों को मुख्यधारा से जोड़ा जाना अति आवश्यक है और ये भी ज़रूरी है कि हर
व्यक्ति की एक निश्चित आय हो जो उसके परिवार के पालन और उसके बच्चों की शिक्षा के
लिए पर्याप्त हो. तभी हर युवा सही मायने में आगे बढ़ पायेगा और उसके लिए संभावनाओं के
क्षेत्रों में इज़ाफा होगा केवल देश में ही नहीं विदेशों में भी लेकिन ये केवल
ख़्वाब हैं जिनकी बुनियाद को पक्का किया जाना बाकी है. असल इंडिया डिजिटल तब होगा
जब धरती चीर कर अन्न उगाने वाले हाथ माउस भी उतनी ही सहजता से चला पायें.
Aug 22, 2015
Aug 6, 2015
केवल शिक्षा की तरफ ही कदम आगे बढ़ें न कि गर्त में धकेलते किसी पाखंड की तरफ.
अभी कुछ दिन पहले वैज्ञानिक सोच रखने वाले पूर्व
राष्ट्रपति कलाम साहब के निधन पर पूरा देश रोया लेकिन उनके तरह वैज्ञानिक सोच लेकर
आचरण करने को अभी हम अपना ही नहीं कर पाए. सोशल मीडिया और टीवी पर हमने कई बार
देखा होगा जैसे इस फ़ोटो को शेयर करें और पायें असीम कृपा तुरंत. फलां भगवान् जी
दिलाएंगे आपको वीज़ा. बस एक लॉकेट भर दूर है आपकी किस्मत. अल्लाह लॉकेट को पहनिए,
किस्मत आपके कदम चूमेगी. “होली वाटर” की एक बोतल घर लाइए और ईसामसीह की कृपा से
अपना घर भर दीजिये. एक तरफ जहाँ इन्टरनेट से दुनियां जहान से हम लोग जुड़ रहे हैं
वहीँ इसी इन्टरनेट से अन्धविश्वास की गली को चौड़ा किया जा रहा है. सांप सपेरों की
धरती कहे जाने वाले देश में माउस से खेलने वाले युवाओं से उम्मीद बंधी थी कि अब अंधविश्वासों को काबू किया जा सकेगा लेकिन
इसी माउस की क्लिक से पाखंड को बढ़ावा मिल रहा है. कई सालों से हम धर्म के नाम पर पैसा
कमाने और नफ़रत फैलाने वालों को देखते और सुनते आ रहे हैं और कई ऐसे गुनहगारों को
जेल के पीछे भी देखा है. ज्यादा दूर जाने की ज़रुरत नहीं है. आसाराम बापू का प्रकरण
खूब चर्चा में रहा था. केवल उन पर ही नहीं बल्कि उनके बेटे पर भी यौन उत्पीडन के
आरोप लगे थे. उससे पहले नित्यानंद स्वामी का ऐसा ही प्रकरण सामने आया था. निर्मल
बाबा के दरबार और समागम में समोसा और गोलगप्पे खा लेना ही मानव की समस्याओं का
उपाय है. दक्षिण के मंदिरों में धन के भंडार भरे हैं. सत्य साईं बाबा के देहावसान
के बाद इसका खुलासा भी हुआ था. खुद को राधे माँ कहने वाली एक स्त्री पर दहेज़ उत्पीडन का आरोप लगा है. स्वयं को कबीर का
अवतार बताने वाले रामपाल इन सबसे एक कदम आगे थे. रामपाल के ऊपर ज़मीन पर अवैध कब्ज़े
का आरोप लगा था. उनका आश्रम हर तरह की सुख सुविधाओं से परिपूर्ण था और उन्होंने
सशस्त्र बल भी अपनी सुरक्षा के लिए तैनात कर रखा था और वो भी बहुत बड़ी संख्या में.
ये केवल बड़े कुछ नाम हैं जो चर्चा में रहे. ऐसे ही मुस्लिम समुदाय में कुछ मौलवी,
पीर, फ़कीर जिन्न भागने के नाम पर औरतों के बाल खींच खींच कर पाखंड का प्रदर्शन
करते नज़र आते हैं. 5000 करोड़ की संपत्ति के मालिक डॉ. पॉल दिनाकरण का कहना है कि
स्वयं ईसामसीह ने उन्हें शक्तियां प्रदान कीं. बाकी अख़बारों में तो हम गाहे बगाहे
छोटे मोटे बाबाओं, मौलवियों के बारे में पढ़ते ही रहते हैं. अब भारत के साक्षरों की
बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 74 प्रतिशत लोग साक्षर हैं और इन
धर्म कारोबारियों के व्यापार के फलने फूलने में ज़्यादातर इन्हीं लोगों का अधिक
योगदान रहता है. जेबों में रखे पैसे का उपयोग इनके द्वारा बताये गए उपाय की फीस या
फिर “सेवा” देने में किया जाता है. अपने रोज़ के काम हों या व्यापार के या फिर घर
की सुख शांति के उपाय हों या घर में किसी की शादी, ये सब काम इन्हीं लोगों से पूछ
पूछ कर किये जाते हैं और भगवान के नाम पर डराने वाले लोगों को मानने लोगों के लिए
ये केवल कुछ रुपये हैं लेकिन यही कुछ रुपये बहुत लोगों के मिलाकर इतने भर हो जाते
हैं कि पाखंड का एक शामियाना स्थापित किया जा सके और बस इनकी दुकान चल निकलती है.
अब वो बात जो शायद आपको थोड़ी कडवी लगे. ग़लती इन लोगों
की जितनी है उससे ज्यादा ग़लती इस देश के नागरिकों की यानि आपकी है. अभी भी देश
धर्मगुरुओं के भरोसे चल रहा है. हम विकसित देशों में आने की बात तो करते हैं लेकिन
आज भी घर से निकलने से पहले चौघडी या दिन का विचार करते हैं. यदि भारत युवा देश है
तो इन युवा आँखों में स्वयं और देश की तरक्की का सपना तैरना चाहिए न कि किसी गोली,
ताबीज, भस्म या तस्वीर को लेकर हद पागलपन. सड़क के किनारे लगे तम्बू में अपने दुखों
का इलाज़ ढूंढते इस युवा भारत को शायद ये पता नहीं कि यदि केवल 10 रुपये में मिलने
वाली भस्म हर मर्ज़ का इलाज़ होती तो ये तम्बू लगाने वाला सबसे पहले अपने लिए एक घर
और उसमे सुख सुविधाओं की व्यवस्था करता. उसके पास आपसे ज्यादा दुःख है. इस देश को
विकास की ओर केवल वैज्ञानिक सोच ही लेकर जा सकती है और इस सोच को अपनाने के लिए
सबसे पहले अंधविश्वासों से बाहर आना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि केवल
शिक्षा की तरफ ही कदम आगे बढ़ें न कि गर्त में धकेलते किसी पाखंड की तरफ. Jul 26, 2015
मदद की एक अपील.. आपसे
एक अपील , आपसे .. जी हाँ
आपसे ही. अपील वो नहीं जो आप सोच रहे हैं.. वही घर, वही परिवार की बंदिशें, वही
पुराने प्यार का दर्द और आने वाले जीवनसाथी की चाह में बुनी हुई चुनरी की
ख्वाहिशें.. वो सब नहीं.. बिलकुल नहीं.
अपील एक लड़की की जिसने अभी
अपने पंख सिर्फ फड़फड़ाए हैं, उड़ान नहीं भरी. उससे पहले सोचा आपसे मदद की अपील करूँ.
केवल कुछ मिनट का वक़्त देकर मुझे पढ़ लीजिये.
बात कुछ यूँ है कि मुझे डर
लगना शुरू हो गया है. बहुत डर जाती हूँ. अक्सर इस डर की वजह से ना घर से बाहर
निकलती हूँ ना ही दोस्त बनाती हूँ. अजीब सा डर है. आगे बढ़ने की हिम्मत भी देता है
और रास्ते का रोड़ा भी बन जाता है. हूँ तो एक आम लड़की लेकिन सपने बहुत बड़ा नाम
कमाने के हैं. पता चला कि एक आम लड़की जब आगे बढ़ने के लिए कदम उठाती है तो ये समाज
उसके चरित्र पर बिना काम के खाली बैठे और दूसरों की सफ़लता से शरीर की भीतरी
कोशिकाओं तक जले भुने बैठे लोगों की दी हुई कीचड़ की मोटी मोटी गोलियां दागने को
तैयार रहता है. समाज बनता किससे है? हम लोगों से ही. मज़ा आता है कहने वालों को भी
और सुनने वालों को भी और इस बात को आग की तरह फैला देने का ज़िम्मा कन्धों पर उठाये
लोगों को भी. अब किसी ने कुछ कहा है तो कुछ सच्चाई तो होगी ही.. भले ही उस सच्चाई
को ठीक से देखा ही न गया हो या सिर्फ उतना देखा हो जितना अफ़वाह के बाज़ार में अपनी
धाक बनाने के लिए ज़रूरी है. अब हूँ तो लड़की ही.. कितनी भी हिम्मत दिखाऊ पर कहीं न
कहीं उस चोट के दर्द से टूट भी तो जाउंगी. मानसिक तनाव से भी गुज़रना पड़ेगा. हो
सकता है कि रो रोकर कई रातें भी काली हों, हो सकता है कि काम करना ही बंद कर दूँ
या हो सकता है कि इतनी बिगड़ जाऊं कि सम्हालने की स्थिति ही न बचे या फिर डर डर के
जीने की आदत पड़ जाए. जब काम के सिलसिले में कहीं किसी से मिलने की बात हो तो दिल
धक् धक् करे कि कहीं अभी ये उस अफवाहों के बाज़ार में मेरी इज्ज़त की नुमाइश देखने
तो नहीं गया था ..किसी ने इससे कुछ कहा तो नहीं होगा? बस यहीं पर आगे बढ़ने के
रास्ते में एक लेकिन और एक काश ने मेरा हाथ थाम लिया. “लेकिन” मुझे खुद को हर पल
लोगों को सफ़ाई देने पर मजबूर करता है और “काश” उन लम्हों को कोसता है जब चेहरे पर
मुस्कराहट और हाथ में खंजर लेकर बैठे लोगों से बात की.
कभी कभी ये डर हिम्मत
बंधाता है. फिर लगता है कि मुझे फर्क नहीं पड़ता. लोगों का तो काम ही है बोलना. कुछ
तो बोलेंगे ही लेकिन खुद से झूठ भी कैसे बोलूं. फ़र्क तो पड़ता है.. दिल तो दुखता ही
है.. तकलीफ़ भी बहुत होती है पर आगे बढ़ने का जज़्बा फिर मुझे ले उठ खड़ा होता है. मैं
फिर आगे बढ़ तो जाती हूँ लेकिन उसी डर के साथ कि कौन कब क्या बोल देगा मैं नहीं
जानती. आगे बढ़ने के लिए लोगों से मिलना भी पड़ेगा. बड़ा नाम बनाने के लिए सामाजिक
दायरा भी बड़ा करना पड़ेगा, और समस्या ये है कि मैं एक सीधी सी आम लड़की हूँ जिसको
मुंह में गाली रखकर चलना भी नहीं आता और नाम भी कमाना है.
आप सभी लोगों से मदद तो
चाहिए ही लेकिन एक सवाल है मेरा कि क्या आप किसी भी लड़की के बारे में ऐसी बातें
सुनते वक़्त एक छोटा सा जवाब नहीं दे सकते कि पहले उससे मिल लो फिर मुझे बताना.
किसी को बिना जाने समझे इस तरह की बात बोलना ठीक नहीं है वो भी हमारे जैसे देश में
जहाँ लड़कियों का आगे बढ़ना कितना मुश्किल है. शादी की बेड़ियाँ बचपन से ही उसके
पावों में होती हैं जो वक़्त के साथ उसके पावों को कसती जाती हैं और एक वक़्त वो आता
है जब एक जगह रुक जाने के अलावा कुछ नहीं बचता.
मेरी बस थोड़ी मदद कीजिये. मैं
आम हूँ, ख़ास भी बन जाउंगी, तब आपको मुझ पर ज़रूर गर्व होगा. लेकिन इस रास्ते को
केवल उतना मुश्किल बनाइये जितना आपके परिवार की महिलाएं झेल सकें. मैं आगे बढ़ना तो
नहीं छोड़ सकती लेकिन एक रिश्ते के नाते मदद माँग सकती हूँ, रिश्ता खून का नहीं,
इंसानियत का. आगे बढूँ तो हिम्मत बढाइये, अगर ग़लती करूँ तो ज़रूर बताइए लेकिन उस
ग़लती को अपनी जलन को निकालने का बहाना मत बनाइये. मेरी प्रेरणा वो लड़कियां ज़रूर
हैं जो इन सब बातों से ऊपर उठ कर आगे निकलीं लेकिन क्या हर लड़की को दिल में कुछ काले
दिन और दर्द लेकर ही आगे बढ़ना ज़रूरी है. नहीं न. मैं बस इतना चाहती हूँ कि जब मैं
कभी अपना जिक्र करूँ तो आपके दिए घावों के बदले आपकी की हुई इस छोटी से मदद को याद
करूँ.
पहली और आख़िरी अपील है
आपसे. निराश मत करियेगा. मुझे समय देने के लिए धन्यवाद.
Jul 2, 2015
भारतीय चित्रकार मन
भारतीय मन के अन्दर एक चित्रकार है और इनकी कला, क्या कहने.. भारतीय चित्रकार मन की तारीफ़ करने बैठूं तो एक बाबरनामे से बड़ी किताब लिख जाये। ऐसे ही थोड़े न हर कोई इसका दीवाना है. और आप देश की क्या बात करते हैं.. विदेशों में चर्चे हैं जनाब.. विदेशी इनकी कला की फ़ोटो खींचे बिना रह ही नहीं पाते तो बरबस ही उनका कैमरा बस इनकी कला को कैद कर लेता है।
आप जानते हैं इन कलाकारों को किसी कैनवास या कागज़ की ज़रुरत नहीं है। इनका कैनवास हर वो जगह है जो ख़ाली है, मुफ्त है और जिसको साफ़ ये नहीं करने वाले हैं. समझे कुछ.. अरे सड़क, सरकारी दीवारों के कोने, टाइल्स, सीढियां, लोहे के पाइप, सड़क के किनारे लगी रेलिंग और सरकारी कूड़ेदान का बाहरी भाग सब कुछ इनका कैनवास ही तो है, इनका प्रिय रंग आप समझ ही गए होंगे.. जी हां..कत्थई रंग, इस रंग में अपनी कला के नमूनों को डुबोकर चित्रकार इस कैनवास को कभी खाली नहीं रहने देता।
बिना ब्रश बना देते हैं आर्ट
जनाब इनके हुनर के क्या कहने, मजाल है कि ये कूंची और ब्रश हाथ में भी पकड़ें, ये केवल अपने मुंह को ही इस कार्य के लिए प्रयोग कर सकते हैं. मुंह में रंग लिए ये सड़कों को कत्थई रंग से रंगते हैं, यदि मेरी बात पर यकीन न हो तो राह चलते किसी भारतीय चित्रकार को गाड़ी को धीमा करके और दायीं या बायीं किसी भी तरफ चित्रकारी करते देख सकते हैं। इससे कोई फरक नहीं पड़ता कि ग़लती से ये रंग किसी और के कपड़ों, मुंह और गाड़ी पर लग सकता है क्यूंकि ग़लती इन कलाकारों की नहीं होती.. हवा की होती है, मुई उसी तरफ़ बह रही होती है।
इंसान भी रंग जाता है इस कला में
कभी-कभी चित्रकार केवल ज़मीन की तरफ देखते हुए मुंह में भरे रंग को बस उलट भर देता है। इस कला में समय की बचत होती है। अगली कला के नमूने में चित्रकार राह में चलते बिना किसी तरफ देखे मुंह में भरा रंग एक लम्बी धार जैसे छोड़ता है, फ़ायदा देखिएगा कि सड़क के साथ-साथ कोई और दीवार या इंसान भी इस कला में रंग जाता है। ये सब पढ़कर आप सब गर्व और ख़ुशी से भर गए होंगे। हाँ इस कला को न समझ पाने वाले नासमझ लोगों को ग़ुस्सा ज़रूर आ रहा होगा पर जनाब आपने कर क्या लिया। अगर इतना ही बुरा लगता था तो किसी चित्रकार को रोका होता।
लेखक का मन हुआ पुलकित
मुझ लेखक को ही ले लीजिये, ये लिखते हुए इतना अधिक हर्ष हो रहा है कि मन का हर कोना उस कला और कलाकार के दांतों के सफ़ेद से कत्थई हो चुके रंग और उसके ऊपर लिजलिज़ी परत के स्मरण मात्र से पुलकित हो उठा है और भोजन करने की भी इच्छा नहीं हो रही। अरे हाँ .. मैंने अभी तक आपको ये नहीं बताया ये कला सुन्दर होने के साथ साथ सुगन्धित भी है। इसकी सुगंध के क्या कहने, बस यूँ समझिये कि इससे प्यार न हो जाये इसलिए लोगों को कभी कभार नाक भी बंद करनी पड़ जाती है। अब तक चित्रकारी करने के लिए उतावले हो चुके इस मन को रोकिये मत, बस अपने घर के पास के किसी खोखे पर चले जाइये, गोल्ड्मोहर, तुलसी, तम्बाकू आदि रंग ले आइये, थोड़े महँगे रंगों से चित्रकारी करना चाहें तो रजनीगंधा, पान विलास, कमला पसंद जैसे विकल्प भी उपलब्ध हैं। इन रंगों को अपने मुंह में रखिये और लार के साथ मिश्रित कीजिये, घर से बाहर निकलिये और सबसे पहले अपने घर की बाहरी दीवार से शुरुआत कीजिये। यकीन जानिये बेहद ख़ूबसूरत लगेगी। और नासमझ लोगों से मेरी अपील है कि चित्रकारों को अपना काम करने दें क्यूंकि इन्हें रोकने में आप अपना समय गंवाएंगे नहीं और खून जलाने से कुछ होगा नहीं। जैसे आप आज तक चुप रहे हैं.. कृपया अभी भी रहें।
Read more at: http://hindi.oneindia.com/news/features/why-indians-spits-paan-gutkha-everywhere-363646.html
आप जानते हैं इन कलाकारों को किसी कैनवास या कागज़ की ज़रुरत नहीं है। इनका कैनवास हर वो जगह है जो ख़ाली है, मुफ्त है और जिसको साफ़ ये नहीं करने वाले हैं. समझे कुछ.. अरे सड़क, सरकारी दीवारों के कोने, टाइल्स, सीढियां, लोहे के पाइप, सड़क के किनारे लगी रेलिंग और सरकारी कूड़ेदान का बाहरी भाग सब कुछ इनका कैनवास ही तो है, इनका प्रिय रंग आप समझ ही गए होंगे.. जी हां..कत्थई रंग, इस रंग में अपनी कला के नमूनों को डुबोकर चित्रकार इस कैनवास को कभी खाली नहीं रहने देता।
बिना ब्रश बना देते हैं आर्ट
जनाब इनके हुनर के क्या कहने, मजाल है कि ये कूंची और ब्रश हाथ में भी पकड़ें, ये केवल अपने मुंह को ही इस कार्य के लिए प्रयोग कर सकते हैं. मुंह में रंग लिए ये सड़कों को कत्थई रंग से रंगते हैं, यदि मेरी बात पर यकीन न हो तो राह चलते किसी भारतीय चित्रकार को गाड़ी को धीमा करके और दायीं या बायीं किसी भी तरफ चित्रकारी करते देख सकते हैं। इससे कोई फरक नहीं पड़ता कि ग़लती से ये रंग किसी और के कपड़ों, मुंह और गाड़ी पर लग सकता है क्यूंकि ग़लती इन कलाकारों की नहीं होती.. हवा की होती है, मुई उसी तरफ़ बह रही होती है।
इंसान भी रंग जाता है इस कला में
कभी-कभी चित्रकार केवल ज़मीन की तरफ देखते हुए मुंह में भरे रंग को बस उलट भर देता है। इस कला में समय की बचत होती है। अगली कला के नमूने में चित्रकार राह में चलते बिना किसी तरफ देखे मुंह में भरा रंग एक लम्बी धार जैसे छोड़ता है, फ़ायदा देखिएगा कि सड़क के साथ-साथ कोई और दीवार या इंसान भी इस कला में रंग जाता है। ये सब पढ़कर आप सब गर्व और ख़ुशी से भर गए होंगे। हाँ इस कला को न समझ पाने वाले नासमझ लोगों को ग़ुस्सा ज़रूर आ रहा होगा पर जनाब आपने कर क्या लिया। अगर इतना ही बुरा लगता था तो किसी चित्रकार को रोका होता।
लेखक का मन हुआ पुलकित
मुझ लेखक को ही ले लीजिये, ये लिखते हुए इतना अधिक हर्ष हो रहा है कि मन का हर कोना उस कला और कलाकार के दांतों के सफ़ेद से कत्थई हो चुके रंग और उसके ऊपर लिजलिज़ी परत के स्मरण मात्र से पुलकित हो उठा है और भोजन करने की भी इच्छा नहीं हो रही। अरे हाँ .. मैंने अभी तक आपको ये नहीं बताया ये कला सुन्दर होने के साथ साथ सुगन्धित भी है। इसकी सुगंध के क्या कहने, बस यूँ समझिये कि इससे प्यार न हो जाये इसलिए लोगों को कभी कभार नाक भी बंद करनी पड़ जाती है। अब तक चित्रकारी करने के लिए उतावले हो चुके इस मन को रोकिये मत, बस अपने घर के पास के किसी खोखे पर चले जाइये, गोल्ड्मोहर, तुलसी, तम्बाकू आदि रंग ले आइये, थोड़े महँगे रंगों से चित्रकारी करना चाहें तो रजनीगंधा, पान विलास, कमला पसंद जैसे विकल्प भी उपलब्ध हैं। इन रंगों को अपने मुंह में रखिये और लार के साथ मिश्रित कीजिये, घर से बाहर निकलिये और सबसे पहले अपने घर की बाहरी दीवार से शुरुआत कीजिये। यकीन जानिये बेहद ख़ूबसूरत लगेगी। और नासमझ लोगों से मेरी अपील है कि चित्रकारों को अपना काम करने दें क्यूंकि इन्हें रोकने में आप अपना समय गंवाएंगे नहीं और खून जलाने से कुछ होगा नहीं। जैसे आप आज तक चुप रहे हैं.. कृपया अभी भी रहें।
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Jun 28, 2015
जोर नंबरों पर नहीं बल्कि कौशल के विकास पर हो
भारत देश में एक अजब दौड़ चल
रही है, नम्बरों की दौड़, शिक्षक, छात्र, यूनिवर्सिटीज सब इस दौड़ में आँख बंद करके
दौड़े चले जा रहे हैं||लेकिन पहुंचना कहाँ है किसी को नहीं पता|आंकड़े इस बात की पुष्टि
करते हैं|हाल ही में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने कंप्यूटर साइंस की कट ऑफ लिस्ट जारी की
है जिसमे मेरिट 100 प्रतिशत रखी गयी है| बाकी विषयों की मेरिट भी 95 प्रतिशत से
100 प्रतिशत के बीच है| लगभग 3 लाख से अधिक एप्लीकेशन भी आ चुके हैं| लगभग हर विश्वविद्यालय में
यही हाल है| लखनऊ विश्वविद्यालय में भी बीकॉम जैसे विषयों की मेरिट 90 प्रतिशत से ऊपर रखी
है| एक नज़र में देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि भारत के छात्रों की पढाई का स्तर
उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है लेकिन विश्व पर उच्च
शिक्षा में भारत के संस्थान और भारत के छात्र अदृश्य हैं| हम आज भी अच्छी शिक्षण सामग्री
के लिए विदेशों में पर ही निर्भर हैं| दूसरा पहलू अधिक संवेदनशील है कि क्या छात्रों के ज्ञान का
स्तर भी उनके नम्बरों जितना ही है?
सर्व शिक्षा अभियान की
शुरुआत 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को संतोषजनक गुणवत्ता की मुफ्त शिक्षा दिए जाने
के उद्देश्य से की गयी थी| उपस्थिति कम होने के चलते मध्यान्ह भोजन योजना (मिड डे
मील) की शुरुआत हुई| इन दोनों योजनाओं की प्रतिबद्धता शिक्षा की बेहतरी के लिए
थी लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ| मीडिया ने सैकड़ों बार इन योजनाओं और ऐसे स्कूलों की कलई
उजागर की है| गुणवत्तापरक शिक्षा के न होने पर मध्यम वर्ग निजी स्कूलों की तरफ रुख करने को
मजबूर है जहाँ एडमिशन के लिए उन्हें जेब ढीली करनी होती है| इसके बाद आठवीं तक बच्चों
को फेल करने पर मनाही है| इससे फायदे कम और नुकसान अधिक हुए हैं| फेल होने का डर न होने की
वजह से बच्चा और अभिभावक दोनों ही शिक्षा को महत्व नहीं देते और दसवीं में छात्रों
को फेल किये जाने पर परोक्ष रूप से रोक भी है| बोर्ड में कॉपी चेक करने वाले टीचर नम्बर देने
में उदारता दिखने लगे हैं क्यूंकि ऐसा न करने पर उनके खिलाफ कारवाई हो सकती है| शिक्षा का नया सत्र आरम्भ
होने को है| कॉलेजों में दाखिले की प्रक्रिया शुरू हो गयी है लेकिन सवाल जस का तस है कि
क्या इतनी अधिक मेरिट इस बात का प्रमाण है कि भारत देश में दूसरे देशों के मुकाबले
शिक्षा बेहतर है? आंकड़े इस सवाल का जवाब बेहतर देते हैं| उत्तर प्रदेश के ही आंकड़ों
की सुनें तो 2008 के बोर्ड एग्जाम में उत्तर प्रदेश में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे फेल
हुए| उसके बाद एकदम से पास होने वाले प्रतिशत में इजाफा हुआ और 2013 में ये आंकड़ा
घटकर 15 प्रतिशत के आसपास रह गया| प्रतिशत तो कम हुआ लेकिन पढाई का स्तर ऊँचा नहीं हुआ| और आजकल के परीक्षा
परिणामों पर गौर करें तो अब पास और फेल की बात नहीं रह गयी है अब 95 से 100
प्रतिशत की अंधी दौड़ है| 95 प्रतिशत से कम अंक पाने वाले छात्र औसत कहलाने लगे हैं| लेकिन कडवी सच्चाई यही है
कि अभी तक विषय की समझ रखने वालों का प्रतिशत न्यूनतम से भी न्यूनतम स्तर पर है और
बिहार में हुई नक़ल की तस्वीर तो देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी चर्चा का विषय
बनी| ये तस्वीर साफ़ साफ़ हमे आइना दिखाती है कि हमारे देश में जोर केवल मार्कशीट
में छपे नम्बरों पर है न कि ज्ञान अर्जित करने पर|
उच्च शिक्षा का हाल तो इससे
भी अधिक बुरा है| यूएसए और चीन दोनों देशों
को मिलाकर पास होने वाले इंजीनियर ग्रेजुएट से अधिक भारत में हर साल पास होते हैं| हर साल एक लाख एमबीए भारत के प्रबंधन
संस्थानों से निकलते हैं| एक हज़ार के आसपास पीएचडी की डिग्री
प्रदान की जाती है लेकिन फिर भी बेरोजगारी कायम है| इसका एक
कारण यह हो सकता है देश में नौकरियों की कमी हो लेकिन इस का बड़ा कारण यही दिखता है
कि गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है| सिलेबस समय से पूरा कराने और ज्यादा से ज्यादा
नंबर लाने पर ही कॉलेजों का सारा जोर रहता है| मानसिकता ये है कि केवल अच्छे नंबर
लाने वाले ही सफल है जबकि वास्तविकता में ज्ञान का नंबरों से कोई लेना देना नहीं
है| यदि हमें विश्व में अपनी पहचान बनानी है तो समय आ गया है
इस देश की शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव किये जाएँ और ये बदलाव प्राथमिक स्तर से
ही शुरू हों| जोर नंबरों पर नहीं बल्कि कौशल के विकास पर हो
जिससे हर बच्चा अपने हुनर को पहचान कर उसी क्षेत्र में आगे बढे|
Jun 5, 2015
गुज़री हुई बहार की एक यादगार हूँ
काँटा समझ के मुझसे न दामन बचाइए.. गुज़री हुई बहार की एक यादगार हूँ.
मुशीर झंझानवी का यह शेर अक्सर मैं गुनगुनाया करती हूँ. मैं अब कौन हूँ, सोचती हूँ तो छाती चीख़ उठती है मेरी, लेकिन मेरे पिछले वक़्त की यादें अक्सर मुझे एक भीनी फुहार के साथ माटी की सुगंध का एहसास करा जाती हैं। मैं गोमती हूं. आज अपनी हालत देखती हूँ तो बस दिल भर आता है। सोचा आज अपनी कहानी कहकर दिल का गुबार निकल लूँ.. मेरी आत्मा की मौत पहले ही हो चुकी है बस अब इस शरीर का जाना बाकी है..
एक वक़्त वो भी था जब मैं अपने रंग रूप पर इठलाया करती थी.. गोमत ताल से चलते हुए मैं बस छलछलाती, चहकती, कल-कल करती उमंगों से भरी बस बहती जाती थी.. गुरूर था कि लखनऊ, जौनपुर जैसे कई शहरों को बसने का आसरा मैंने दिया है और सुकून था मेरा भविष्य इन्हीं सुरक्षित हाथों में है। अब भी मुझे वो शामें याद आती हैं जब छतरमंजिल से नवाबों की बेग़म मेरी और ताकती थीं और अपने दिल के ख्यालों को हूबहू वे मेरे स्वच्छ, निर्मल जल में देख पातीं थीं। संगीतकारों की धुनों से मेरी लहरें आबाद रहती थीं। लखनऊ की गोमती ..कभी नदी थी अब नाला बन गयी है कई शायरों की शायरी का उद्गम मैं ही हूं. शामें शायराना और दिन बेपनाह खूबसूरत हुआ करते थे.. ऐसी कई तारीखों की दौलत से दौलतमंद थी मैं. नाज़ था मुझे कि मैं नवाबों के शहर मैं हूँ और इनकी नवाबियत पर. कि हमेशा यह अपनी माँ जैसे मेरा ख्याल रखेंगे. मुझे जिंदा रखेंगे.. कहने को हाँ जिंदा तो रखा मुझे लेकिन मेरे रंग रूप को उजाड़ दिया.. कभी नदी थी अब नाला बन गयी है, कभी जीवनदायिनी थी अब प्राण हरने वाली बन गयी है।
जो मछलियां, जीव जंतु कभी मेरे पानी में अपने जीवन को संवारते थे, आज एक किनारे पर मरे मिलते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि मेरे अन्दर घुली हुई ऑक्सीजन की कमी हो गयी है जिससे मेरे अन्दर रहने वाले जीव जंतु मर रहे हैं। मैं चाह कर भी इन्हें नहीं बचा पाई क्यूंकि अब मेरी शक्ति भी क्षीण हो चुकी है। मैं खुद इस घुटन में साँसे नहीं ले पाती, मेरा नीला बहता नीर आज रुका हुआ काला बदबूदार पानी बन गया है..सोचा नहीं था कि अपनी इन्हीं आँखों से अपना ये हश्र देखूंगी। लखनऊ के बीच से निकलती हुई मैं सोचती थी कितना भव्य होगा मेरा इस दुनियां से जाना लेकिन नए लखनऊ और पुराने लखनऊ के बंटवारे ने मेरे बारे में सोचने का किसी को वक़्त ही नहीं मिला। हुक्मरानों ने नए लखनऊ को सँवारने में ही समय लगा दिया, पुराना लखनऊ मसरूफ हो गया। मुझे याद करने के दो पल भी नहीं मिले किसी को। मैंने लखनऊ के लोगों के साथ यहाँ की आबोहवा को भी बदलते देखा है.. कभी-कभी अंगड़ाई लेते हुए जब में एक लम्बी सांस भरती थी तो एक ताज़ी, सुहानी हवा मुझे ताज़गी का एहसास कराती थी लेकिन अब जब मैं कभी अंगडाई लेकर साँस लेती हूँ तो एक घुटन भरी हवा मेरे ज़ख्मों को हरा करते हुए निकल जाती है अब मैं किसी की नहीं हूं. हिन्दू मान्यता को मानने वाले एकादशी के दिन मुझमे नहाया करते थे और ऐसा मानते थे कि ऐसा करने से उनके पाप धुल जायेंगे लेकिन अब लोग मुझमे पैर डालने से भी बचते हैं, पीना तो दूर की बात है और तो और पूजा सामग्रियां फेंक पर मुझे और प्रदूषित करते जा रहे हैं।.
हाँ कभी कभार कुछ लोग मुझे साफ़ करने की पहल किया करते हैं लेकिन मैं एक नदी हूँ जो एक नाले में तब्दील हो चुकी है.. शहर भर का कचरा डाल कर, शहर भर के नालों को मुझमें मिलाकर, पूजा सामग्री और मृत अवशेष बहा कर मुझे इस हद तब प्रदूषित किया गया है कि अब इतनी आसानी से मेरा साफ़ होना मुमकिन नहीं है। मुझे साफ़ करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि सतत प्रयासों और ज़िम्मेदाराना संजीदगी की ज़रुरत है।मैं आज भी जीवनदायिनी हूँ बस मुझे यहाँ के बाशिंदों के थोड़े से सहारे की ज़रुरत है।
Read more at: http://hindi.oneindia.com/news/features/world-environment-day-lucknow-beauty-gomti-river-is-more-polluted-359430.html
मुशीर झंझानवी का यह शेर अक्सर मैं गुनगुनाया करती हूँ. मैं अब कौन हूँ, सोचती हूँ तो छाती चीख़ उठती है मेरी, लेकिन मेरे पिछले वक़्त की यादें अक्सर मुझे एक भीनी फुहार के साथ माटी की सुगंध का एहसास करा जाती हैं। मैं गोमती हूं. आज अपनी हालत देखती हूँ तो बस दिल भर आता है। सोचा आज अपनी कहानी कहकर दिल का गुबार निकल लूँ.. मेरी आत्मा की मौत पहले ही हो चुकी है बस अब इस शरीर का जाना बाकी है..
एक वक़्त वो भी था जब मैं अपने रंग रूप पर इठलाया करती थी.. गोमत ताल से चलते हुए मैं बस छलछलाती, चहकती, कल-कल करती उमंगों से भरी बस बहती जाती थी.. गुरूर था कि लखनऊ, जौनपुर जैसे कई शहरों को बसने का आसरा मैंने दिया है और सुकून था मेरा भविष्य इन्हीं सुरक्षित हाथों में है। अब भी मुझे वो शामें याद आती हैं जब छतरमंजिल से नवाबों की बेग़म मेरी और ताकती थीं और अपने दिल के ख्यालों को हूबहू वे मेरे स्वच्छ, निर्मल जल में देख पातीं थीं। संगीतकारों की धुनों से मेरी लहरें आबाद रहती थीं। लखनऊ की गोमती ..कभी नदी थी अब नाला बन गयी है कई शायरों की शायरी का उद्गम मैं ही हूं. शामें शायराना और दिन बेपनाह खूबसूरत हुआ करते थे.. ऐसी कई तारीखों की दौलत से दौलतमंद थी मैं. नाज़ था मुझे कि मैं नवाबों के शहर मैं हूँ और इनकी नवाबियत पर. कि हमेशा यह अपनी माँ जैसे मेरा ख्याल रखेंगे. मुझे जिंदा रखेंगे.. कहने को हाँ जिंदा तो रखा मुझे लेकिन मेरे रंग रूप को उजाड़ दिया.. कभी नदी थी अब नाला बन गयी है, कभी जीवनदायिनी थी अब प्राण हरने वाली बन गयी है।
जो मछलियां, जीव जंतु कभी मेरे पानी में अपने जीवन को संवारते थे, आज एक किनारे पर मरे मिलते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि मेरे अन्दर घुली हुई ऑक्सीजन की कमी हो गयी है जिससे मेरे अन्दर रहने वाले जीव जंतु मर रहे हैं। मैं चाह कर भी इन्हें नहीं बचा पाई क्यूंकि अब मेरी शक्ति भी क्षीण हो चुकी है। मैं खुद इस घुटन में साँसे नहीं ले पाती, मेरा नीला बहता नीर आज रुका हुआ काला बदबूदार पानी बन गया है..सोचा नहीं था कि अपनी इन्हीं आँखों से अपना ये हश्र देखूंगी। लखनऊ के बीच से निकलती हुई मैं सोचती थी कितना भव्य होगा मेरा इस दुनियां से जाना लेकिन नए लखनऊ और पुराने लखनऊ के बंटवारे ने मेरे बारे में सोचने का किसी को वक़्त ही नहीं मिला। हुक्मरानों ने नए लखनऊ को सँवारने में ही समय लगा दिया, पुराना लखनऊ मसरूफ हो गया। मुझे याद करने के दो पल भी नहीं मिले किसी को। मैंने लखनऊ के लोगों के साथ यहाँ की आबोहवा को भी बदलते देखा है.. कभी-कभी अंगड़ाई लेते हुए जब में एक लम्बी सांस भरती थी तो एक ताज़ी, सुहानी हवा मुझे ताज़गी का एहसास कराती थी लेकिन अब जब मैं कभी अंगडाई लेकर साँस लेती हूँ तो एक घुटन भरी हवा मेरे ज़ख्मों को हरा करते हुए निकल जाती है अब मैं किसी की नहीं हूं. हिन्दू मान्यता को मानने वाले एकादशी के दिन मुझमे नहाया करते थे और ऐसा मानते थे कि ऐसा करने से उनके पाप धुल जायेंगे लेकिन अब लोग मुझमे पैर डालने से भी बचते हैं, पीना तो दूर की बात है और तो और पूजा सामग्रियां फेंक पर मुझे और प्रदूषित करते जा रहे हैं।.
हाँ कभी कभार कुछ लोग मुझे साफ़ करने की पहल किया करते हैं लेकिन मैं एक नदी हूँ जो एक नाले में तब्दील हो चुकी है.. शहर भर का कचरा डाल कर, शहर भर के नालों को मुझमें मिलाकर, पूजा सामग्री और मृत अवशेष बहा कर मुझे इस हद तब प्रदूषित किया गया है कि अब इतनी आसानी से मेरा साफ़ होना मुमकिन नहीं है। मुझे साफ़ करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि सतत प्रयासों और ज़िम्मेदाराना संजीदगी की ज़रुरत है।मैं आज भी जीवनदायिनी हूँ बस मुझे यहाँ के बाशिंदों के थोड़े से सहारे की ज़रुरत है।
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May 7, 2015
हमें शिद्दत से है सिविक सेंस की दरकार
दुनियां में पैदा होने वाला हर बच्चा पांच सेंस के साथ पैदा होता है. धीरे धीरे बड़े होने पर एक सेंस उसे खुद से सीखना होता है. इस सेंस को हम सिविक सेंस कहते है. सिविक सेंस का अर्थ उन अलिखित नियमों से है जो हमारे और दूसरे की सहूलियत के लिए बनाये जाते हैं. कुछ बातें हमने चलते फिरते पढ़ी होंगी जैसे कृपया यहाँ गन्दा न करें, यहाँ गाडी खड़ी करना मना है, कृपया प्याऊ से पानी बर्बाद न करें, इस दीवार पर पेशाब न करें, यहाँ थूकना मना है, कृपया बाएं हाथ पर चलें, रेड लाइट पर रुकें, कृपया बायीं ओर चलें, चलती सड़क पर न थूकें, यहाँ विज्ञापन लगाना मना है, ज़ेब्रा क्रासिंग पर रुकें, फूल तोडना मना है, नो पार्किंग, सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान न करें, कृपया पेट्रोल पंप पर मोबाइल बंद कर लें... जिन्हें हम गाहे-बगाहे यहाँ वहां पढ़ते रहते हैं. ये सारी सिविक सेंस के अंतर्गत आती हैं. इनमे हमे ज़्यादातर चीज़ों के लिए हमें मना किया जाता है कि ऐसा न करें पर क्यूँ? हमारे ख़ुद को जवाब कुछ इस तरह होते हैं कि अगर हम ऐसा करेंगे भी तो कौन हमें रोकेगा और फिर हम इतनी सारी बातें क्यूँ माने, ये सब तो लोग लिखते ही हैं, अरे ठीक है जो मन आये करो, इतना कौन सोचे, ठीक है हो गया हो गया देखेंगे आगे. ऐसा ही कुछ, है न. या तो हम लोग इन नियमों की अनदेखी कर देते हैं या हम लोगों को इन्हें जानबूझकर तोड़ने में बड़ा मज़ा आता है. इसके पीछे की वजह क्या हो सकती है? आपने कभी सोचा है कि हम लोगों के लिए इतने निर्देश क्यूँ लिखे रहते हैं और क्यों सिविक सेंस जैसी आम चीज़ के लिए भी हम लोगों को बताना पड़ता है.
कभी आपने सोचा की आखिर हमारे देश में सिविक सेन्स लोगों की प्राथमिकता में क्यों नहीं है.बढ़ती जनसँख्या शहरों पर बोझ डाल रही है. इस वक़्त भारत रूरल-अर्बन डिवाइड की समस्या से जूझ रहा है. जो ग्रामीण हैं वो इन सब चीज़ों से अनजान हैं और शहर में रहने वाले लोग इन निर्देशों को अनदेखा करते हुए निकल जाते हैं क्यूंकि उन्हें यहाँ रहते समय हो गया और समय के साथ चीज़ों की अहमियत कम हो जाती है. जो कस्बाई लोग हैं वो जानते हैं कि उन्हें शहर एक या दो दिन के लिए आना है तो वो इन निर्देशों की गंभीरता को नहीं समझते. अपनी सहूलियत का अधिक ख्याल करते हुए लोग कार में से सड़क पर पानी की बोतल, चिप्स के खाली पैकेट और गाड़ी चलाते वक़्त अचानक से गाड़ी का दायाँ दरवाज़ा खोलकर पान की लम्बी पीक बाहर निकालते हैं और सड़क को गन्दा करते हैं या ज़्यादातर लोग ख़ासकर औरतें चलती बस में से बाहर उल्टी कर देते हैं. क़ायदे से वो एक पोलिथीन अपने साथ रख सकते हैं कि अगर उन्हें उल्टी आये तो वो उसका इस्तेमाल करें और बाहर निकल कर उसे कूड़ेदान में फ़ेंक दें लेकिन ऐसा होता नहीं है. रेलवे स्टेशन पर साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा रहता है कि यहाँ गंदगी न करें लेकिन लोग चाय के कप, बोतल लोग यूँ ही पटरी पर फेंक देते हैं. हद तब हो जाती है जब छोटे छोटे बच्चों की माएँ अपने बच्चों को वहीँ शौच करवाती हैं या उनके नैपकिन्स वहीँ डाल देती हैं. लोग इस बात से अनभिज्ञ बने रहते हैं कि इस तरह खुले में गंदगी करने से उनके स्वास्थ्य पर ही उल्टा असर पड़ेगा. मन का करना हमेशा अच्छा होता है लेकिन नियमों का पालन भी ज़रूरी होता है खासकर तब जब बात सिविक सेंस की हो. आप किसी गंदगी करेंगे या ग़लत जगह गाड़ी खड़ी करेंगे तो हो सकता है उस दिन आपको सहूलियत हो जाये लेकिन उसके बाद आप उम्मीद नहीं कर सकते कि आपको साफ़ जगह मिलेगी या फिर आप किसी और की ग़लती की वजह से जाम में नहीं फसेंगे. जाम से ख्याल आया शहरों में जाम लगने का सबसे बड़ा कारण गाडी पार्किंग में न खड़ा कर के रोड पर ही आड़ा तिरछा खड़ा कर देना या फिर दूसरे से आगे निकलने की जल्दी में आते हुए ट्रैफिक की दिशा में गाडी घुसा देना जिससे ट्रैफिक की जिस दिशा में जाम नहीं लगा वहां भी जाम लग जाता है .जरा सोचिये अगर हम थोडा देर इन्तजार कर लेते तो शायद जाम उतना लम्बा नहीं होता जितना किसी एक की गलती से हो गया.
सिविक सेन्स एक ऐसी चीज है जिसे कानून बना कर हमारी आदत में शामिल नहीं किया जा सकता वह भी ऐसे देश में तो बिलकुल भी नहीं जहाँ आधी से ज्यादा जनसँख्या निरक्षर हो वहां हर काम सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता .सिविक सेन्स तो लोगों को जागरूक बना कर ही किया जा सकता है.अगर हमें इस बात का एहसास हो जाए कि इसमें ही हम सबका भला है तो लोग खुद बा खुद वो नियम मानने लग जायेंगे जिसमें सबका भला है.आप भी सोच रहे होंगे कि ये होगा कैसे.गुड क्वेशन अरे भाई जो भी गलती करे उसे प्यार से समझाओ कि ये शहर ये दुनिया आपकी ही है अगर आप अपने आस पास के परिवेश को साफ़ सुथरा नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा.हाँ इस काम में मेहनत भी लगेगी और समय भी फिर आदतें बदलते ,बदलते ही बदलती हैं.सोशल मीडिया का सहारा लीजिये अपने आस पास अगर कोई ऐसा कर रहा है उसकी तस्वीर खींच कर सोशल मीडिया पर अपलोड कर दीजिये. फिर ,फिर क्या सोच क्या रहे हैं लग जाइए काम पर अगर एक दिन में कोई एक आदमी आपके कारण सिविक सेन्स की यूटीलटी समझ रहा है तो मान लीजिये कि इस देश को बदलने में कुछ हिस्सा आपका भी है .
May 2, 2015
शोध के लिए तय करनी होगी लम्बी दूरी
ज्ञान की इस
दुनिया में अपनी बात को पुष्टता से कहने के लिए आंकड़ों की जरुरत होती है|आंकड़े जहाँ तथ्य की पुष्टि करते हैं वहीं भविष्य के विमर्श के
लिए रास्ता भी खोलते हैं | सभी आंकड़े एक निश्चित
शोध प्रक्रिया से हासिल होते हैं. आंकड़े वे आधार है जिनसे कथ्य में प्रमाणिकता
आती है |सोशल मीडिया में हम उन्हीं बातों पर ज्यादा महत्त्व
देते हैं जो आंकड़ों द्वारा पुष्ट किये गए हों चाहे वह किसी खास विषय जैसे विज्ञान
या साहित्य से जुडी हो या फिर जीवन या हमारी आदतों के बारे में. लेकिन गौर करने
वाली बात ये है कि इनमे से कितने शोध भारत के होते हैं? आंकड़ों पर नज़र
डालेंगे तो अमेरिका ने वर्ष 2008 में 48,802
पीएचडी की डिग्री प्रदान की. चीन के शिक्षा मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर
प्रकाशित सूचना के अनुसार चीन ने वर्ष 2010 में 48,069
पीएचडी की डिग्री प्रदान की. यानि की अमेरिका साल में सबसे ज्यादा डॉक्टरेट या
पीएचडी की उपाधि प्रदान करने वाला देश है. उसके बाद चीन और जर्मनी का स्थान आता
है. इस संदर्भ में भारत को अपनी जगह बनाने के लिए अभी लम्बी दूरी तय
करनी है फिर भी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज के अनुसार पिछले दस वर्षों
में भारत ने 45,561 पीएचडी की डिग्रियां प्रदान की. संख्या
बहुत अधिक कम है. 2010 में प्रकाशित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज, इनफार्मेशन एंड
लाइब्रेरी नेटवर्क सेंटर (इनफ्लिबनेट) और टाटा कंसल्टेंसी सर्विस की एक रिपोर्ट के
अनुसार भारत में रिसर्च एंड डेवलपमेंट विभाग,अकादमिक
रिसर्च में केवल तीन से चार प्रतिशत का निवेश करता है. इसी रिपोर्ट के अनुसार ही
भारत में उच्च शिक्षा के सभी छात्रों में से केवल 0.65 प्रतिशत ही पीएचडी के लिए
नामांकन करते हैं. शोध में छात्रों का घनत्व हमारे यहाँ केवल 1.49 है जबकि अमेरिका
में यह 139.5 ,122.4 चीन में, 71.0 जापान में, 28 जर्मनी में और
20.4 फ्रांस में है. आंकड़े अपनी बात स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमारे यहाँ शोध को
उतनी तवज्जो नहीं दी जाती .
उच्च शिक्षा में
शोध के रूप में होने वाला निवेशन रोजगारपरक नहीं है और इसलिए शोध महज शोध करने के
लिए हो रहे हैं समाज या विषय को समझने के लिए नहीं |महत्वपूर्ण
है कि भले ही हमारे विश्वविद्यालय आंकड़ों में पी एच डी की खानापूरी तो कर रहे हैं
पर जब बात वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता की आती है तो वहां हम काफी नीचे रह जाते
हैं |यानि शोध में गुणात्मक तौर पर भारत का कोई ख़ास योगदान
नहीं है पर संख्यात्मक द्रष्टि से भले ही आंकड़े एक बेहतर तस्वीर देते हों |
सांस्कृतिक रूप
से भारतीय समाज श्रोत परम्परा आधारित समाज रहा है जहाँ सवाल उठाने या पूछने की कोई
जगह नहीं रही है और यह एक बड़ा कारण है कि एक सामान्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा के
बाद एक अदद नौकरी करना चाहता है न कि वह एक पूर्णकालिक शोध कर्ता के रूप में विषय
या समाज को समर्ध करना चाहता है |इस मानसिकता को
बदलने की जिम्मेदारी युवाओं पर है और सरकार को शोधकर्ताओं को लगातार प्रेरित करना
होगा |
सबसे महत्वपूर्ण
क्षेत्र चिकित्सा विज्ञान में हालात कोई ख़ास उम्मीद नहीं जगाते | ज़्यादातर दवाइयां का पेटेंट विदेशी शोधकर्ताओं के पास हैं
समस्या के समाधान के लिए सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है सरकार हर साल पीएचडी
करने वालों को और इसके करने के बाद आगे शोध के लिए छात्रवृति और फ़ेलोशिप के रूप
में वित्तीय सहायता प्रदान करती है. यूजीसी हर साल जूनियर रिसर्च फेलोशिप के नाम
पर हजारों रुपये हर महीने एक शोध छात्र को देती है. यह सब इसलिए है जिससे बिना किसी
आर्थिक संकट के शोध छात्र आराम से अपने शोधकार्य को पूर्ण कर सकें लेकिन जमीनी
स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है.चूँकि भारत में शोध कार्य नौकरी की गारंटी नहीं
देते इसलिए शोधार्थी अपने शोध को खासकर मानविकी जैसे विषयों में उतनी गंभीरता और
प्रतिबधता से नहीं करते जितनी किसी शोध कार्य में उम्मीद की जाती है |
यू जी सी के पहल
शोध गंगा भारत के विश्विद्यालयों में हो रहे समस्त शोध कार्यों को एक साथ
ऑनलाइन लाने की अच्छी पहल है पर इस परियोजना को पर्याप्त रूप से समस्त
विश्विद्यालयों का समर्थन नहीं हासिल हो पा रहा है |
सोशल नेटवर्किंग
साईट्स के प्रसार और युवाओं की विशाल संख्या आज देश के सामने शोध के क्षेत्र में
उभरने का एक मौका दे रही है अब देखना है युवा इस अवसर का इस्तेमाल कैसे करेंगे |
Apr 15, 2015
मौसमी मिजाज ने छीनी अन्नदाता से रोटी और हम कहते हैं वाह क्या मौसम है...
मौसमी मिजाज ने छीनी अन्नदाता से रोटी और हम कहते हैं वाह क्या
मौसम है...
सर पर साफ़ा, सूती कुरता, घिसा हुआ पजामा, जगह-जगह से
फटी मोजरी, झुलसी हुई त्वचा, शरीर छूने पर चुभती हड्डियाँ, माथे पर
चिंता की चिर लकीरें और आँखों में बुझती सी उम्मीद...
एक कृषि प्रधान देश के किसान की यही पहचान है| पिछले कुछ दिनों में किसानो के साथ जो भी हुआ उसकी कल्पना करना
भी दुखद है. इस साल के शुरुआत से अब तक करीब 250 किसानों ने
आत्महत्या कर ली और पिछले साल करीब 1109 किसानों ने| अजीब लगता है न कि जो किसान देश भर के लोगों का पेट भरता है वो
किसान खुद के घर का पेट नहीं भर पाया|
बादलों का इंतज़ार प्रेमियों के अलावा किसान भी करता है
बादलों का इंतज़ार प्रेमियों के अलावा किसान भी करता है क्योंकि
उसे लगता है कि बारिश की अमृत बूंदे जब उसके खेत की मिटटी को अपने आँचल में समेत
लेंगी तो जो उसकी ज़मीन सोना बरसायेगी और वो ख़ुद के घर के साथ हज़ारों घरों को रोटी
दे पायेगा लेकिन जब वही अमृत बूँदें कहर ढाने पर आमादा हो जाती हैं तब केवल भगवान
के आगे हाथ फ़ैलाने के अलावा उसके पास कुछ नहीं बचता, उम्मीद भी
नहीं। उसकी एक मात्र पूंजी, उसकी फसल
को ओलावृष्टि अपने तले रौंद देती है तब हम एहसास भी नहीं कर सकते कि अपनी पूंजी को
यूँ लुटता देख उसका दिल चीत्कार कर उठा होगा. सोच कर बड़ा अजीब लगता है जब हम खुद
को पतला करने की खातिर "हेल्दी फ़ूड" खा रहे होते हैं या खाना छोड़ देते
हैं और जिनकी वजह से हम खा पा रहे हैं उनके बच्चे भूखे पेट सो जाते हैं।
अपने परिवार को यूँ तन्हा छोड़कर जाने की हिम्मत करना आसान नहीं
होता, शायद वो समझ चुके होते हैं कि अब कम से कम वो अपने परिवार को
नहीं पाल सकेंगे और इस दुःख में खुद को डुबोकर फिर से परिवार के लिए बोझ बनकर जीने
से अच्छा वो मरना पसंद करते हैं, वे तो मर
जाते हैं उनके परिवार पर इसके बाद क्या असर पड़ता है इसकी भी कल्पना करना हम सबकी
सोच से परे है। उस किसान की अपने बच्चे को बड़ा अफ़सर बनाने की आशा के चीथड़े हाथ में
आते हैं, जवानी में बूढ़ी हो गयी बीवी के आने वाले सुनहरे दिनों की
उम्मीद हवा बनकर उसी के सफ़ेद-काले बालों को और बिखरा कर निकल जाती है, क़र्ज़ में डूबे परिवार को उससे निकालने की ज़द्दोजहद किसान को
समय से पहले ही चिंताओं का किला बना देती है और ये चिंता धीरे धीरे उसकी चिता
तैयार कर रही होती है, अब इन सबका
कारण कौन? शायद कोई नहीं।
हम जैसे लोगों को सुहाने मौसम से मतलब है और राजनीतिज्ञों को
इनकी मौत पर एसी कमरे में से बैठकर राजनीति करने से,कारण यही
लोग खुद हैं जिन्हें उनका हक़ भी एहसान समझ कर दिया जाता है।
आम लोगों को मौसम से और नेताओं को राजनीति से मतलब है
इस देश में आय का वितरण बेहद असमान है, अमीर और अमीर होता जा रहा है और गरीब के पास अब कुछ बचा नहीं
है। एक किसान भूखे पेट अपनी जान दे देता है और एक तरफ रोटी की जगह पिज़्ज़ा, बर्गर सरीखे विकल्प मौजूद हैं,
जिस असमय
मौसम में हम बारिश में चाय पकौड़ों का लुत्फ़ ले रहे होते हैं ठीक उसी वक़्त उन
बेवक्त आंधी, ओले और बारिश की बूंदों से आहत सैकड़ों
जानें रस्सी का एक सिरा गले में बांधकर खुद को इन सब परेशानियों से आज़ाद कर लेती
हैं और उनके परिवार के लिए अब जब-जब बारिश होगी, उनके
जख्मों पर नमक की बूंदे डाल कर उन्हें को हरा कर देगी और हम कह रहे होंगे कि आहा
कितना सुहाना मौसम है।
Read more at: http://hindi.oneindia.com/news/features/rains-destroy-50-000-hectares-of-crops-farmer-suicides-continue-350975.html
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Apr 5, 2015
नया हो अब जहाँ हमारा ..
बीबीसी पर औरतों से जुड़े कानूनों के बारे में एक खबर पढ़ी.
आप भी एक नज़र डालिए.
दिल्ली में 2012 के निर्भया
कांड के बाद दुनिया भर में भारत की थूथू हुई. लेकिन एक साल बाद ही कानून में एक नई
धारा जोड़ी गई जिसके मुताबिक अगर पत्नी 15 साल से ज्यादा
उम्र की है तो महिला के साथ उसके पति द्वारा यौनकर्म को बलात्कार नहीं माना जाएगा.
सिंगापुर में यदि लड़की की उम्र 13 साल से ज्यादा है तो उसके
साथ शादीशुदा संबंध में हुआ यौनकर्म बलात्कार नहीं माना जाता.
माल्टा और लेबनान
में अगर लड़की को अगवा करने वाला उससे शादी कर लेता है तो उसका अपराध खारिज हो
जाता है, यानि
उस पर मुकदमा नहीं चलाया जाएगा. अगर शादी फैसला आने के बाद होती है तो तुरंत सजा
माफ हो जाएगी. शर्त है कि तलाक पांच साल से पहले ना हो वरना सजा फिर से लागू हो
सकती है. ऐसे कानून पहले कोस्टा रीका, इथियोपिया और पेरू
जैसे देशों में भी होते थे जिन्हें पिछले दशकों में बदल दिया गया.
नाइजीरिया में अगर
कोई पति अपनी पत्नी को उसकी 'गलती सुधारने' के लिए पीटता है तो इसमें कोई
गैरकानूनी बात नहीं मानी जाती. पति की घरेलू हिंसा को वैसे ही माफ कर देते हैं
जैसे माता पिता या स्कूल मास्टर बच्चों को सुधारने के लिए मारते पीटते हैं.
सऊदी अरब में
महिलाओं का गाड़ी चलाना गैरकानूनी है. महिलाओं को सऊदी में ड्राइविंग लाइसेंस ही
नहीं दिया जाता. दिसंबर में दो महिलाओं को गाड़ी चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया
गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. इस घटना के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
मानवाधिकार संस्थानों ने आवाज भी उठाई. मिस्र के कानून के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति
अपनी पत्नी को किसी और मर्द के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखता है और गुस्से में
उसका कत्ल कर देता है, तो इस हत्या को उतना बड़ा अपराध नहीं माना जाएगा. ऐसे पुरुष को हिरासत
में लिया जा सकता है लेकिन हत्या के अपराध के लिए आमतौर पर होने वाली 20 साल तक के सश्रम कारावास की सजा नहीं दी जाती.
ये दुनियां कितनी भी बदल जाये लेकिन औरतों को लेकर सोच शायद ही कभी बदले.
बलात्कार शब्द कह देना जितना आसान होता है उतना ही मुश्किल है उसे समझना. ज़्यादातर
लोग बलात्कार को केवल शारीरिक संबध के तौर पर देखते हैं. यह केवल महिलाओं की वर्जिनिटी
का हनन है. दुनिया के ऐसे सभी महाशयों से में सिर्फ इतना कहना चाहूंगी के मन की
पीड़ा समझना आपके बस की बात नहीं. आपसे समझने की उम्मीद करना ही बेमानी है.
पति ग़लती सुधरने के लिए
पीट सकता है, लेकिन ग़लती तो पुरुष भी करते हैं तो औरत क्या करे, लोगों के हिसाब से
वो चुप रहकर अपने पत्नी धर्म का पालन करे और बात को जाने दे. न ही हम गाडी चलायें
न ही अपने अपहरण करने वाले को सज़ा दें.
लोगों का तो काम ही है
बातें करना लेकिन जब क़ानून इस तरह की बात करे तो इससे होने वाली व्यथा का अंदाज़ा लगाना
इन कानून बनाने वालों के लिए मुश्किल है.
ये इसलिए नहीं है कि आप हम पर तरस खाएं, जी नहीं, बिलकुल नहीं. सिर्फ आपको बताने के लिए कि यदि आप हमें हमारे हक़ से दूर रखना जानते हैं तो हमने भी अपना हक छीनना
सीखा है और वो हम करेंगे भी. पढेंगे, नौकरी करेंगे, आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करेंगे,
स्वयं के निर्णय खुद लेंगे और अपने लिए ऐसी छत भी ज़रूर बनायेंगे जहाँ आपकी सड़ी-गली
मानसिकता के कीड़े न पहुँच पायें.
Apr 1, 2015
तो काबिल होने के लिए पढ़िए..
अबे कितना पढ़ा तूने? मुझे तो समझ ही नहीं आया कि शुरू कहाँ से करूँ. तूने तो सारा पढ़ लिया होगा न ? नहीं यार , इतना पढ़ते होते तो यहाँ होते, हाँ पास होने की गारंटी है. बाकी और कुछ चाहिए भी नहीं. और सुन, गाय हमारी माता है.. हमको कुछ नहीं आता है.. और एक जानी पहचानी खिलखिलाहट भरी हँसी के साथ सब हँस पढ़ते है. पेपर देने से पहले ऐसे ही कुछ बातें करते हैं न हम. हाँ वैसे एग्जाम टाइम में बड़ा मज़ा आता है न ऐसे बोलने में. लेकिन इस मज़े में क्या छुपा है आइये आपको बताते हैं. होता यूँ है कि जब हम खुद को बार बार दूसरों के सामने पढाई में कमज़ोर जताना चाहते हैं तो धीरे धीरे हम वाकई में कमज़ोर होते जाते हैं. हम हमेशा इसी बात पर जोर देते रहते हैं कि हमको कुछ नहीं आता है बजाय इस बात पर जोर देने के कि हाँ मुझे इतना आता है और इतना तो बहुत अच्छे से आता है. अगर अच्छे नंबर आ गए तो ठीक वरना हमने तो पहले ही कह दिया था कि हमे कुछ नहीं आता. इससे हम बेशक दूसरों के सामने बच जाएँ लेकिन खुद में हम आगे बढ़ना सीखना छोड़ देते हैं. अब आपको मेरी बात कुछ कुछ समझ में आने लगी होगी. किसी दोस्त के पूछने पर कि क्या ये तुमने पढ़ा है तो हम सीधे सीधे कहने के बजाय कि हाँ मैंने ये पढ़ा है, हमारा कहना होता है कि कहाँ यार.. कुछ नहीं पढ़ा. उसके बावजूद एग्जाम में अपना धर्म समझकर कॉपियों पर कॉपियां भरते चले जाते हैं और हमारा सारा जोर एग्जाम में अच्छे प्रतिशत लाने पर होता है और रिजल्ट आने के बाद हम दूसरों से ये सुनना पसंद करते हैं कि अच्छा.... तुमने तो कहा था कि तुम्हें कुछ नहीं आता लेकिन इतने अच्छे परसेंट कैसे आ गए और हम विजयी मुद्रा में बस मुस्कुरा देते हैं लेकिन हम उसके बावजूद भी ये नहीं कहना चाहते कि हाँ मुझे इस विषय में इतना आता है. समझ आया कुछ. चलिए अब थोडा और सीरियसली बात करते हैं..
आंकड़ों की मानें तो भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. ये संख्या यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. सरकार भी बच्चों की पढाई पर सरकारी बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करती है. सोचने वाली बात ये है कि हमारे पास जब इतने कॉलेज हैं, सुविधाएँ हैं, मौके हैं, डिग्रियां हैं और हर साल लाखों लोग इन डिग्रियों को हासिल भी कर रहे हैं, तो इतने पढ़े लिखे लोगों का देश होने के बावजूद दुनिया के धरातल पर हम अब भी पढ़े लिखे नहीं माने जाते हैं. भारत में डिग्री की वैल्यू कुछ यूँ है कि अगर कोई डिग्री नौकरी नहीं दिला पाती है तो वह बेकार है. इसीलिये हमारे यहाँ केवल डॉक्टर और इंजीनियर बनने को ही अच्छी पढाई माना जाता है लेकिन इकनोमिक टाइम्स के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. थोडा अजीब लगा न जानकर. एक और अजीब सी लगने वाली बात ये भी है कि हर साल पास होने वालों की संख्या इतनी ज्यादा है, इंजीनियर डॉक्टर की भरमार है फिर भी इस क्षेत्र में देश का नाम करने वालों की संख्या कम. क्यूँ? थोडा सा पीछे मुड़कर अपने पढाई करने के तरीके को देखेंगे तो आपका इसका जवाब मिल जायेगा. हम खुद को नंबर पाने की दौड़ में उलझाये रखना चाहते हैं. रटकर, नक़ल करके या कैसे भी करके बस पचहतर प्रतिशत से ज्यादा आ जाये. हमारे देश में केवल प्रतिशत की अंधी दौड़ में दौड़ने और एक अदद नौकरी पाने को ही सब कुछ माना जाता है. इसलिए नया लिखने या पढने की इच्छा या तो जन्म नहीं ले पाती या फिर हम उससे खुद ही किनारा कर लेते हैं और धीरे-धीरे ये हमारे पढ़ने और पढ़ाने का तरीका बन जाता है कि केवल नंबर ले आओ बाकी सब तो जुगाड़ करवा ही देती है और एक बार नौकरी लग जाये तो फिर पढ़ने की ज़रुरत ही क्या है और यही सोच हमे कुछ नया नहीं सीखने देती. आप खुद ही सोचिये कि जब हम किसी अच्छी किताब, मॉडल, थ्योरी या अविष्कार की बात करते हैं तो हमेशा विदेशी नामों से ही टकराते हैं. टीचर्स हों या स्टूडेंट्स, विदेशी लेखकों की किताबों को ही पढ़ते-पढ़ाते हैं. भारतीय नामों को तो ऊँगली पर गिना जा सकता है. रिसर्च के क्षेत्र में तो भारतीय नाम बहुत ढूंढने पर भी शायद नहीं मिल पाएंगे. कारण फिर वही.. पास होना और नौकरी पाना. यही हमारी जिंदगी का लक्ष्य बन जाता है और खुद को कमतर आँकने की हमारी आदत. बहुत सिंपल सी बात है हम जैसा खुद को दूसरों के सामने दिखायेंगे वैसा ही हम धीरे धीरे ख़ुद बनते भी जायेंगे और इस तरह से जो कुछ कर सकने की हम क्षमता रखते हैं वो भी नंबरों के पीछे भागने में वेस्ट हो जाएगी. इस नंबर दौड़ से तो किसी का भला होने से रहा तो जनाब बाबा रणछोड़ दास की सलाह मानिए. “नौकरी पाने के लिए नहीं बल्कि काबिल होने के लिए पढ़िए. सर्कस में तो शेर भी करतब दिखा लेता है लेकिन हम उसे वेल ट्रेन्ड कहते हैं वेल एजुकेटेड नहीं”. ज़रा सोचिये कितना अच्छा हो कि जब कोई हमसे पूछे कि तुम्हें कितना आता है और हम कहें कि गाय हमारी माता है ..इसीलिये ही हमे सब कुछ आता है.
Mar 8, 2015
गुणवत्ता को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता
आंकडें बताते है कि भारत धीरे धीरे साक्षर हो रहा है. आंकड़े कहते हैं कि आल इंडिया स्कूल एजुकेशन सर्वे के अनुसार भारत में प्राइमरी से हायर सेकंड्री तक कुल मिलाकर 1,306,992 स्कूल हैं. यूजीसी के अनुसार कुल 693 यूनिवर्सिटीज हैं जिनमे 45 सेंट्रल, 325 राज्य, 128 डीम्ड और 195 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज हैं. भारतीय सरकार ने 2014-2015 बजट में सर्व शिक्षा अभियान के लिए लगभग 28,635 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा था. 100 करोड़ वर्चुअल कक्षाओं के लिए 500 नए आईआईएम खोलने के लिए और इस साल के बजट में भी स्कूल शिक्षा के लिए 42,219.50 करोड़ रूपए दिए हैं और उच्च शिक्षा के लिए 26855 करोड़.लेकिन गुणवत्ता को महज आंकड़ों में नहीं मापा जा सकता है |गुणवत्ता बहुआयामी होती है न की एक आयामी जैसा की भारत में शिक्षा के संदर्भ में लगता है .
ये आंकड़े शिक्षा के लिए दी जा रही सुविधाओं की एक अच्छी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं लेकिन इस तस्वीर का दूसरा रुख़ कुछ यूँ है कि टाइम्स द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कराये गए एक सर्वे में हमारे यहाँ के संस्थान विश्व के 200 शिक्षण संस्थानों में भी जगह बनाने में असफ़ल रहे. इकनोमिक टाइम्स के अनुसार भारत में हर साल लगभग 1.5 मिलियन इंजीनियर ग्रेजुएट हर साल पास होते हैं. चौकाने वाली बात ये है कि यूएसए और चीन दोनों की संख्या मिलाकर भी ये आंकड़ा ज्यादा है. तकरीबन एक लाख एमबीए डिग्री हर साल दी जाती है. तकरीबन एक हज़ार के आसपास पीएचडी अवार्ड की जाती है. इसी अख़बार के अनुसार हर साल पास होने वाले इंजीनियर में से 20 से 33 प्रतिशत बेरोज़गार हैं. आंकड़े बड़ी ख़ूबसूरती से हमे आइना दिखा रहे हैं. दोनों पहलुओं का दुनियां के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने निष्कर्ष ये निकालता है कि भारत में केवल हस्ताक्षर कर सकना साक्षर होने की निशानी है और एक नौकरी पा जाना उच्च शिक्षित होने की. उच्च शिक्षा में कहने के लिए हमारे यहाँ उच्च शिक्षा के बड़े-बड़े सरकारी संस्थान हैं जहाँ एडमिशन के लिए छात्रों के माता-पिता फीस के अलावा कोचिंग और डोनेशन मिलाकर लाखों खर्च कर देते हैं. साथ ही साथ कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे प्रबंधन संस्थान हर साल लाखों डिग्रियां बाँटते हैं यानी हर साल लाखों में एमबीए इन संस्थानों से निकलते हैं लेकिन पढाई में गुणवत्ता की डिग्री देने वाला एक भी संस्थान नहीं है. हमारे यहाँ शिक्षण संस्थानों की नीव में केवल सीमेंट बालू और ईंटें हैं, शिक्षा को बेहतर करने का सपना नहीं. यही वजह है कि संख्या में हम आगे है चाहे वो हर साल पास होने वाले छात्र हों या फिर सरकारी मदद लेकिन शिक्षा में गुणवत्ता के स्तर में हम अभी भी कतार में पीछे हैं. ज़रा सोचिये कि हमारे देश में अध्यापक भी पढने और पढ़ाने के लिए विदेशी लेखकों की किताबों का अध्ययन करते हैं और अपने छात्रों को इन्ही पुस्तकों को पढने की सलाह देते हैं ख़ासकर कि उच्च शिक्षा में. कारण साफ़ है कि दुनिया लोहा माने ऐसी किताबें लिखने के लिए भी सीखने की ललक, जूनून और धैर्य की आवश्यकता होती है और चूँकि हमारे देश में व्यक्ति का आंकलन उसके पैकेज से किया जाता है न कि उसके ज्ञान से और इसी पैकेज को पाने के लिए नंबरों की अंधाधुंध दौड़ में बस छात्र दौड़ेते चले जाते हैं बिना ये जाने कि ये रास्ता सिर्फ उन्हें एक सामान्य व्यक्ति ही बनाने की और ही ले जा पाता है. आविष्कारों के नाम पर हम केवल “जीरो” पर अटके हैं. दुनिया में जब सफल भारतीयों की जब बात की जाती है तो हमारे पास केवल उन एनआरआई भारतीयों का हवाला देने के अलावा कुछ और नहीं होता है जिन्होंने सफलता के झंडे गाड़े. याद रहे कि इनकी केवल पैदाइश या माता या पिता भारतीय मूल के होते हैं लेकिन उनकी शिक्षा विदेशी मानकों के अनुरूप ही हुई होती है और वे दुनिया को और खुद को उसी चश्मे से देखते हैं. हमारा जोर उनका नाम इस्तेमाल करने पर तो होता है लेकिन खुद के मानकों को सुधारने पर नहीं. इसका प्रमाण ये है कि आज भी अगर यहाँ के छात्रों को मौका दिया जाये तो वे यहाँ पढने की बजाय विदेश में पढना पसंद करेंगे और फोर्ब्स के अनुसार लगभग 4.6 लाख छात्र हर साल पढने के लिए विदेश जाते हैं. अगर हमारे देश में शिक्षा का यही हाल रहा तो भविष्य में यहाँ के छात्रों की गिनती उन जमूडों में होगी जिनका दिमाग कुंद है और जो बस डंडे से हांके जा रहे हैं एक अदद नौकरी पाने के लिए. उसके बाद शायद सभ्यता और संस्कृति भी भारत की लुटती इज्ज़त न बचा पाए.
Mar 4, 2015
प्यार तो बस प्यार ही रहता है..
जैसे
जैसे फागुन की गुलाबी बयार अंगड़ाई लेने लगती है वैसे वैसे मेरा मन अपने प्यार से
लिपटने को मचल उठता है. यूँ तो साल भर मैं सिर्फ सबके ज़ेहन में होती हूँ लेकिन
मेरे प्रीतम के आते ही मेरा रूप रंग संवारकर मेरा नया जन्म होता है. मेरा होना
सिर्फ तुमसे ही है. मुझे मेरे हमेशा हमेशा के प्यार होली से मिलने का सोच कर
गुदगुदी होती है और मैं भी तड़प उठती हूँ होली से मिलने के लिए. प्रिय होली,
तुम्हारे जाने के बाद जब डब्बों में टूटे टुकड़ों में रह जाती हूँ तब कितना कुछ
सोचती हूँ. तुम साल में सिर्फ एक बार आते हो और किस्मत देखो मेरी याद भी लोगों को
तभी आती है. अच्छा है ..वैसे भी प्रेम के इस त्यौहार में हमे अपने प्यार को महसूस
करने का मौका जो मिल जाता है. आते तो तुम प्यार लेकर हो लेकिन साल भर की तन्हाई और
इंतज़ार देकर चले जाते हो. लेकिन मैं तुमसे तब भी नाराज़ नहीं होती क्यूंकि जब तुम्हारे
बारे में सोचती हूँ तो एक नयी ऊर्जा के अनुभव के साथ मेरा जी करता है कि हर बरस
तुमसे यूँ मिलने के लिए तड़प बनी रहे. इसमें जो मज़ा है वो शायद साथ रहने में न हो.
अरे हाँ सुनो.. इस बार मेरा तोहफा लाना मत भूलना. तुम्हें याद है न पिछली बार तुम
भूल गए थे. तोहफ़े में जो ढेर कहानियां तुम मेरे लिए लाते हो , उन अनमोल कहानियों
को समेत कर में हर रोज़ तुममे ही जीती हूँ. याद है जब हम उस सुहानी शाम को नदी के
किनारे तेज़ हवाओं में हम साथ थे.. मैं तो टुकड़ों में बिखर ही जाती अगर तुमने अपने
गीले रंगों से मुझे भिगोया न होता. तब एक कहानी तुमने खुद मुझे सुनाई थी.. तुमने
मुझे बताया था कि तुम्हारे आने पर एक लड़ने ने राह चलते दूसरे लड़के को रंग में
सराबोर किया था.. कितना खिलखिला कर हँसा था वो पर उसे क्या पता था कि उसकी वो खिलखिलाहट उसके और उसके परिवार के लिए हमेशा का
दर्द बन जाएगी. वो दूसरा लड़का सिर्फ अपना मजाक बनने की वजह से कितना आहत हुआ था
काश वो पहला लड़का समझ सकता. अपने साथ लाठी लिए आये कुछ लोगों के साथ उसने अपने ऊपर
रंग गिराने की सज़ा हमेशा के लिए उसका पैर तोड़कर दी. मेरे रोंयें रोंयें काँप गए थे
ये सुनकर और याद है वो वाली कहानी जिसमे सिर्फ रंग डालने की वजह से पूरा शहर दंगों
से कराह उठा था. मुझे तो बस इतना समझ आया था कि इंसान ने इंसान पर रंग डाला था
लेकिन तुमने ही मुझे बताया था कि किसी हिन्दू ने किसी मुसलमान पर रंग डाला था. इस
बात पर में तुमसे नाराज़ भी हुई थी क्यूंकि तुमने मुझे कभी नहीं बताया कि ये हिन्दू
या मुसलमान क्या होता है. तुम हमेशा कहते रहे कि अपने को हिन्दू समझो पर कैसे,
मैंने तो खुद को ख़ुशी ओर मिठास का प्रतीक समझा था. मैं तो बस यही समझती हूँ कि मेरा आना लोगों को
ख़ुशी देता है. पर एक बात बताओ क्या इस प्रेम के त्यौहार को भी लोग अपने ग़ुस्से से
छोटा समझते हैं. क्या लोग प्रेम को भी छोटे-बड़े, मज़हबी और गैर मज़हबी, ऊँचे-नीच,
अमीर-गरीब जैसे तराजुओं में तोलते हैं. तुमसे तो मुझे बस यूँ ही प्यार हो गया था न
और प्यार तो किसी रूप में हो, बस प्यार ही रहता है. वहां इन सब का क्या काम. खैर
छोडो मैं भी क्या लेकर बैठ गयी. सही कहते हो तुम, “जब भी तुम बोलना शुरू करती हो
तुम्हारा मुंह बंद ही नहीं होता. टेपरिकॉर्डर की तरह बस बजती चली जाती हो.” पर
तुम्हारे इस तरह मुझे छेड़ने में जो प्यार होता है न बस में उसी को तुम्हारे चेहरे
पर देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे दुनिया भर के सारे सुख मेरी झोली में आ गिरे हों
जैसे. सुनो इस बार वो वाली कहानी सुनाना न जब मेरे जैसी एक प्रेम दीवानी को उसके
प्यार से मिलाया था तुमने. तुम्हारे रंगों ने न जाने क्या असर किया उस दीवानी पर ,
बस वो उसकी होकर रह गयी. शायद रंगों में छुपी उसके प्यार की छुअन का था वो असर. वो
कैसे शरमाई होगी न. खुद से ही लजाई होगी. उसे देखकर तुम्हें मेरी याद आई होगी ना.
आई ही होगी. कहो न कहो पर साल भर तुम भी मुझसे मिलने के लिए ऐसे ही मचलते हो न.
अच्छा सुनो इस बार पड़ोस वाली रेहाना आंटी भी आयीं थी मुझे सँवारने के लिए. पदमा
आंटी ने उनकी ऐसी आवभगत की कि पूछो मत. वो कह रहीं थीं कि अब वक़्त बदल रहा है. अब
सब एक जैसा सोचने लगे हैं. कोई अब भेदभाव नहीं करता. ये तो कुछ ऊंची कुर्सी वालों
की देन है. तुम्हारे आने पर जब कोई ऐसी ख़ुशियाँ मनाता है तो मेरा मन करता है उसके
मुंह में घुलकर उसकी स्वादेन्द्रियों को ऐसे मीठे स्वाद का अनुभव कराऊँ कि वो
मिठास साल भर के लिए बनी रहे. पता है इस बार मैंने यही सोचा है हमारे लिए. तुम
प्यार की गुलाबी फुहारें बरसाना और मैं अपनी मिठास से इस प्यार को दुगना कर दूंगी.
तुम्हारे आने पर सब और सिर्फ प्रेम ही प्रेम हो. न ही कोई झगडे न ही कोई बुरा
माने. और ये मैं करूँ भी क्यूँ न तुमसे प्यार जो है मुझे. तुम्हें जाने देने का
दिल नहीं करता लेकिन तुम जाओगे वापस आने के लिए, अपने साथ प्रेम की ढेरों कहानियां
लिए और हर साल की तरह तुम्हारी गुझिया तुम्हें हर घर की रसोई में तुम्हारा इंतज़ार
करते हुए ही मिलेगी.
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