भारत देश में एक अजब दौड़ चल
रही है, नम्बरों की दौड़, शिक्षक, छात्र, यूनिवर्सिटीज सब इस दौड़ में आँख बंद करके
दौड़े चले जा रहे हैं||लेकिन पहुंचना कहाँ है किसी को नहीं पता|आंकड़े इस बात की पुष्टि
करते हैं|हाल ही में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने कंप्यूटर साइंस की कट ऑफ लिस्ट जारी की
है जिसमे मेरिट 100 प्रतिशत रखी गयी है| बाकी विषयों की मेरिट भी 95 प्रतिशत से
100 प्रतिशत के बीच है| लगभग 3 लाख से अधिक एप्लीकेशन भी आ चुके हैं| लगभग हर विश्वविद्यालय में
यही हाल है| लखनऊ विश्वविद्यालय में भी बीकॉम जैसे विषयों की मेरिट 90 प्रतिशत से ऊपर रखी
है| एक नज़र में देखने पर ऐसा लगता है जैसे कि भारत के छात्रों की पढाई का स्तर
उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है लेकिन विश्व पर उच्च
शिक्षा में भारत के संस्थान और भारत के छात्र अदृश्य हैं| हम आज भी अच्छी शिक्षण सामग्री
के लिए विदेशों में पर ही निर्भर हैं| दूसरा पहलू अधिक संवेदनशील है कि क्या छात्रों के ज्ञान का
स्तर भी उनके नम्बरों जितना ही है?
सर्व शिक्षा अभियान की
शुरुआत 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को संतोषजनक गुणवत्ता की मुफ्त शिक्षा दिए जाने
के उद्देश्य से की गयी थी| उपस्थिति कम होने के चलते मध्यान्ह भोजन योजना (मिड डे
मील) की शुरुआत हुई| इन दोनों योजनाओं की प्रतिबद्धता शिक्षा की बेहतरी के लिए
थी लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ| मीडिया ने सैकड़ों बार इन योजनाओं और ऐसे स्कूलों की कलई
उजागर की है| गुणवत्तापरक शिक्षा के न होने पर मध्यम वर्ग निजी स्कूलों की तरफ रुख करने को
मजबूर है जहाँ एडमिशन के लिए उन्हें जेब ढीली करनी होती है| इसके बाद आठवीं तक बच्चों
को फेल करने पर मनाही है| इससे फायदे कम और नुकसान अधिक हुए हैं| फेल होने का डर न होने की
वजह से बच्चा और अभिभावक दोनों ही शिक्षा को महत्व नहीं देते और दसवीं में छात्रों
को फेल किये जाने पर परोक्ष रूप से रोक भी है| बोर्ड में कॉपी चेक करने वाले टीचर नम्बर देने
में उदारता दिखने लगे हैं क्यूंकि ऐसा न करने पर उनके खिलाफ कारवाई हो सकती है| शिक्षा का नया सत्र आरम्भ
होने को है| कॉलेजों में दाखिले की प्रक्रिया शुरू हो गयी है लेकिन सवाल जस का तस है कि
क्या इतनी अधिक मेरिट इस बात का प्रमाण है कि भारत देश में दूसरे देशों के मुकाबले
शिक्षा बेहतर है? आंकड़े इस सवाल का जवाब बेहतर देते हैं| उत्तर प्रदेश के ही आंकड़ों
की सुनें तो 2008 के बोर्ड एग्जाम में उत्तर प्रदेश में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे फेल
हुए| उसके बाद एकदम से पास होने वाले प्रतिशत में इजाफा हुआ और 2013 में ये आंकड़ा
घटकर 15 प्रतिशत के आसपास रह गया| प्रतिशत तो कम हुआ लेकिन पढाई का स्तर ऊँचा नहीं हुआ| और आजकल के परीक्षा
परिणामों पर गौर करें तो अब पास और फेल की बात नहीं रह गयी है अब 95 से 100
प्रतिशत की अंधी दौड़ है| 95 प्रतिशत से कम अंक पाने वाले छात्र औसत कहलाने लगे हैं| लेकिन कडवी सच्चाई यही है
कि अभी तक विषय की समझ रखने वालों का प्रतिशत न्यूनतम से भी न्यूनतम स्तर पर है और
बिहार में हुई नक़ल की तस्वीर तो देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी चर्चा का विषय
बनी| ये तस्वीर साफ़ साफ़ हमे आइना दिखाती है कि हमारे देश में जोर केवल मार्कशीट
में छपे नम्बरों पर है न कि ज्ञान अर्जित करने पर|
उच्च शिक्षा का हाल तो इससे
भी अधिक बुरा है| यूएसए और चीन दोनों देशों
को मिलाकर पास होने वाले इंजीनियर ग्रेजुएट से अधिक भारत में हर साल पास होते हैं| हर साल एक लाख एमबीए भारत के प्रबंधन
संस्थानों से निकलते हैं| एक हज़ार के आसपास पीएचडी की डिग्री
प्रदान की जाती है लेकिन फिर भी बेरोजगारी कायम है| इसका एक
कारण यह हो सकता है देश में नौकरियों की कमी हो लेकिन इस का बड़ा कारण यही दिखता है
कि गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है| सिलेबस समय से पूरा कराने और ज्यादा से ज्यादा
नंबर लाने पर ही कॉलेजों का सारा जोर रहता है| मानसिकता ये है कि केवल अच्छे नंबर
लाने वाले ही सफल है जबकि वास्तविकता में ज्ञान का नंबरों से कोई लेना देना नहीं
है| यदि हमें विश्व में अपनी पहचान बनानी है तो समय आ गया है
इस देश की शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव किये जाएँ और ये बदलाव प्राथमिक स्तर से
ही शुरू हों| जोर नंबरों पर नहीं बल्कि कौशल के विकास पर हो
जिससे हर बच्चा अपने हुनर को पहचान कर उसी क्षेत्र में आगे बढे|
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