ज्ञान की इस
दुनिया में अपनी बात को पुष्टता से कहने के लिए आंकड़ों की जरुरत होती है|आंकड़े जहाँ तथ्य की पुष्टि करते हैं वहीं भविष्य के विमर्श के
लिए रास्ता भी खोलते हैं | सभी आंकड़े एक निश्चित
शोध प्रक्रिया से हासिल होते हैं. आंकड़े वे आधार है जिनसे कथ्य में प्रमाणिकता
आती है |सोशल मीडिया में हम उन्हीं बातों पर ज्यादा महत्त्व
देते हैं जो आंकड़ों द्वारा पुष्ट किये गए हों चाहे वह किसी खास विषय जैसे विज्ञान
या साहित्य से जुडी हो या फिर जीवन या हमारी आदतों के बारे में. लेकिन गौर करने
वाली बात ये है कि इनमे से कितने शोध भारत के होते हैं? आंकड़ों पर नज़र
डालेंगे तो अमेरिका ने वर्ष 2008 में 48,802
पीएचडी की डिग्री प्रदान की. चीन के शिक्षा मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर
प्रकाशित सूचना के अनुसार चीन ने वर्ष 2010 में 48,069
पीएचडी की डिग्री प्रदान की. यानि की अमेरिका साल में सबसे ज्यादा डॉक्टरेट या
पीएचडी की उपाधि प्रदान करने वाला देश है. उसके बाद चीन और जर्मनी का स्थान आता
है. इस संदर्भ में भारत को अपनी जगह बनाने के लिए अभी लम्बी दूरी तय
करनी है फिर भी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज के अनुसार पिछले दस वर्षों
में भारत ने 45,561 पीएचडी की डिग्रियां प्रदान की. संख्या
बहुत अधिक कम है. 2010 में प्रकाशित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज, इनफार्मेशन एंड
लाइब्रेरी नेटवर्क सेंटर (इनफ्लिबनेट) और टाटा कंसल्टेंसी सर्विस की एक रिपोर्ट के
अनुसार भारत में रिसर्च एंड डेवलपमेंट विभाग,अकादमिक
रिसर्च में केवल तीन से चार प्रतिशत का निवेश करता है. इसी रिपोर्ट के अनुसार ही
भारत में उच्च शिक्षा के सभी छात्रों में से केवल 0.65 प्रतिशत ही पीएचडी के लिए
नामांकन करते हैं. शोध में छात्रों का घनत्व हमारे यहाँ केवल 1.49 है जबकि अमेरिका
में यह 139.5 ,122.4 चीन में, 71.0 जापान में, 28 जर्मनी में और
20.4 फ्रांस में है. आंकड़े अपनी बात स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमारे यहाँ शोध को
उतनी तवज्जो नहीं दी जाती .
उच्च शिक्षा में
शोध के रूप में होने वाला निवेशन रोजगारपरक नहीं है और इसलिए शोध महज शोध करने के
लिए हो रहे हैं समाज या विषय को समझने के लिए नहीं |महत्वपूर्ण
है कि भले ही हमारे विश्वविद्यालय आंकड़ों में पी एच डी की खानापूरी तो कर रहे हैं
पर जब बात वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता की आती है तो वहां हम काफी नीचे रह जाते
हैं |यानि शोध में गुणात्मक तौर पर भारत का कोई ख़ास योगदान
नहीं है पर संख्यात्मक द्रष्टि से भले ही आंकड़े एक बेहतर तस्वीर देते हों |
सांस्कृतिक रूप
से भारतीय समाज श्रोत परम्परा आधारित समाज रहा है जहाँ सवाल उठाने या पूछने की कोई
जगह नहीं रही है और यह एक बड़ा कारण है कि एक सामान्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा के
बाद एक अदद नौकरी करना चाहता है न कि वह एक पूर्णकालिक शोध कर्ता के रूप में विषय
या समाज को समर्ध करना चाहता है |इस मानसिकता को
बदलने की जिम्मेदारी युवाओं पर है और सरकार को शोधकर्ताओं को लगातार प्रेरित करना
होगा |
सबसे महत्वपूर्ण
क्षेत्र चिकित्सा विज्ञान में हालात कोई ख़ास उम्मीद नहीं जगाते | ज़्यादातर दवाइयां का पेटेंट विदेशी शोधकर्ताओं के पास हैं
समस्या के समाधान के लिए सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है सरकार हर साल पीएचडी
करने वालों को और इसके करने के बाद आगे शोध के लिए छात्रवृति और फ़ेलोशिप के रूप
में वित्तीय सहायता प्रदान करती है. यूजीसी हर साल जूनियर रिसर्च फेलोशिप के नाम
पर हजारों रुपये हर महीने एक शोध छात्र को देती है. यह सब इसलिए है जिससे बिना किसी
आर्थिक संकट के शोध छात्र आराम से अपने शोधकार्य को पूर्ण कर सकें लेकिन जमीनी
स्तर पर सच्चाई इसके विपरीत है.चूँकि भारत में शोध कार्य नौकरी की गारंटी नहीं
देते इसलिए शोधार्थी अपने शोध को खासकर मानविकी जैसे विषयों में उतनी गंभीरता और
प्रतिबधता से नहीं करते जितनी किसी शोध कार्य में उम्मीद की जाती है |
यू जी सी के पहल
शोध गंगा भारत के विश्विद्यालयों में हो रहे समस्त शोध कार्यों को एक साथ
ऑनलाइन लाने की अच्छी पहल है पर इस परियोजना को पर्याप्त रूप से समस्त
विश्विद्यालयों का समर्थन नहीं हासिल हो पा रहा है |
सोशल नेटवर्किंग
साईट्स के प्रसार और युवाओं की विशाल संख्या आज देश के सामने शोध के क्षेत्र में
उभरने का एक मौका दे रही है अब देखना है युवा इस अवसर का इस्तेमाल कैसे करेंगे |
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