हॉल में जाने का मौका नहीं
मिला तो मैंने लैपटॉप पर कल जय हो देखी. अच्छी लगी. बहुत ख़ुशी हुई ये देखकर कि किस
तरह एक आम आदमी इतने सारे बुरे लोगो पर भारी पड़ता है. बहुत अच्छा लगता है जब वो
भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ लड़ता है. अपने परिवार की रक्षा करता है खासकर आपनी बहिन
की जब फिल्म में एक बुरे चरित्र का व्यक्ति उसकी इज्ज़त पर हाथ डालता है. ज़ाहिर है
कि किसी भी आम इंसान को ये देखकर अच्छा ही लगेगा कि कोई तो है जो अच्छा सोचता है
और करता है. फिल्म में ही सही.
नहीं नहीं मैं फिल्म
समीक्षक नहीं हूँ. मैं बस आप सभी से अपने कुछ ओब्ज़र्वेशन शेयर करना चाहती हूँ.
एक सवाल : जो काम उस फिल्म
मैं एक हीरो ने किया अगर वही काम एक लड़की करना चाहे तो. एक आम लड़की, जिसके दिल में
देश के लिए बेपनाह मोहब्बत है, जो दुखी लोगो को देखकर खुद भी दुखी होती है और उनकी
मदद की हरसंभव कोशिश करती है. उसे भी भ्रष्ट राजनेताओं से उतनी ही चिढ़ है, इस
सिस्टम के खिलाफ वो भी लड़ना चाहती है पर वो नहीं कर सकती. क्यों ?
जवाब: वैदिक संस्कृति के इस
देश में लड़कियों को देवियों का दर्ज़ा तो दे दिया गया लेकिन सिर्फ दर्ज़ा दिया गया,
माना नहीं गया. अगर कोई भी लड़की समाज द्वारा बताई गयी उसकी हदों से बहार जाकर कोई
काम करना चाहे या करती है तो सबसे पहला काम कि उसके चरित्र का हनन कर दिया जाए.
ऐसा कुछ कहा जाए कि वो अपनी नज़रों में ही गिर जाए. इससे काम न चले तो उसके शरीर को
हथियार बनाओ. भगवान् ने उसे ऐसा शरीर दिया ही इसीलिये है कि जब जैसी ज़रुरत पड़े,
इस्तेमाल करो. इसके बाद भी अगर कुछ कहने की हिम्मत करे तो सामूहिक या अप्राकृतिक
बलात्कार जैसे अस्त्र कब काम आयेंगे. इसके बाद उसकी जान ले लेना ही एकमात्र उपाय
बचता है जो कि आजकल के दौर में आसान भी है.
थोडा हैवी हो गया ना. होने
दीजिये बेहतर है. हर बार चीज़ों को ज्यादा लाइट लेते लेते हम अपनी इंसान होने की
जिम्मेदारियां भी भूलते जा रहे हैं शायद. हमारा काम सिर्फ ख़बरें पढ़ लेना और उन पर
अफ़सोस भर कर लेना रह गया है. ज्यादा दुःख हुआ तो एक कैंडल मार्च निकल कर तसल्ली दे
ली खुद को.
अब एक और सवाल: लड़कियों के
सम्मान और मर्यादा के लिए इतनी बातें लिखी जाती है, सुनाई जाती हैं, दिखाई जाती
हैं, फिर भी ऐसा क्या है जो आपको रोकता है सही को सही या ग़लत को ग़लत कहने से. इसका
जवाब तो अब आपके पास ही होगा.
ये सिर्फ हमारे ही देश में
हो सकता है कि नवरात्रों में माता के पूर्ण आशीर्वाद के लिए हम नौ दिन कन्या खिला
सकते हैं पर एक कन्या को जन्म नहीं लेने देना चाहते.
अपनी बेटी को विदा करते
वक़्त अपने खाली बैंक अकाउंट के लिए ससुराल वालों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं पर वही
बैंक अकाउंट भरने के लिए दहेज़ लेने और बहू को गाहे बगाहे तंग करने से नहीं चूकते.
बचपन से लड़कियों को राधा और
दुर्गा के रूप में देखकर खुश होते हैं पर ना तो राधा की तरह उन्हें प्यार करने का
हक़ है और ना ही दुर्गा कि तरह अपनी शक्तियों को पहचानने का.
किसी भी लड़की को जीने के
लिए एक पति नाम के सहारे कि ज़रुरत होती है. हसने वाली ही बात है कि बचपन में देवी
रूप में पूजी गयी कन्या को ख़ुशी भी एक सहारे से नसीब होगी और इस नियम के विरूद्ध
जाने कि कोशिश कि तो वही एक हथियार.. चरित्रहनन .
लड़कियों से हर बात पर अग्नि
परीक्षा की उम्मीद की जाती है. रामायण काल से चला आ रही है ये परंपरा. अकेले चलना
चाहा तो अग्निपरीक्षा, लीजिये हमने एवरेस्ट फ़तेह करके दिखा दिया. पढ़ना चाहा तो
अग्निपरीक्षा, लीजिये हमने हर बार बोर्ड के पेपरों में लड़कों से अव्वल आकर दिखा
दिया. उड़ना चाहा तो भी अग्निपरीक्षा, तो लीजिये हमने अंतरिक्ष तक पहुँच कर दिखा
दिया. आत्मनिर्भर होना चाहा तो अग्निपरीक्षा, लीजिये हमने सभी शीर्ष कंपनियों का
सरताज बनकर दिखा दिया. एक छोटी सी बात समझने में इस समाज को कितने वर्ष और लगेंगे
कि अब वो दौर गया जब भगवान्, समाज, परिवार, दुनियां और इज्ज़त का डर दिखाकर लड़कियों
को उनकी मंजिलों तक ना पहुँचने दिया जाता था . बदलाव हो भी रहा है और आगे भी
होगा.
मैं वही एक लड़की हूँ, एक आम
लड़की, जिसके दिल में देश के लिए बेपनाह मोहब्बत है, जो दुखी लोगो को देखकर खुद भी
दुखी होती है और उनकी मदद की हरसंभव कोशिश करती है. उसे भी भ्रष्ट राजनेताओं से
उतनी ही चिढ़ है, इस सिस्टम के खिलाफ वो भी लड़ना चाहती है पर लड़ नहीं सकती. क्यों?
आप सोचिये.
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