पेरिस
में हुए एक मैगज़ीन पर हमले के बाद फिर से पुरानी बहस छिड़ गयी है कि बोलने के
अधिकार की आज़ादी का कितना उपयोग होना चाहिए और उसकी क्या सीमायें होनी चाहिए.
ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने यह कहकर विवाद को और बढ़ा दिया है कि वाक् एवं
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत किसी भी धर्म की भावनाओं को आहत किया जा सकता
है जबकि पोप फ्रांसिस का कहना है कि किसी भी कारण से किसी धर्म का अपमान ग़लत है.
दुनिया भर के बुद्धिजीवियों की इस मुद्दे पर अलग अलग राय बन रही है. ऐसा नहीं है
कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल पहली बार खड़े हुए हैं. लेखिका तसलीमा नसरीन अपनी अभिव्यक्ति के रूप
में किताब लिखने के बाद से देश निकाला झेल रही हैं. यदि भारत के परिप्रेक्ष्य में
देखें तो चित्रकार एम एफ हुसैन भारत में पदम् श्री, पदम् भूषण और पदम् विभूषण से
सम्मानित हुए और राज्य सभा के लिए भी नामित किये गए. हिन्दू देवियों के आपत्तिजनक
चित्र बनाने पर उन्हें जान बचाने के लिए भारत छोड़ कर क़तर की शरण लेनी पड़ी. भारत
में ही दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू को अपनी बेबाक बयानबाज़ी के लिए लोगों के ग़ुस्से का सामना करना
पड़ा. सोशल मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा है. बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार पर मुंबई
की रहने वाली 2 लड़कियों को शिव सेना के एक बड़े अधिकारी के कहने पर पुलिस द्वारा
गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने बाल ठाकरे की मृत्यु पर मुंबई बंद का विरोध किया
था. सवाल वही है कि हम कितना बोलें और
कितना न बोलें . क्या सरकार इस बात का निर्णय लेगी या फिर सीमायें हम खुद चुनेंगे.
भारतीय संविधान में हमे छः मूल अधिकार दिए गए हैं जिनमे वाक् एवं अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का अधिकार भी है और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी. धर्म निरपेक्ष
देश होने के नाते यहाँ सभी धर्मो का सम्मान करना अनिवार्य है. भारत में भी गाहे
बगाहे धार्मिक अपमान के मुद्दे उठते रहते हैं. हाल ही में आयी फिल्म पीके पर भी
विवादों का साया रहा. आमिर खान के मुसलमान होने के कारण उन पर सिर्फ हिन्दू धर्म
में आडंबर दिखाए जाने व बाकी धर्मो पर बात न करने के आरोप लगे. यह फ़िल्म राजकुमार
हिरानी की थी और फ़िल्मकार व्यावसायिक फ़ायदे को ध्यान में रखते हुए समाज को सन्देश
देता है और कहना ग़लत न होगा कि भारत में हाल ही में कई पाखंडी बाबाओं के मामले
देखने को मिले हैं. हालांकि कोई भी धर्म ऐसे पाखंडियों से अछूता नहीं है. खैर मुद्दा यह फ़िल्म नहीं है, मुद्दा ये है कि
क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन केवल धार्मिक मामलों में ही लागू होता
है? क्या धार्मिक मामलों पर इसलिए नहीं बोला जाना चाहिए क्यूंकि उससे किसी समुदाय
विशेष की भावनाएं आहत होती है या फिर धार्मिक भावनाओं के अलावा भी इस अधिकार के
उल्लंघन को देखा जाना चाहिए और इसकी सीमाओं का निर्धारण होना चाहिए? यदि निर्धारण
होगा तो कौन इसकी सीमायें निर्धारित करेगा?
सवाल
कई हैं और इन सवालों का हल भी संविधान के पास ही है. संविधान में मूल अधिकारों के साथ
मौलिक कर्तव्यों की भी बात की गयी है. मौलिक कर्तव्यों में से एक कर्तव्य ये भी है
कि नागरिक देश में सभी धर्मों के सम्मान करते हुए भाईचारा बना कर रखेंगे और एक
कर्तव्य ये भी है हिंसा का त्याग करते हुए जान माल को हानि नहीं पहुंचाएंगे. ऊपर
लिखी बातों को कहने का तात्पर्य बिलकुल
स्पष्ट है कि कोई भी अधिकार अपने साथ कुछ कर्तव्यों को लेकर आता है. यदि हमे
अधिकार मिले हैं तो साथ ही कर्तव्यों का पालन करना भी अनिवार्य है. यदि हम
अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी तरफ हमारा कर्तव्य भी है कि हम सभी धर्मों का भी
सम्मान करें. देश की अखंडता को बनाये रखें. बोलने की आज़ादी पर रोक लगाना सांस लेने
पर रोक लगाने जैसा होगा लेकिन यदि स्वयं ही खुद के लिए बोलने की सीमायें निर्धारित
कर ली जाएँ तो शायद यह इतना मुश्किल भी नहीं होगा. स्वयं के बुद्धि-विवेक का
प्रयोग करते हुए यदि हम उतना ही बोलें जितना ज़रूरी है तो शायद मुश्किलें कुछ हद तक
कम हो सकती हैं. हमारे पास बोलने की आज़ादी हो, लिखने की आज़ादी हो लेकिन जो देश की
अखंडता को प्रभावित करते हुए देश को छोटे-छोटे धार्मिक या सामाजिक खंडों में हमेशा
के लिए विभाजित कर दे, ऐसे शब्द लिखने और बोलने की आज़ादी नहीं होना ही अच्छा है.
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