Mar 24, 2016

The marriage we don't talk about ..




Marriages are an imperative part of the Indian society: Socially and psychologically. Socially because every single person wants to achieve a well thought-of social status and automatically it becomes the reason for psychological importance of marriage. It is natural for us to congratulate and give our best wishes for the future when we come to know that someone is about to get married. But will we do the same or react in a similar fashion if the couple getting married is of the same sex? Most of us will definitely react negatively or at least we would be hesitant in passing our blessings to such a couple. In a country like India where marriages are the legal and social license to have sex, the reservations about same sex marriages have to do more about two individuals indulging in a physical relationship with the person of the same gender than the idea of marriage itself. The idea of being homosexual offends majority of the people because of the long held notion of it being immoral and evil which is the result of the age-old dogmas to which the individuals still subscribe to. Even in heterosexual marriages the topic of sex remains a taboo and as a society we don’t acknowledge it. When such rigidity is displayed in the case of socially approved heterosexual marriages then such taboo marriages will hardly find any approval.

Another argument apart from homosexuality being unnatural is that of conceiving a child in the case of same-sex marriages. For the Indian society conception of a child is not about choice but it is a duty for the married couple to procreate so naturally same sex couples are incapable of it by themselves; even though surrogacy and child adoption can be used to overcome this hurdle.

Section 377 of the Indian Penal Code, a remnant of the colonial era, states that sexual intercourse against the order of the nature is a punishable offence. Even though same-sex relationships have been found to be fairly common in the animal kingdom therefore it should be deemed natural and not unnatural because it goes against our societal or religious views. During the 2000s in some parts of America and Europe the civil movement for legalizing the same sex marriage got significant recognition. Now around 23 countries in the world including the United States of America have legalized same sex marriages.

The self-proclaimed saints and the saviors of the Indian culture are another force who continuously try to derail the processes of social acceptance of same-sex couples. Baba-Ramdev called homosexuality a disease which he assures can be cured with the help of Yoga. The biggest irony here being that even though these the proponents of religion and culture yet they seem to be as ignorant about it as anybody else. As per Hindu mythology, in Shiva Purana the union of Shiva and Mohini results in parturition of Hanumana. In another tale, Aravana the son of Arjun and Ulupi, the Naga princess, has to sacrifice himself in the battle of Kurukshetra for the victory of Pandavas but the only wish he had was that he didn’t want to die unmarried. Shri Krishna then transubstantiates himself into Mohini for one day and even spends the night with Aravana as his wife and the next day even observes the customs of mourning which are expected of a widow when Aravana dies. In the Southern Indian region, the Villagers perform the eighteen day epic kurukshetra and on the last day mourn the death of Aravana like his widows. Transgender form a bulk of these mourners. There are ample of tales and stories which give enough grounds to the fact that same sex marriages have been a part of the Hindu mythology. Similar disapproval can also be found among the religious leaders and the clerics of almost every religion. They do not agree on any single point in the name of religion but they all tend to agree against homosexuality calling it a malady that needs to be deracinated.

The big question remains that how can a mere orientation of affection towards a particular sex appear to be wrong in the eyes of the religion and the law? The constitution of India provides for one’s personal liberty and freedom and ensures that no one is able to deprive an Indian citizen of this fundamental right. The state cannot discriminate anyone on the grounds of religion, sex, race, cast, color, creed or place of birth.  According to the data provided by the Ministry of Health to the Supreme Court in 2012, our population includes 2.5 million homosexuals. So as per the concept of fundamental rights, homosexuals also have an equal liberty lo live life as they want and with whomever they want. Few years back, Delhi High court decriminalized the section 377 that Supreme Court unturned.  Now one of the most marginalized and abused section of our society is hoping to breathe free through gaining social acceptance and recognition. They are asking for nothing more, than to stop discriminating against them on the grounds of sexual orientation.

We definitely need to extend this recognition and acceptance after all the broader the perspective the better will be the growth of mental health of the nation. 


Mar 13, 2016

जवाब

समाज के सवाल हमेशा से एक जैसे थे .. आज की लड़की का जवाब कुछ बदल गया है 

पहले पड़ता था फर्क तुम्हारे कहने से, अब आज़ादी में सांस लेना तुमसे ज्यादा ज़रूरी है. कभी चाहिए था तुम्हारा हाथ सहारे के लिए अब कहो तो हाथ बढ़ा सकती हूँ सहारा देने के लिए. कभी खुलकर हँसना भी था गुनाह तुम्हारी नज़र मे, आज हँसाने का माद्दा रखती हूँ . कभी चाही थी तुमने अग्निपरीक्षा हर एक कदम पर, आज तुमसे सवाल कर पाने की ताकत रखती हूँ.
तुम कहते हो बंधन हमारी सुरक्षा हैं लेकिन क्या कहोगे जब घर में ही बेआबरू होते हैं हम. मेरी जिंदगी के फ़ैसले लेने का हक एक आदमी को देना कैसे जायज़ लगा तुम्हें? शादी न करने की ज़िद पर तुम सब मिलकर मुझे ताने मारते हो और कहते हो कि शादी करने का फ़ैसला मेरा था. अरे फ़ैसला करने का हक था ही कब.. ये सब तुम्हारे नियम हैं जो तुम्हारी सहूलियत के हिसाब से बदल जाया करते हैं. जानते हो एक अच्छी बात क्या है, मैंने तुम्हारी सुनना ही बंद कर दिया है. मेरा दिल अगर कहेगा सही तो वो सही और कहेगा ग़लत तो मेरे क़दम ज़रूर रुक जायेंगे. तुमसे पूछना तो कबका छोड़ दिया मैंने लेकिन बताना भी अब छोड़ रही हूँ. तुमने कहा था कि मुझे दुनियाँदारी की समझ कहाँ, सच कहूँ तो समझ तुम्हें नहीं जो मुझे समझ नहीं पाए. समझ पाते तो यूँ आज मुंह की न खाते. तुम्हारे ही बनाये नियमों में उलझाकर आज एक कोने में समेट न दिए जाते. मुझसे उम्मीद बेमानी है कि मैं वापस आउंगी तुम्हारे हिसाब से जीने. मेरी उडान को रोक पाना तुम्हारे अहं के बस की बात नहीं. लाख़ बुराइयाँ पैदा कर लो अपने अन्दर, लड़ने के लिए मैं पहले से अधिक उत्साहित हूँ. कितना एसिड फेंकोगे, मेरी त्वचा जला सकते हो मेरा द्रढ़ निश्चय नहीं. मेरी इज्ज़त का मखौल बनाना अच्छा लगता है तुम्हें लेकिन तब क्या जब मेरे काम करने की लगन उसे भी परास्त कर दे.

एक अंतिम बार कुछ बताती हूँ तुम्हें, इत्मिनान से सुनो..  हूँ मैं एक नए ख़यालात वाली लड़की लेकिन बिंदी लगाना मुझे बहुत पसंद है. इसलिए नहीं कि मुझे लगानी चाहिए इसलिए क्यूंकि ये मेरे माथे पर अच्छी लगती है. हूँ तो मैं कामकाज़ी लड़की लेकिन चूड़ी पहनना मुझे बहुत पसंद है.. इसलिए नहीं कि हाथ खाली अच्छे नहीं लगते बल्कि इनकी खनक मेरे कानों को भाती है. हूँ तो मैं अपने मन के कपडे पहनने वाली लड़की पर पायल पहनना मुझे बहुत पसंद है.. आप कहेंगे ऐसे कपड़ों पर पायल ? ये मेरा तरीका है अपने पैरों को सजाने का न कि पांव की बेड़ी बनाने का. गहने मुझे वही चाहिए जो मेरे साथी होने का एहसास दिलाते हों न कि किसी दूसरे को घर की इज्ज़त दिखाने भर के लिए एक भार.. हूँ तो मैं इस समाज की एक आम लड़की लेकिन जिंदगी जीने अंदाज़ मेरा अपना है. मेरे सपने मेरा हौसला हैं और मेरी मुस्कराहट मेरी हिम्मत. आगे बढ़ना मेरी नियति और नए लोगों का आना और पुराने लोगों का जाना मेरी किस्मत. आज की लड़की ऐसी ही है. साहसी, सपने देखने और और उनको पूरा करने का दम रखने वाली और समाज की पुरानी बेड़ियों को जड़ से तोड़ कर फेंक देने वाली लेकिन दिल में उतना ही प्यार और समर्पण लिए अपनों के लिए जीने वाली. हमारा क़ायदा सिर्फ एक बात जानता है .. जिंदगी को अपने हिसाब से जीना और अपने देखे हर ख़्वाब को मंज़िल देना. अरे हाँ .. वक़्त बदल गया है, बेहतर है तुम भी बदल जाओ कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी ज़रुरत ही ख़तम हो जाये. हमेशा हमेशा के लिए. 

    

Jan 12, 2016

जद्दोजहद

नौकरी करते करते  2 साल गुज़र गए. उम्र यही कोई सिर्फ 25 साल की है. सब कुछ तो है मेरे पास.. मैं तो खुश हूँ. सच मैं हूँ?
नहीं.. बिलकुल नहीं. अक्सर जब अपने कमरे पर अकेले बैठकर अपनी जिंदगी के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि ये वो जिंदगी बिलकुल नहीं है जो मैंने खुद के लिए कभी सोची थी. सुबह खुद के लिए खाना बनाकर कॉलेज जाना, बच्चों को पढ़ाना और शाम को आकर फिर से घर के काम करने के बाद पढना और लिखना. रविवार इसी ऊहापोह में बीत जाता है कि घर के पचास काम निपटाने हैं और अगले हफ़्ते के लिए कपडे धुलकर रखने हैं. ये सब तो लड़कियों की जिंदगी में अक्सर शादी के बाद हुआ करता है. मैं तो अभी अकेली हूँ. कोई कहने सुनने वाला भी नहीं. दूर से देखने वाले लोग भी कहते हैं.. राधिका ने भी क्या जिंदगी पाई है. कॉलेज ख़तम होते ही नौकरी. पीएचडी चल ही रही है. दो साल में नाम के आगे डॉक्टर लग जायेगा, कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं. बस और क्या चाहिए. पर क्या वाकई? यही जिंदगी है? पढाई, अच्छी नौकरी, शादी के सपने.. बस? दिल कहता है सब छोड़ कर कहीं निकल जाऊं कुछ दिन लेकिन फिर दिमाग कहता है नौकरी छोड़ कर जोश में जाने से कुछ नहीं होगा. धीरे धीरे प्लान करके सोच कर आगे बढ़ते हैं. लेकिन वही ढाक के तीन पात. दिन निकलते जाते हैं और कुछ “अलग” जो करना चाहती हूँ सिर्फ ख़्वाब में करके रह जाती हूँ. दिमाग हमेशा जीत जाता है. अक्सर ऐसा उन सभी लोगों के साथ होता है जिनको जिंदगी से कुछ अलग चाहिए. 

मुझे ये सही से नहीं पता कि मुझे क्या चाहिए बस कुछ अलग चाहिए.कभी समाज सेवा, कभी माउंट एवेरेस्ट चढ़ने का ख़्वाब, उस हॉलीवुड पिक्चर वाइल्ड की हीरोइन की तरह अकेले ट्रेकिंग पर जाने का सपना, कभी छत पर कान में ईयरफोन लगा कर गाने सुनते हुए उसी गाने पर एक बड़ी सी स्टेज पर हजारों लोगों के सामने खुद को दिल खोल कर नाचते देखने की चाहत, कभी किसी फ़िल्म में एक्टिंग करने के बारे में सोचना और सबसे बेहतरीन, दुनियां देखने के लिए अकेले निकल जाना. पता नहीं कितने वक़्त के लिए. इनमे से होता कुछ भी नहीं बस होते हैं दुनियां से अलग जाने के अरमान.
न बॉयफ्रेंड, न पति , न पैसा, न रुतबा, न लोग.. कुछ नहीं चाहिए मुझे. बस खुद के अन्दर बैठे उस इन्सान को ख़ुशी से नाचते हुए देखना चाहती हूँ. पर समस्या है कहाँ? मैं कुछ भी करने से डर क्यूँ रही हूँ. पहले तो कभी नहीं डरी. समय से पहले बड़ी हो गयी हूँ शायद. जोख़िम उठाने को हर वक़्त तैयार रहने वाला हिसाब तो बच्चों जैसी बुद्धि वालों का होता है. साफ़ भाषा में उन्हें गधा या बेवकूफ़ कहते हैं. जब ऐसे लोग कभी-कभी जब रिस्क उठाकर आगे बढ़ते हैं लोग तो दो तरह की चीज़ें होती हैं या तो वो कुछ हासिल कर जाते हैं या फिर उस गुमनामी में गुम होकर वापस उसी जिंदगी में लौट आते हैं और लौटने के बाद लोग उसका जीना मुश्किल कर देते हैं. कहेंगे बेवकूफी कर दी. एक बार सलाह ले लेता.
अब मैं क्या करना पसंद करुँगी. डर लगता है जब सोचती हूँ कि इस सधी हुई जिंदगी से दूर  भागकर आखिर मैं क्या हासिल करना चाहती हूँ. कदम रुक जाते हैं. लेकिन फिर मेरे अन्दर की राधिका कहती है कि मत करो ऐसा. कम से कम तुम तो उन लोगों में शुमार नहीं हो सकतीं जो मजबूरियों में जिंदगी बिता देते हैं. तुम्हारे पास परिवार है जो हर तरह से तुम्हारे साथ है, भरोसा करता है, तुम पर भी और तुम्हारे सपनों पर भी. फिर किस बात का डर है. भिड़ जाओ इस जिंदगी से. लड़ लो अपने देखे सपनों के लिए. कदम आगे बढ़ते हैं पता नहीं क्यूँ फिर रुक जाते हैं. दुनियां की बातें सुनने से डरती हूँ शायद.
लेकिन क्यूँ राधिका, फिर मेरे अन्दर की राधिका जवाब देती है: जब आज तक दुनियां की परवाह नहीं की तो अब क्यूँ. तुम्हें याद है जब कॉलेज में तुम्हारे अफेयर के किस्से आम बात हुआ करते थे जिनके बारे में तुम्हें खुद नहीं पता था. लेकिन तब भी तुम लड़ गयीं थीं, तब तुम नहीं हारी, पढ़ती रहीं.. आगे बढती रहीं तुम ... वही लोग तुमसे मदद मागने आने लगे जो कभी हँसा करते थे तुम पर.. तो फिर दुनियां का इतना डर अब क्यूँ ? अब क्यूँ राधिका अब क्यूँ.
लोग बोलते रहेंगे बोलने दो. एक बात याद रखना तुम , तुम्हें बड़ी जिंदगी जीनी है, लम्बी नहीं. इस बार अगर तुमने अपने क़दमों को आगे नहीं बढ़ने दिया तो फिर तुम कभी नहीं कर पाओगी. राधिका कोई तुम्हें पसंद करे न करे, कोई तुम्हें चाहे न चाहे, कोई तुम्हारी जीत के लिए खुश हो न हो, ये तुम्हारे अन्दर बैठी राधिका तुमसे बेपनाह मोहब्बत करती है, तुम्हारे सपनों में जीती है, आगे बढ़ो राधिका.. इस बार रुकना नहीं.
मैं खुश हूँ अब. मैंने अपनी रूममेट से कह दिया है कि कोई और रूममेट ढूढ़ लो. मैं तो चली.. कहाँ ? जिंदगी जीने. नौकरी छोड़कर? हाँ . उसने कहा, “तुमसे न हो पाई है”.
अनसुना कर दिया मैंने.
सब सोच लिया है मैंने . कल जाकर रिज़ाइन करुँगी और फिर पैकिंग. कॉलेज में सब पूछेंगे तो कह दूंगी कि कुछ पर्सनल रीज़न है. सबको क्यूँ बताऊँ कि क्या करने जा रही हूँ. जो सोचना है सोचते रहें.  अभी सामान ज्यादा नहीं ले जाना है. अलमारी अभी दोस्त के यहाँ रख दूंगी. वाटर कूलर छोड़ दूंगी, क्या करुँगी ले ज़ाकर. कूलर यहीं किसी को बेच दूंगी. अपने कमाए पैसों से ख़रीदी टीवी को घर छोड़ दूंगी. बाकी कुछ ऐसा है नहीं. हो जायेगा सब.
मैं अब बिस्तर पर पड़ी नींद के आने के इंतज़ार में हूँ. कल्पना में डूबी हूँ. कल के बाद मेरी जिंदगी बदलने वाली है. सुबह के चार बज गए. आँखों में नींद ही नहीं है. कूलर भी इतना आवाज़ कर रहा कि नींद आएगी कैसे. चेहरे पर एक मुस्कराहट आ गयी. पागल है तू भी.
सुबह के आठ बजे नींद खुली. टिफ़िन पैक करके कॉलेज के लिए निकली. पर ये हुआ क्या है मुझे? वो रात वाली बात क्यूँ नहीं है. अपनी पापा की दी हुई स्कूटी पर भी सोचती रही.. क्या सही कर रही हूँ मैं? कुछ न कर पायी तो? क्या करूँ? करूँ या न करूँ? कॉलेज में स्कूटी स्टैंड पर लगा कर हेलमेट और ग्लव्स उतारते वक़्त दिल कुछ बोला ही नहीं. सर को सामने देखा. गुड मोंर्निंग किया और चली आई स्टाफ रूम में. सामान रखते हुए मेरी रूममेट की बात दिमाग में घूमने लगी. “तुमसे न हो पाई है”
ग्यारहवीं बार 11 बज गए. चलूँ अब.. क्लास लेनी है.


एक गूंगे ने कहा कि मुझे गूंगा रहने दो

एक गूंगे ने कहा कि मुझे गूंगा रहने दो.. अब आप कहेंगे कि गूंगे ने कैसे कह दिया तो जी बात ये है कि बोलने वाले इतना ज्यादा बोलते हैं कि गूंगे को आखिरकार कहना पड़ा कि मैं गूंगा ठीक हूँ..
हुआ कुछ यूँ एक दिन गूंगा अपनी रह चला जा रहा था, रास्ते में उसे एक नेता मिले .. वो चौंका, आप कैसे? आप तो इस दुनियां से कबके विदा हो गए? वो नेता बोले, ए गूंगे, तुम विपक्ष के नज़र आते हो तभी मुझे देखकर खुश नहीं हो. किस धर्म के हो? जाति क्या है तुम्हारी? रिजर्वेशन से पढ़े हो या फिर कोई और आरक्षण की मांग के सिलसिले में चले जा रहे हो? गूंगे का सर चकराया, बोला, मैं कहाँ कुछ करूँगा नेताजी, वो तो दो दिन हो गए रोटी खाए, पेट भरने जुगाड़ करने जा रहा हूँ. नेताजी थोडा और गुर्र्राए.. जुगाड़? अब समझ आया कि तुम जैसे लोगों ने ही इस देश का ये हाल कर रखा है. जुगाड़ से काम चलाते हो. मेहनत तो करना ही नहीं चाहते, हमें देखो, हम तुम्हारी तरह की छोटी मोटी जुगाड़ लगाते तो तुम्हारी तरह ही पानी पीकर पेट पर हाथ फेर कर सो जाते. तुम जैसे लोगों की वजह से ये देश आज तक पिछड़ा हुआ है.. इस देश का उद्धार केवल तभी होगा जब तुम हमारे साथ जुड़कर जुगाड़ लगाओगे, हम सबको हाथ में हाथ डालकर चलने की ज़रुरत है.. नेताजी बोलते ही जा रहे थे.. गूंगे को भूख लगी थी .. क्या करता, दबे पांव वहां से निकला और तेज़ी से भागने लगा.. भागते भागते उसने पीछे देखा, ठहाके के साथ वो नेता हस रहा है, पर उनका चेहरा अलग सा है. उनके पैरों के पास एक मुखौटा पड़ा है.. कुछ समझा नहीं ..सोचा शायद उसकी किस्मत पर हँस रहा होगा. थोडा आगे निकल कर उसने चैन की सांस ली.. थोडा रुका और फिर रोटी की तलाश में निकल पड़ा.. एक मोटे ताज़े, हट्टे कट्टे आदमी ने उसका रास्ता रोका.. पूछा रोटी खाओगे ? गूंगे को बस मुंह मांगी मुराद मिल गयी.. उसके कहा कहाँ है रोटी? मुझे बहुत ज़ोरों की भूख लगी है.. मुझे रोटी दे दो.. उस आदमी ने कहा ..रोटी तक का रास्ता तेरे ही पास है. बस तू पहचान नहीं पा रहा.. गूंगे ने सर खुजलाया, पूछा कहाँ है रोटी... उस आदमी ने कहा कि आँखें बंद करके अपने ईष्ट को याद कर बस. गूंगे ने किया लेकिन रोटी नहीं आई. उस आदमी ने कहा कि लगता है कि तेरा ईष्ट तुझसे नाराज़ है.. तेरे पापों की वजह से आज तू भूखा मरने पर मजबूर है. गूंगे ने पैर उस आदमी के पैर पकडे. कहा, मैं माफ़ी मांगता हूँ.. क्या करूँ अपने ईष्ट को मानने के लिए जिससे वो मुझे रोटी दे दे.. आदमी बोला, कुछ नहीं..  बस जो तेरी श्रद्धा हो उतना चढ़ावा मुझे दे दे.. मैं तेरे इष्ट को दे दूंगा और तेरी समस्याओं का हल हो जायेगा, गूंगे ने कहा मेरे पास कुछ नहीं है महाराज.. नरक की आग में जलेगा तू.. आदमी चिल्लाया, गूंगा डर के भागा.. भूखे पेट भागते नहीं बन रहा था. बेदम होकर वहीँ पड़ गया .. खुद से जूझता गूंगा उठा और जैसे तैसे घर पहुंचा.. इस उम्मीद में कि बीवी कहीं न कहीं से रोटी शायद लायी हो ..सकुचाते हुए पूछा .. रोटी मिल जाएगी क्या खाने को? बीवी पैर पटकते और दांत पीसते हुए बोली कि कौन सी रोटी खिलाऊ तुम्हें? वो जो नयी सरकार के साथ आने वाली थी अभी तक आई नहीं या वो रोटी जो पिछली सरकार सपने में मुझे पकड़ा गयी थी तुम्हें खिलाने के लिए. गूंगा शर्मिंदा हो गया. सोचा रहा था कि उसने पूछा ही क्यूँ. आखिर बीवी भी तो भूखी होगी. गूंगे को कुछ न सूझा बस वो लगा रोने. रोता रहा , सिर्फ रोता रहा , खूब रोया, बीवी को देख कर रोया, उभरी पसलियों के ढांचे हो गए अपने बच्चों को देख कर रोया. रात भर रोया.
सुबह हुई तो नाम का गूंगा अब सच में गूंगा हो गया. उसने कुछ भी कहना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए. एक जगह बैठा रहता. बीवी ने सोचा उसका ताना कहीं इसकी जान न ले ले.. माफ़ी दर माफ़ी का दौर चला पर गूंगा टस से मस न हुआ. बीवी, बच्चे जो कुछ खाने को लाते थोडा बहुत खिला देते. यही गूंगे के प्राण को रोके हुए था. धीरे धीरे ऐसे लगा जैसे कि कोई समाधिस्त बाबा बैठा हो.
संयोग से वो हट्टा कट्टा आदमी वहां से गुज़रा, उसे देख कर बस चरणों में पड़ गया.. बाबा तुम कहाँ थे, कब से ढूंढ रहा हूँ, गूंगा अब सच में गूंगा था तो न बोला. आसपास गुज़रते लोगों को समझते देर न लगी कि कोई महान बाबा यहाँ आकर बसे हैं. पाखंड ने आकार लेना शुरू कर दिया. गूंगा कुछ न बोला. अब रोटी की कोई कमी न थी. उसके आगे खाने का ढेर लगा रहता.
एक दिन गूंगे ने देखा कि राह में मिला वो आदमी और मुखौटा लगाये वो नेता पैसों और सामान का लेन देन कर रहे हैं. गूंगे ने सोचा कि बोलूं कि आखिर तमाशा क्या लगा रखा है, जमे हुए होठ की पपड़ी को गीला करके जीभ को जगाकर बोलने जा ही रहा था कि रुका, फिर सोचा कि जिस रोटी  के लिए दर दर भटका वो यहीं मेरे सामने है.. बोला तो शायद इससे हाथ धोना पड़े और गूंगा फिर से गूंगा बन गया.अपने मन में बोला .. मैं गूंगा ही ठीक हूँ.


Aug 22, 2015

असल इंडिया डिजिटल तब होगा जब...........

भारत सरकार ने यहाँ की आवाम को डिजिटल इंडिया का सपना दिखाया है. डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के नौ स्तम्भ रखे गए हैं ब्रॉडबैंड हाईवे, फोन तक सबकी पहुँच, जनता के लिए इन्टरनेट प्रोग्राम, इ-गवर्नेंस, इ-क्रांति, सभी तक सूचना का प्रसार, इलेक्ट्रॉनिक सामान का, सूचना तकनीक के क्षेत्र में नौकरियां, आरंभिक फसल प्रोग्राम| इसके अलावा सरकारी विभागों में सभी रिकार्ड्स के साथ साथ रिपोर्ट्स भी ऑनलाइन ही भेजी जाएँगी. इस प्रोग्राम के तहत आप डिजी लाकर का इस्तेमाल करके अपने दस्तावेज़ सुरक्षित कर सकते हैं, मोबाइल पर ही अधिक से अधिक सरकारी सुविधाओं का प्रयोग कर सकते हैं मसलन बैंक के कार्य, जन्म मृत्यु प्रमाण पत्र, बिल आदि. व्यापार के क्षेत्र में इ-कॉमर्स मददगार होगी. डिजिटल इंडिया के तहत जिस क्षेत्र के बारे में बात करना सबसे ज़रूरी है वह है शिक्षा का क्षेत्र. इस प्रोग्राम के अंतर्गत भारत के सभी स्कूलों को ब्रॉडबैंड से जोड़ा जाना है. हर स्कूल के अन्दर वाई-फाई, डिजिटल रूप से साक्षरता प्रोग्राम, बड़े पैमाने पर ऑनलाइन कोर्सेज का विकास आदि स्तर पर कार्य किया जाना है. पंचायत स्तर तक इन्टरनेट की सुविधा की उपलब्धता, ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल एजुकेशन आदि कस्बाई और ग्रामीण छात्रों के लिए कंप्यूटर की शिक्षा को सुलभ बना देगा. इसके साथ साथ इन इलाकों में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा, योग्य शिक्षकों की समस्या से भी निबटने में इस प्रोग्राम की मदद से सहायता प्राप्त होगी. कहना न होगा कि यदि इस तरह की शिक्षा प्रणाली का विकास करने में भारत सफ़ल रहा तो विकसित देशों की श्रेणी में आने के लिए हम एक बड़ी सीढ़ी चढ़ जायेंगे. ये होना इसलिए भी ज़रूरी है क्यूंकि भारत युवा देश है और युवाओं को एक सही दिशा और देश दुनिया से जुडाव उनके लिए संभावनाओं के नए आयामों को खोल देगा. धीरे धीरे ही सही लेकिन हम बदलावों के साक्षी बन रहे हैं. अभी तक सवा अरब लोगों में केवल 19 प्रतिशत लोग ही इन्टरनेट का प्रयोग कर रहे हैं लेकिन ये रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही है. मोबाइल पर इन्टरनेट का प्रयोग करने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है. इंटरनेट एंड मोबाईल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया की नयी रिपोर्ट के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रयोगकर्ता सैंतालीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं जिनकी संख्या संख्या साल 2015 के अंत तक 127 मिलीयन हो जाने  की उम्मीद है | स्मार्टफ़ोन की खपत भी भारत में बढ़ी है ऐसे में डिजिटल इंडिया प्रोग्राम उम्मीद जगाता है कि शिक्षा का पुराना स्वरुप बदलकर इन्टरनेट आधारित हो जायेगा. प्राइमरी स्तर पर स्मार्ट क्लासेज का चलन बच्चों को केवल किताबी ही नहीं बल्कि प्रयोगात्मक शिक्षा की और ले जायेगा, बच्चों में प्रारंभ से ही वैज्ञानिकता का विकास होगा. लेकिन इस सपने के आगे चुनौतियों का बड़ा पहाड़ खड़ा है. आज भी दूर दराज़ के गाँव और कस्बों के स्कूल कंप्यूटर से दूर हैं. यह हाल कमोबेश हर उस छात्र का है जिसने गाँव या कस्बे के स्कूल से पढाई अवश्य की है लेकिन कंप्यूटर ज्ञान नगण्य है. ज़्यादातर गाँव और कस्बों में स्कूलों में या तो कंप्यूटर नहीं होता है उन्हें पढ़ाने वालों की कमी होती है. ऐसे में छात्र इससे वंचित रह जाते हैं. अधिकांश युवाओं के लिए मोबाइल चला लेना भर ही डिजिटल होने की परिभाषा है. अंग्रेजी पढ़ा लिखा समाज तो बिना किसी समस्या के इस योजना का लाभ ले लेगा, समस्या ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले और आदिवासी क्षेत्र के लोगों की है जिनके लिए आज भी अच्छा रहन सहन और सामाजिक स्तर दूर की कौड़ी है. उनका ध्यान केवल परिवार के पेट पालने पर है. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के मुताबिक भारत में दस में से सात घर ग्रामीण हैं जो 200 रूपए रोज़ कम पर जीवन यापन कर रहे हैं. आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी जागरूकता की कमी के कारण गरीबी और अशिक्षा में ही लोग जीवन जी रहे हैं. ऐसे में डिजिटल इंडिया प्रोग्राम का सभी नागरिकों को साथ लेकर चलने वाली योजना खटाई में पड़ सकती है. देश पहले ही रूरल अर्बन डिवाइड की समस्या से जूझ रहा है ऐसे में डिजिटल इंडिया प्रोग्राम उम्मीद ज़रूर बंधाता है लेकिन उससे पहले देश में पहले से मौजूद समस्याओं के पहलुओं पर गौर करना ज़रूरी हो जाता है. सबसे पहले गाँवों और आदिवासी जनों को मुख्यधारा से जोड़ा जाना अति आवश्यक है और ये भी ज़रूरी है कि हर व्यक्ति की एक निश्चित आय हो जो उसके परिवार के पालन और उसके बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त हो. तभी हर युवा सही मायने में आगे बढ़ पायेगा और उसके लिए संभावनाओं के क्षेत्रों में इज़ाफा होगा केवल देश में ही नहीं विदेशों में भी लेकिन ये केवल ख़्वाब हैं जिनकी बुनियाद को पक्का किया जाना बाकी है. असल इंडिया डिजिटल तब होगा जब धरती चीर कर अन्न उगाने वाले हाथ माउस भी उतनी ही सहजता से चला पायें. 

Aug 6, 2015

केवल शिक्षा की तरफ ही कदम आगे बढ़ें न कि गर्त में धकेलते किसी पाखंड की तरफ.


अभी कुछ दिन पहले वैज्ञानिक सोच रखने वाले पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के निधन पर पूरा देश रोया लेकिन उनके तरह वैज्ञानिक सोच लेकर आचरण करने को अभी हम अपना ही नहीं कर पाए. सोशल मीडिया और टीवी पर हमने कई बार देखा होगा जैसे इस फ़ोटो को शेयर करें और पायें असीम कृपा तुरंत. फलां भगवान् जी दिलाएंगे आपको वीज़ा. बस एक लॉकेट भर दूर है आपकी किस्मत. अल्लाह लॉकेट को पहनिए, किस्मत आपके कदम चूमेगी. “होली वाटर” की एक बोतल घर लाइए और ईसामसीह की कृपा से अपना घर भर दीजिये. एक तरफ जहाँ इन्टरनेट से दुनियां जहान से हम लोग जुड़ रहे हैं वहीँ इसी इन्टरनेट से अन्धविश्वास की गली को चौड़ा किया जा रहा है. सांप सपेरों की धरती कहे जाने वाले देश में माउस से खेलने वाले युवाओं से उम्मीद बंधी थी  कि अब अंधविश्वासों को काबू किया जा सकेगा लेकिन इसी माउस की क्लिक से पाखंड को बढ़ावा मिल रहा है. कई सालों से हम धर्म के नाम पर पैसा कमाने और नफ़रत फैलाने वालों को देखते और सुनते आ रहे हैं और कई ऐसे गुनहगारों को जेल के पीछे भी देखा है. ज्यादा दूर जाने की ज़रुरत नहीं है. आसाराम बापू का प्रकरण खूब चर्चा में रहा था. केवल उन पर ही नहीं बल्कि उनके बेटे पर भी यौन उत्पीडन के आरोप लगे थे. उससे पहले नित्यानंद स्वामी का ऐसा ही प्रकरण सामने आया था. निर्मल बाबा के दरबार और समागम में समोसा और गोलगप्पे खा लेना ही मानव की समस्याओं का उपाय है. दक्षिण के मंदिरों में धन के भंडार भरे हैं. सत्य साईं बाबा के देहावसान के बाद इसका खुलासा भी हुआ था. खुद को राधे माँ कहने वाली एक स्त्री पर  दहेज़ उत्पीडन का आरोप लगा है. स्वयं को कबीर का अवतार बताने वाले रामपाल इन सबसे एक कदम आगे थे. रामपाल के ऊपर ज़मीन पर अवैध कब्ज़े का आरोप लगा था. उनका आश्रम हर तरह की सुख सुविधाओं से परिपूर्ण था और उन्होंने सशस्त्र बल भी अपनी सुरक्षा के लिए तैनात कर रखा था और वो भी बहुत बड़ी संख्या में. ये केवल बड़े कुछ नाम हैं जो चर्चा में रहे. ऐसे ही मुस्लिम समुदाय में कुछ मौलवी, पीर, फ़कीर जिन्न भागने के नाम पर औरतों के बाल खींच खींच कर पाखंड का प्रदर्शन करते नज़र आते हैं. 5000 करोड़ की संपत्ति के मालिक डॉ. पॉल दिनाकरण का कहना है कि स्वयं ईसामसीह ने उन्हें शक्तियां प्रदान कीं. बाकी अख़बारों में तो हम गाहे बगाहे छोटे मोटे बाबाओं, मौलवियों के बारे में पढ़ते ही रहते हैं. अब भारत के साक्षरों की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 74 प्रतिशत लोग साक्षर हैं और इन धर्म कारोबारियों के व्यापार के फलने फूलने में ज़्यादातर इन्हीं लोगों का अधिक योगदान रहता है. जेबों में रखे पैसे का उपयोग इनके द्वारा बताये गए उपाय की फीस या फिर “सेवा” देने में किया जाता है. अपने रोज़ के काम हों या व्यापार के या फिर घर की सुख शांति के उपाय हों या घर में किसी की शादी, ये सब काम इन्हीं लोगों से पूछ पूछ कर किये जाते हैं और भगवान के नाम पर डराने वाले लोगों को मानने लोगों के लिए ये केवल कुछ रुपये हैं लेकिन यही कुछ रुपये बहुत लोगों के मिलाकर इतने भर हो जाते हैं कि पाखंड का एक शामियाना स्थापित किया जा सके और बस इनकी दुकान चल निकलती है.
अब वो बात जो शायद आपको थोड़ी कडवी लगे. ग़लती इन लोगों की जितनी है उससे ज्यादा ग़लती इस देश के नागरिकों की यानि आपकी है. अभी भी देश धर्मगुरुओं के भरोसे चल रहा है. हम विकसित देशों में आने की बात तो करते हैं लेकिन आज भी घर से निकलने से पहले चौघडी या दिन का विचार करते हैं. यदि भारत युवा देश है तो इन युवा आँखों में स्वयं और देश की तरक्की का सपना तैरना चाहिए न कि किसी गोली, ताबीज, भस्म या तस्वीर को लेकर हद पागलपन. सड़क के किनारे लगे तम्बू में अपने दुखों का इलाज़ ढूंढते इस युवा भारत को शायद ये पता नहीं कि यदि केवल 10 रुपये में मिलने वाली भस्म हर मर्ज़ का इलाज़ होती तो ये तम्बू लगाने वाला सबसे पहले अपने लिए एक घर और उसमे सुख सुविधाओं की व्यवस्था करता. उसके पास आपसे ज्यादा दुःख है. इस देश को विकास की ओर केवल वैज्ञानिक सोच ही लेकर जा सकती है और इस सोच को अपनाने के लिए सबसे पहले अंधविश्वासों से बाहर आना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि केवल शिक्षा की तरफ ही कदम आगे बढ़ें न कि गर्त में धकेलते किसी पाखंड की तरफ.

Jul 26, 2015

मदद की एक अपील.. आपसे

एक अपील , आपसे .. जी हाँ आपसे ही. अपील वो नहीं जो आप सोच रहे हैं.. वही घर, वही परिवार की बंदिशें, वही पुराने प्यार का दर्द और आने वाले जीवनसाथी की चाह में बुनी हुई चुनरी की ख्वाहिशें.. वो सब नहीं.. बिलकुल नहीं.
अपील एक लड़की की जिसने अभी अपने पंख सिर्फ फड़फड़ाए हैं, उड़ान नहीं भरी. उससे पहले सोचा आपसे मदद की अपील करूँ. केवल कुछ मिनट का वक़्त देकर मुझे पढ़ लीजिये.

बात कुछ यूँ है कि मुझे डर लगना शुरू हो गया है. बहुत डर जाती हूँ. अक्सर इस डर की वजह से ना घर से बाहर निकलती हूँ ना ही दोस्त बनाती हूँ. अजीब सा डर है. आगे बढ़ने की हिम्मत भी देता है और रास्ते का रोड़ा भी बन जाता है. हूँ तो एक आम लड़की लेकिन सपने बहुत बड़ा नाम कमाने के हैं. पता चला कि एक आम लड़की जब आगे बढ़ने के लिए कदम उठाती है तो ये समाज उसके चरित्र पर बिना काम के खाली बैठे और दूसरों की सफ़लता से शरीर की भीतरी कोशिकाओं तक जले भुने बैठे लोगों की दी हुई कीचड़ की मोटी मोटी गोलियां दागने को तैयार रहता है. समाज बनता किससे है? हम लोगों से ही. मज़ा आता है कहने वालों को भी और सुनने वालों को भी और इस बात को आग की तरह फैला देने का ज़िम्मा कन्धों पर उठाये लोगों को भी. अब किसी ने कुछ कहा है तो कुछ सच्चाई तो होगी ही.. भले ही उस सच्चाई को ठीक से देखा ही न गया हो या सिर्फ उतना देखा हो जितना अफ़वाह के बाज़ार में अपनी धाक बनाने के लिए ज़रूरी है. अब हूँ तो लड़की ही.. कितनी भी हिम्मत दिखाऊ पर कहीं न कहीं उस चोट के दर्द से टूट भी तो जाउंगी. मानसिक तनाव से भी गुज़रना पड़ेगा. हो सकता है कि रो रोकर कई रातें भी काली हों, हो सकता है कि काम करना ही बंद कर दूँ या हो सकता है कि इतनी बिगड़ जाऊं कि सम्हालने की स्थिति ही न बचे या फिर डर डर के जीने की आदत पड़ जाए. जब काम के सिलसिले में कहीं किसी से मिलने की बात हो तो दिल धक् धक् करे कि कहीं अभी ये उस अफवाहों के बाज़ार में मेरी इज्ज़त की नुमाइश देखने तो नहीं गया था ..किसी ने इससे कुछ कहा तो नहीं होगा? बस यहीं पर आगे बढ़ने के रास्ते में एक लेकिन और एक काश ने मेरा हाथ थाम लिया. “लेकिन” मुझे खुद को हर पल लोगों को सफ़ाई देने पर मजबूर करता है और “काश” उन लम्हों को कोसता है जब चेहरे पर मुस्कराहट और हाथ में खंजर लेकर बैठे लोगों से बात की.
कभी कभी ये डर हिम्मत बंधाता है. फिर लगता है कि मुझे फर्क नहीं पड़ता. लोगों का तो काम ही है बोलना. कुछ तो बोलेंगे ही लेकिन खुद से झूठ भी कैसे बोलूं. फ़र्क तो पड़ता है.. दिल तो दुखता ही है.. तकलीफ़ भी बहुत होती है पर आगे बढ़ने का जज़्बा फिर मुझे ले उठ खड़ा होता है. मैं फिर आगे बढ़ तो जाती हूँ लेकिन उसी डर के साथ कि कौन कब क्या बोल देगा मैं नहीं जानती. आगे बढ़ने के लिए लोगों से मिलना भी पड़ेगा. बड़ा नाम बनाने के लिए सामाजिक दायरा भी बड़ा करना पड़ेगा, और समस्या ये है कि मैं एक सीधी सी आम लड़की हूँ जिसको मुंह में गाली रखकर चलना भी नहीं आता और नाम भी कमाना है.
आप सभी लोगों से मदद तो चाहिए ही लेकिन एक सवाल है मेरा कि क्या आप किसी भी लड़की के बारे में ऐसी बातें सुनते वक़्त एक छोटा सा जवाब नहीं दे सकते कि पहले उससे मिल लो फिर मुझे बताना. किसी को बिना जाने समझे इस तरह की बात बोलना ठीक नहीं है वो भी हमारे जैसे देश में जहाँ लड़कियों का आगे बढ़ना कितना मुश्किल है. शादी की बेड़ियाँ बचपन से ही उसके पावों में होती हैं जो वक़्त के साथ उसके पावों को कसती जाती हैं और एक वक़्त वो आता है जब एक जगह रुक जाने के अलावा कुछ नहीं बचता.









मेरी बस थोड़ी मदद कीजिये. मैं आम हूँ, ख़ास भी बन जाउंगी, तब आपको मुझ पर ज़रूर गर्व होगा. लेकिन इस रास्ते को केवल उतना मुश्किल बनाइये जितना आपके परिवार की महिलाएं झेल सकें. मैं आगे बढ़ना तो नहीं छोड़ सकती लेकिन एक रिश्ते के नाते मदद माँग सकती हूँ, रिश्ता खून का नहीं, इंसानियत का. आगे बढूँ तो हिम्मत बढाइये, अगर ग़लती करूँ तो ज़रूर बताइए लेकिन उस ग़लती को अपनी जलन को निकालने का बहाना मत बनाइये. मेरी प्रेरणा वो लड़कियां ज़रूर हैं जो इन सब बातों से ऊपर उठ कर आगे निकलीं लेकिन क्या हर लड़की को दिल में कुछ काले दिन और दर्द लेकर ही आगे बढ़ना ज़रूरी है. नहीं न. मैं बस इतना चाहती हूँ कि जब मैं कभी अपना जिक्र करूँ तो आपके दिए घावों के बदले आपकी की हुई इस छोटी से मदद को याद करूँ.

पहली और आख़िरी अपील है आपसे. निराश मत करियेगा. मुझे समय देने के लिए धन्यवाद.